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गहन एकांत के क्षणो में
मेरे ह्रदय में उतरी ये
आध्यात्मिक कविता
प्रभु के समस्त अविनाशी
अमृत-पुत्रों को समर्पित है-
“पाता अंतर-पथ में ज्योति”
प्रभु से प्रीत जो प्यारे होती,
पाता अंतर-पथ में ज्योति.
अंतस से तेरी प्रीत जो होती,
पाता जीवन-पथ में मोती.
जग का मेला निसदिन देखा,
खुद को न देखा अँधा रे.
खुद ही लिखा है कर्मो का लेखा,
करके काला-उजला धंधा रे.
अंतर की आवाज़ जो सुनता,
मन की चादर मैली न होती.
माया ने मति ऐसी मारी,
सत की संगत हुई न प्यारे.
की नहीं घर चलने की तैयारी,
अब कहाँ चलोगे हंसा प्यारे.
काश अगर तू उन्मुख होता,
काल के रथ में रूह न होती.
फिर न भटकती काशी-काबा,
फिर न अटकती देह में बाबा.
प्रभु के जो ये सन्मुख होती,
ज्योति में ज्योति जा समाती.
प्रभु से प्रीत जो प्यारे होती,
पाता अंतर-पथ में ज्योति.
(सद्गुरु श्री राजेंद्र ऋषि जी,प्रकृति पुरुष सिद्धपीठ आश्रम,
ग्राम-घमहापुर,पोस्ट-कंदवा,जिला-वाराणसी.पिन-२२११०६)
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