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प्रिय पाठकों, सादर हरि स्मरण.आप सब से मेरा विनम्र निवेदन है कि इस लेख को आप पूरा पढ़ें और अपने मित्रों व् परिचितों को भी पढ़ने की सलाह दें. गीता रूपी अमृत हमें जन-जन तक पहुंचाना है. सबको पता चलना चाहिए कि गीता जैसा अमृत-कलश सारी दुनिया के मनुष्यों के लिए स्वयं भगवान का दिया हुआ एक अनमोल उपहार है, जिसे न सिर्फ हमें सम्भाल कर रखना है, बल्कि उसका प्रचार-प्रसार भी करना है. ये हम सब का परम कर्तव्य है. इस आलेख में गीता के कुछ महत्वपूर्ण श्लोको की व्याख्या मैंने अपने अनुभव के आधार पर की है. भविष्य में भी समय-समय पर गीता के महत्वपूर्ण श्लोकों की व्याख्या मै करता रहूँगा.
श्रीमदभगवद्गीता का अर्थ है- श्री= सर्वशक्तिमान सर्वव्यापी परमात्मा,मद= जिससे बड़ा नशा दुनिया की किसी भी चीज में नहीं है, भगवद= भगवान का, गीता= गाया हुआ गीत अर्थात गीता सर्वव्यापी परमात्मा का, जो दुनिया का सबसे बड़ा नशा है, उस भगवान का गाया हुआ गीत है. एक ऐसा गीत जो कल भी उतना ही प्रासंगिक था, जितना आज है और भविष्य में भी इतना ही प्रासंगिक रहेगा. गीता भगवान का गाया हुआ एक ऐसा गीत है, जो हमेशा चिर-युवा रहेगा, न ये कभी बूढ़ा होगा और न कभी मृत. ये एक अमर गीत है और सत्य के खोजियों के लिए अमृत है. बहुत से लोग कहते हैं कि गीता कृष्ण-अर्जुन का संवाद था, हमसे क्या मतलब? इस दुनिया से क्या मतलब? ऐसे नासमझ लोगों को गीता का मर्म मालूम ही नहीं है. गीता गुरु-शिष्य का संवाद जरुर है, लेकिन वो हर युग के गुरु-शिष्य का संवाद है. गीता के कृष्ण शाश्वत हैं और अर्जुन भी शाश्वत हैं. आज के गुरु आज के कृष्ण हैं और आज के शिष्य आज के अर्जुन हैं. गीता में किसी भी व्यक्ति के सभी प्रश्नों का सही जबाब मिल जायेगा, परन्तु ये जरुरी है कि ये ठीक से पढ़ी और समझी जाये. इसीलिए गीता में किसी ऐसे जानकर गुरु के पास जाने की सलाह दी गई है, जो गीता के असली अर्थ को भली-भांति जानते हों. गीता के अध्याय ४ श्लोक ३४ में कहा गया है-
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥४-३४॥
गीता के तत्वज्ञान को समझने हेतु किसी ऐसे गुरु की खोज करो, जो तत्वज्ञानी और तत्वदर्शी दोनों हों. जो भगवान को तात्विक दृष्टि से न सिर्फ जानते हों बल्कि तात्विक दृष्टि से देखा भी हो. ऐसे गुरु को भली-भांति प्रणाम करो, उनकी सेवा करो और निच्छल ह्रदय से उनसे प्रश्न पूछो, वे आप को सत्य की जानकारी देंगे.
गीता के अनुसार इस सृष्टि में जानने योग्य तीन ही चीजे हैं.पहला- त्रिगुणमयी माया. जिसका वर्णन अध्याय ७ श्लोक १४ में इस प्रकार से है-
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥७- १४॥
यह अदभुद त्रिगुणमयी भगवान की माया बड़ी दुस्तर है. सृष्टि में सर्वत्र दिखाई देने वाली त्रिगुणमयी (सत, रज, तम) माया भगवान की शक्ति है और ये शक्ति बहुत परेशान करने वाली है. क्या साधू क्या गृहस्थ माया से सभी परेशान हैं. माया से छुटकारा पाने का एकमात्र उपाय भगवान को निरंतर याद करना है. भगवान का हमेशा स्मरण करने वाले लोग माया से पार पा जाते है अर्थात संसार सागर से तर जाते हैं.
