- 534 Posts
- 5673 Comments
रसखान एक कृष्ण भक्त मुस्लिम कवि थे,उनका असली नाम सैयद इब्राहिम खान था.’रसखान’ को रस की ख़ान कहा जाता है और हिन्दी साहित्य में कृष्ण भक्त तथा रीतिकालीन कवियों में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है.इनका जन्म १५४८ ई के लगभग दिल्ली के समीप अथवा अन्य विद्वानों के मत से पिहानी,ज़िला-हरदोई,उत्तर प्रदेश में हुआ था.कृष्ण-भक्ति से प्रभावित होकर इन्होने गोस्वामी विट्ठलनाथ जी से दीक्षा ली थी और ब्रजभूमि में जाकर बस गए थे.इनकी मृत्यु १६२८ ई के लगभग मानी जाती है.इनके जीवन का अधिकांश भाग मथुरा में ही गुजरा था.रसखान कृष्ण भक्त थे और भगवान श्री कृष्ण के सगुण और निर्गुण निराकार रूप दोनों के प्रति श्रद्धावान थे.रसखान की रचनाओं में उनके आराध्य सगुण श्री कृष्ण लीलाएं करते हैं,जैसे- बाललीला, रासलीला, फागलीला, कुंजलीला आदि.भक्त कवि रसखान जी की उपलब्ध कृतियाँ-“सुजान रसखान” और “प्रेम वाटिका” हैं और उनकी रचनाओं का संग्रह “रसखान रचनावली” के नाम से मिलता है.इस आलेख में मैने व्याख्या के लिए कवि रसखान जी के कुछ उन पदों व् दोहों को शामिल किया है,जिनमे भगवद प्रेम या सच्चे प्रेम की अनूठी झलक दिखाई देती है.
व्रजभूमि में रहते हुए भक्त कवि रसखान जी आजीवन ईश्वर की खोज में लगे रहे,अंत में उन्हें ईश्वर की अनुभूति हुई.अपने इस अनुभव के बारे में वे अपने पदों में कहते है कि निर्गुण निराकार ब्रह्म सगुण साकार होकर कैसे संसार में लीला कर सकता है? यह जानने के लिए मैंने वेद पुराणों से लेकर बहुत से ज्ञानी व्यक्तियों तक से जानने-समझने की कोशिश की,परन्तु यह समझ में नहीं आया कि निर्गुण निराकार परमात्मा सगुण साकार कैसे हो सकता है?भक्त रसखान ब्रज में सर्वत्र कृष्ण का अन्वेषण कर हार गये, तो अन्त में वृन्दावन के निकुंज वन में रसिक कृष्ण का दर्शन हुआ.जहां पर उन्होंने देखा कि भगवान श्री कृष्ण अपनी शाश्वत शक्तिस्वरूपा एवं आह्लादिनी शक्ति राधा रानी के चरण कमल दबा रहें हैं.राधा कृष्ण का दिव्य दर्शन कर भक्त रसखान धन्य हुए,उन्होंने इस घटना का वर्णन अपने सरस पदों में इस प्रकार से व्यक्त किया है-
ब्रह्म में ढूँढ्यौ पुरानन गानन बेद-रिचा सुनि चौगुने चायन।
देख्यौ सुन्यौ कबहूँ न कितूँ वह कैसे सरूप औ कैसे सुभायन।
टेरत हेरत हारि परयौ रसखानि बतायो न लोग लुगायन।
देख्यो दुर्यों वह कुंज कुटीर में।बैठ्यो पलोटत राधिका पायन॥
रसखान जी की रचनाओं में सच्चे प्रेम की पराकाष्ठा है.उनके इन पदों को जब भी मै पढता हूँ मेरी आँखे भर आती हैं.कंठ अवरुद्ध हो जाता है.इन पदों में प्रेम की पराकाष्ठा है.ये किसी भक्त कवि के ह्रदय के अनुभव हैं.ब्रह्मा,गणेश,शिव,विष्णु और देवताओं के राजा इन्द्र जिस परमात्मा का निरंतर गुणगान करते हैं.वेद,पुराण और उपनिषद जिसे निराकार और अनंत बताते हैं.नारद,शुकदेव और व्यास जैसे भक्त जिस परमात्मा का कोई ओर-छोर नहीं पा सके.वही परमात्मा जब सगुण देह धारण करके व्रज में अवतार लेते हैं तो-