इस संसार में जानने योग्य दूसरी चीज आत्मा है. इसका सबसे अच्छा वर्णन अध्याय १३ श्लोक २२ में है-
उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः ।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः ॥१३- २२॥
इस देह के भीतर जो आत्मा है, वो वास्तव में परमात्मा ही है. शरीर के भीतर स्थित आत्मा उपद्रष्टा है अर्थात देखने वाले को देखती है. आत्मा देह में साक्षी भाव में होने के कारण उपद्रष्टा कही गई है. साक्षी भाव साधना जिसका आज पूरी दुनिया में ढिंढोरा पीटा जा रहा है और आज के सभी आधुनिक संत उसे अपनी मौलिक खोज बताते हैं. मेरे प्रिय पाठकों इसी श्लोक से साक्षी भाव वाली बात सबने चुराई है और आज वो लोग अहंकार में चूर होकर कहते हैं कि मै गीता को नहीं मानता. ये तो वही बात हुई कि कोई कहे कि मै अपनी माँ को नहीं मानता.
दोस्तों, गीता हो, कुरान हो, बाइबिल हो अथवा गुरुग्रंथ साहिब हो ये सभी वाणियां परमात्मा में लीन रहने वालों के भीतर उतरी हैं, इसीलिए इन्हे परमात्मा की वाणी कहा गया है. मैंने ऐसे मुस्लिम विद्वान् देखें हैं जो बड़ी श्रद्धा से गीता पढ़ते हैं. वो गीता में भी उतनी ही श्रद्धा रखते हैं, जितनी कुरान में. एक मुस्लिम संत से मेरी बड़ी दोस्ती थी. एक बार जब उनसे मै मिला तो वो गीता पढ़ रहे थे. मैंने पूछा- आज आप गीता पढ़ रहे हैं?
उन्होंने जबाब दिया- दोनों ही ग्रंथों में वर्णित कर्मकांडों को छोड़ दीजिये तो मूल फिलोसफी में अंतर ही कहाँ है? दोनों ही ग्रंथो में निराकार परमात्मा की चर्चा की गई है. इनमे से कोई भी ग्रन्थ कायदे से आदमी पढ़ ले, समझ ले तो दोनों की मूल फिलोसफी उसे एक ही नज़र आएगी और वो है- एक सर्वव्यापी निराकार परमात्मा की इबादत करना. जहाँ एक ओर बहुत से मुस्लिम विद्वान गीता पढ़ते हैं, वहीँ दूसरी तरफ हिंदुओं में ही बहुत से ऐसे आधुनिक ओर तथाकथित स्वघोषित ज्ञानी साधू हैं जो कहते हैं कि गीता को फैंक दो ये पुरानी पड़ चुकी, ये कृष्ण-अर्जुन संवाद मात्र है हमसे क्या मतलब. वो इसीलिए ऐसा बोल लेते हैं, क्योंकि एक तो उन्होंने गीता कायदे से पढ़ी नहीं, समझी नहीं, दूसरी बात वो जानते हैं कि हिन्दू बहुत उदार और असंगठित होते हैं, अपने धर्मग्रंथो की आलोचना भी झेल लेते हैं. मुस्लिम, सिख्ख ओर ईसाई आदि जो लोग संगठित हैं ओर अपने धर्म के प्रति गहरी श्रद्धा रखते हैं, उनके सामने उनकी बोलती बंद हो जाती है. उनके धर्मग्रंथों के बारे में कुछ कहने की उनकी हिम्मत नहीं होती है.