“ताहि अहीर की छोहरियाँ, छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं॥”सारी सृष्टि को चलाने वाले परमात्मा जिनका गुणगान समस्त देवता गण करते हैं,जो मूल रूप में निराकार,अनंत ओर अखंड हैं,नारद,शुकदेव और व्यास जैसे भक्त व् ज्ञानी जिनका पार नही पा सके,उनको व्रज में ग्वालिनें थोड़े से छाछ के लिए नाच नचवा रहीं हैं.सच्चे प्रेम का कितना अदभूद वर्णन है.भगवन प्रेम के वशिभूत होकर भोली व् अनपढ़ गोपियों द्वारा थोडा सा,छाछ पाने की लालसा में नाच रहे हैं.भगवान ने प्रेम को बड़प्पन प्रदान किया है.रसखान के इन पदों में निच्छल प्रेम का कितना सुंदर वर्णन है-
॥ताहि अहीर की छोहरियाँ, छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं॥
सेस गनेस महेस दिनेस, सुरेसहु जाहि निरंतर गावै।
जाहि अनादि अनंत अखण्ड, अछेद अभेद सुबेद बतावैं॥
नारद से सुक व्यास रहे, पचिहारे तू पुनि पार न पावैं।
ताहि अहीर की छोहरियाँ, छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं॥
॥देख्यो दुर्यों वह कुंज कुटीर में।बैठ्यो पलोटत राधिका पायन॥
रसखान जी के कुछ ऐसे दोहे जो सच्चे प्रेम से ओत-प्रोत हैं और सच्चे प्रेम की बहुत शिक्षाप्रद व् उपयोगी परिभाषा देते हैं,उन दोहों का वर्णन करते हुए सरल ढंग से अपने अनुभव के अनुसार व्याख्या कर रहा हूँ-
प्रेम प्रेम सब कोउ कहत, प्रेम न जानत कोइ।
जो जन जानै प्रेम तो, मरै जगत क्यों रोइ॥
सब एक दूसरे से कहतें है कि मै तुमसे प्रेम करता हूँ,लेकिन प्रेम वास्तव में है क्या,ये कोई नहीं जनता है.जो जान लेता है कि प्रेम क्या चीज है,वो किसी की मृत्यु पर या कोई हानी होने पर रोता नहीं है.जगत में भी जगत है.हर व्यक्ति का अपना-अपना बसाया हुआ घर-संसार है.ये घर-संसार परिवर्तनशील और नश्वर है.इसके नष्ट होने पर वास्तविक प्रेम को जानने वाला व्यक्ति नहीं रोता है.
दंपति सुख अरु विषय रस, पूजा निष्ठा ध्यान।
इन हे परे बखानिये, सुद्ध प्रेम रसखान॥
पति-पत्नी के बीच का प्रेम,सांसारिक विषय-वस्तुओं से प्रेम और यहाँ तक की देवी-देवताओं की निष्ठां से ध्यान व् पूजा करना,ये सब भी शुद्ध प्रेम नहीं है.भक्त कवि रसखान जी कहते हैं कि शुद्ध प्रेम समस्त सांसारिक प्रेम से परे है.
प्रेम रूप दर्पण अहे, रचै अजूबो खेल।
या में अपनो रूप कछु, लखि परिहै अनमेल॥
प्रेम आईने की तरह है.जो अजूबे खेल दिखाता है.जैसी भाव-भंगिमा बनाकर आप आईने के सामने खड़े होंगे,वैसी वो तस्वीर दिखायेगा.रसखान जी कहते हैं कि इसमें मुझे अपना रूप जो दिखाई देगा वो सांसारिक भाव भंगिमाओ से परे वाला होगा,अर्थात भक्ति ह्रदय की चीज है इसीलिए वो दर्पण में नज़र नहीं आएगी.
भले वृथा करि पचि मरौ, ज्ञान गरूर बढ़ाय।
बिना प्रेम फीको सबै, कोटिन कियो उपाय॥
कितने लोग हैं जो ब्यर्थ का ज्ञान इकट्ठा करने में ही सारी उम्र बिता देते हैं,उस ज्ञान का वो कोई उपयोग भी नहीं कर पातें हैं.ज्ञान केवल अहंकार को बढाता है.आदमी ज्ञान प्राप्त करने का करोड़ों उपाय कर ले परन्तु यदि ईश्वर से प्रेम नहीं किया तो सब ज्ञान व्यर्थ है.
बिन गुन जोबन रूप धन, बिन स्वारथ हित जानि।
सुद्ध कामना ते रहित, प्रेम सकल रसखानि॥
परमात्मा जो बिना गुण,बिना यौवन व् बिना रूप धन वाला है.बिना किसी स्वार्थ के वो हम सबसे प्रेम करता है.रसखान जी कहते है कि कामनाओं से रहित होकर सम्पूर्ण और शुद्ध प्रेम परमात्मा से करना चाहिए.
काम क्रोध मद मोह भय, लोभ द्रोह मात्सर्य।
इन सबहीं ते प्रेम है, परे कहत मुनिवर्य॥
सारे ऋषि-मुनि यही कहते है कि सच्चा प्रेम काम,क्रोध,अहंकार,मोह,लोभ,द्रोह और ईर्ष्या-द्वेष से परे होता है.
कमल तंतु सो छीन अरु, कठिन खड़ग की धार।
अति सूधो टढ़ौ बहुरि, प्रेमपंथ अनिवार॥
प्रेम कमल की नाल से भी कोमल है और तलवार की धार से भी तेज है.प्रेम का मार्ग बहुत सीधा भी है और बहुत टेढ़ा भी है.प्रेम का मार्ग बड़ा ही विचित्र है.परमात्मा से यदि प्रेम छल विहीन है यानि निश्छल ह्रदय का प्रवाह है तो प्रेम का मार्ग सीधा है,परन्तु यदि सांसारिक प्रेम भी ह्रदय में बना हुआ है और जीवन की कठिनाइयों से तथा लोगों के व्यंग्य व् उपहास से हम घबरा जाते हैं तो ईश्वरीय प्रेम के मार्ग पर चलना अति कठिन है.
प्रेम अगम अनुपम अमित, सागर सरिस बखान।
जो आवत एहि ढिग बहुरि, जात नाहिं रसखान॥
प्रेम अगम है अर्थात सच्चे प्रेम में कोई दुःख नहीं है,सच्चा प्रेम अनुपम है और सागर की तरह असीम है.कवि रसखान जी कहते हैं कि सच्चा प्रेम यदि ह्रदय में उत्पन्न हो जाये तो फिर वो जाने वाला नहीं है जैसे जो बूंद समुन्द्र में मिल गई तो फिर कहाँ जाएगी.
हरि के सब आधीन पै, हरी प्रेम आधीन।
याही ते हरि आपु ही, याहि बड़प्पन दीन॥
सारी सृष्टि ईश्वर के अधीन है,परन्तु स्वयम ईश्वर प्रेम के अधीन हैं.मनुष्य को ईश्वर ने खुद ये बड़प्पन प्रदान किया है कि सच्चे प्रेम के द्वारा तुम मुझे अपने वश में कर सकते हो.
प्रेम हरी कौ रूप है, त्यों हरि प्रेम सरूप।
एक होय द्वै यौं लसैं, ज्यों सूरज औ’ धूप।
सच्चा प्रेम ईश्वर का रूप है और ईश्वर प्रेम-स्वरुप है.सूरज और उसकी धूप दो दिखाई देते हैं,लेकिन वास्तव में एक है,ठीक इसी तरह से प्रेम और हरि भी एक हैं.सूरज से जैसे धूप निकलती है,धूप को देखते हुए हमारी निगाह सूरज तक जा पहुंचती है,ठीक इसी तरह से ईश्वर से भी प्रेम की धारा निकलती है,जिसे पकड़कर ईश्वर तक पहुंचा जा सकता है.धारा को दूसरी तरफ से पढ़िए तो राधा और राधा भगवान कृष्ण तक पहुँचने की एक डोरी है.
(सद्गुरु श्री राजेंद्र ऋषि जी,प्रकृति पुरुष सिद्धपीठ आश्रम,ग्राम-घमहापुर,पोस्ट-कंदवा,जिला-वाराणसी.पिन-२२११०६)
Read Comments