आत्मा शरीर के भीतर अनुमन्ता के रूप में है. इसका अर्थ है कि साधना की ऊँची अवस्था में आत्मा साधक का मार्गदर्शन करने लगती है. आत्मा बतियाती है, बशर्ते हम साधना करके उस लायक बनें. आत्मा देह के भीतर भर्ता के रूप में है, वो पूरे शरीर और हर अंग का पालन-पोषण करती है. आत्मा यदि देह से बाहर निकल जाये तो शरीर कार्य करना बंद कर देता है. इसी को मृत्यु कहा जाता है. आत्मा देह में भोक्ता के रूप में है. आत्मा जीव रूप में भोक्ता है. आत्मा महेश्वर है. आत्मा अपने विराट स्वरुप में अर्थात परमात्मा के रूप में ब्रह्मा, विष्णु और महेश सबका स्वामी है. आत्मा परमात्मा है. आत्मा और परमात्मा दोनों को सच्चिदानंद कहा गया है. दोनों में ही तीन विशेषताएं हैं- पहला-सत्य, दूसरा- चित्त और तीसरा- आनंद. शरीर के भीतर जो आत्मा के रूप में है वही शरीर के बाहर परमात्मा के रूप में स्थित है.
परमात्मा कहाँ पर हैं और क्या करते हैं, ये जानना बहुत जरुरी है. गीता के अध्याय १८ श्लोक ६१ में इन महत्वपूर्ण प्रश्नो का उत्तर दिया गया है-
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ॥१८- ६१॥
परमात्मा सभी प्राणियों के शरीर के भीतर ह्रदय में रहते हैं. शरीर में स्थित परमात्मा अपनी माया यानि तीन गुणो के द्वारा सबको उनके कर्मानुसार एक शरीर से दूसरे शरीर में भ्रमण करातें है, जब तक की कोई प्राणी साधना करके मोक्ष न पा ले. जगद्गुरु कृपालु महाराज जी के प्रवचनों को कई बार मैंने सुना है, इस श्लोक की चर्चा वो अक्सर अपने प्रवचन में करते थे. उनके अनुसार परमात्मा इस शरीर के भीतर बैठकर सबकुछ देखते हैं. हमारे हर कर्म को देखतें हैं, हमारी हर सोच को देखते हैं और सबकुछ नोट भी करते हैं, फिर उसी के अनुसार हमें अच्छा-बुरा फल देते हैं अच्छी-बुरी योनियों में जन्म देते हैं. कहा जाता है कि चित्रगुप्त सबके कर्मो को नोट करते हैं. मेरे विचार से व्यक्ति का चेतन और अचेतन मन ही वो चित्रगुप्त है, जो सब कुछ नोट करता है या जहाँ पर सब कुछ नोट होते चला जाता है और इसी के अनुसार मनुष्य की सद्गति और दुर्गति होती है. इस श्लोक की सच्चाई मैंने कई बार प्रत्यक्ष अपनी आँखों से देखी है. भगवान की लाठी जब पड़ती है तो बड़े-बड़े ज्ञानी, अहंकारी और भगवान को नहीं मानने वाले तीसमारखां चारो खाने चित्त हो जाते हैं और रोते गिड़गिड़ाते हुए भगवान को पुकारने लगते हैं, उससे दया की भीख मांगने लगते हैं. इसीलिए कहा गया है कि अपने तन, मन, धन और ज्ञान का अहंकार मत करो, भगवान की लाठी कब किस पर बरस जाये, किसी को पता नहीं और ये भी सच है कि भगवान की लाठी जब किसी पर पड़ती है तो आवाज़ नहीं करती है.
जगद्गुरु कृपालु महाराज का शुक्रवार को सुबह गुड़गांव के फोर्टिस अस्पताल में निधन हो गया।मेरा ये लेख श्रद्धांजलि के रूप में महाराज जी के श्री चरणो में समर्पित है.परमात्मा उनकी महान आत्मा को शांति और सद्गति दें और अपने शाश्वतधाम में उन्हें सादर स्थान दें.
(सद्गुरु श्री राजेंद्र ऋषि जी,प्रकृति पुरुष सिद्धपीठ आश्रम,ग्राम-घमहापुर,पोस्ट-कंदवा,जिला-वाराणसी.पिन-२२११०६)
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