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सूफी दर्शन में भगवान कृष्ण “जागरण जंक्शन फोरम”

सद्गुरुजी
सद्गुरुजी
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आज के जो आधुनिक सूफी हैं,वो सूफिज्म के नाम पर यौन-स्वछंदता और नास्तिकता का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं.बहुत से लोग आज हमारे समाज में ज्ञानी और सूफी होने का ढोंग रचकर उसकी आड़ में बहुत से आपराधिक कृत्य कर रहे हैं,जिसकी जितनी भी आलोचना की जाये,वो कम है.आधुनिक सूफी दर्शन में साक्षीभाव ध्यान और विपश्यना साधना बहुत प्रचलित हो गई है,परन्तु आज भी सूफी दर्शन की मूल पहचान भगवान की भक्ति ही है.सूफी विचारधारा में भगवान की सगुण साकार भक्ति के साथ साथ निर्गुण निराकार भक्ति भी शामिल है.वास्तव में सूफी दर्शन क्या है और सूफी संतों ने भगवान कृष्ण के बारे में क्या कहा है,ये सबको जानना चाहिए.मेरे विचार से सूफी दर्शन का सही अर्थ ये है कि हम अपने धर्म का पालन करते हुए सभी धर्मों का आदर करें और उनकी अच्छाइयों को ग्रहण करें.गीता प्रेस गोरखपुर की पत्रिका “कल्याण” एक बहुत पुराने अंक में स्‍वामी श्री पारसनाथ जी सरस्‍वती का लेख “मुसल्‍मान कवियों की कृष्‍णभक्ति” प्रकाशित हुआ था.वो लेख ज्यों का त्यों साभार प्रस्तुत है.ये लेख हिन्दू-मुस्लिम एकता की भी एक अनूठी पहल है.ये लेख साभार प्रकाशित करने का एकमात्र उदेद्श्य जो वास्तविक सूफी दर्शन है,उससे परिचय कराना मात्र है.वास्तविक सूफी परमात्मा के प्रेम में रमे रहते थे.वो लोग नास्तिक नहीं बल्कि आस्तिक थे.नास्तिक शब्द का अर्थ है-जिसका सदैव अस्तित्व न हो या जो आँखों से दीखता हो,केवल उन्ही बातों में विश्वास करना और उसका प्रचार प्रसार है.करना.आस्तिक शब्द का अर्थ है-जिसका सदैव अस्तित्व है,जैसे-जीव.माया और परमात्मा,इनमे विश्वास करना और इनका प्रचार-प्रसार करना है.
सच्‍चिदानंदस्‍वरूप श्रीकृष्‍णचंद की महिमा,उदारता तथा रूपमाधुरी का वर्णन अगणित मुसल्‍मान कवियों ने किया है। परंतु प्रकाशित साहित्‍य में कुछ ही मुस्लिम कवियों की भक्तिमयी कविता उपलब्‍ध होती है। वे सब श्रीकृष्‍णप्रेम में पागल हुए हैं। पुरुषों ही नहीं, कुछ इस्‍लामी देवियों ने भी, दिल खोलकर श्रीकृष्‍ण भक्ति को अपनाया है। श्रीकृष्‍ण के प्रेम में एक मुस्लिम महिला तो इतनी दीवानी हो गई थी कि उसके प्रेम के सामने मीरा का प्रेम भी धुँधला-सा दिखाई देता है। उसका नाम था ‘ताजबीबी’। वह थी बादशाह शाहजहॉं की प्राणप्‍यारी बेगम जिसकी कब्र के लिए आगरे में ‘ताजरोजा’ बनबाया गया था। वह विश्‍वविख्‍यात प्रासाद तीस साल में, तीस करोड की लागत से, तीस हजार मजदूरों के दैनिक काम से बना था। ‘ताज’ का एक उद्गार नमूने के लिए उपस्‍थित किया जाता है। आप देखें कि कितना प्रेम है और कितनी श्रृद्धा है- ”सुनो दिलजानी मॉंडे दिलदी कहानी, तुव दस्‍तहू बिकाँनी, बदनामी हूँ सहूँगी मैं। देव-पूजा की ठॉंनी, मैं निवाज हू भुलॉंनी, तजे कलमा-कुरान, तॉंडे़ गुनन गहूँगी मैं।। सॉंवला सलोना सिर ‘ताज’ सिर कुल्‍लेदार, तेरे नेह-दाग में, निदाघ हो दहूँगी मैं। नंद के फरजंद, कुरबॉंन तॉंडी सूरत पर, तेरे नाल प्‍यारे, हिन्‍दुवॉंनी बन रहूँगी मैं।। ‘ताज’ जैसा हृदय आज किसके पास है। …….
हजरत ‘नफीस’ को तो मुरलीमनोहर इतने प्‍यारे हैं कि वे उनको देखते-देखते थकते ही नहीं। आप फरमाते हैं- कन्‍हइया की ऑंखें, हिरन-सी नसीली। कन्‍हइया की शोखी, कली-सी रसीली।। …… एक मुसल्‍मान फकीर ‘कारे खॉं’ का श्रीकृष्‍णप्रेम उन्‍हीं के शब्‍दों में देखिये- ” ‘कारे’ के करार मॉंहि, क्‍यों दिलदार हुए। ऐरे नँदलाल क्‍यों हमारी बार बार की।।” ….. मौलाना आजाद अजीमाबादी की कृष्‍णभक्ति देखिये। वे मुरलीमनोहर की मुरली के लिए फरमाते हैं- ”बजानेवाले के है करिश्‍मे जो आप हैं महब बेखुदी में। न राग में है, न रंग में है जो आग है उनकी बॉंसुरी में।। हुआ न गाफिल, रही तलाशी गया न मथुरा, गया न काशी।। मैं क्‍यों कहीं की खाक उडाता मेरा कन्‍हइया तो है मुझी में।।” ….. ‘रसखान’ के श्रीकृष्‍णप्रेम की थाह तो मापी ही नहीं जा सकती। ‘ ”मानुष हौं, तो वही ‘रसखान’ बसौं मिलि गोकुल गॉंव के ग्‍वारन। जो पसु हौं तो कहा बस मेरो चरौं नित नंद की धेनु मझारन।। पाहन हौं, तो वही गिरि को जो धरो सिर छत्र पुरन्‍दर धारन। जो खग हौं तो बसेरा करौं मिलि कालिंदी कूल कदंब की डारन।।”लाला मूसा’ को सर्वत्र श्रीकृष्‍ण-दर्शन हो रहा था, फरमाते हैं आप- ‘जहाँ देख वहॉं मौजूद, मेरा कृष्‍ण प्‍यारा है। उसी का सारा जल्‍वा, इस जहॉं में आशकारा है। मियॉं वाहिद अली तो श्रीकृष्‍ण के लिये सारा संसार त्‍यागने पर उतारू हैं। आप की बात आपके ही शब्‍दों में सुनिये- ”सुंदर सुजान पर मंद मुस्‍कान पर बॉंसुरी की तान पर ठौरन ठगी रहे। मूरति बिसाल पर कंचन की माल पर खंजन-सी चाल पर खौरन सजी रहे।। भौंहें धनु मैनपर लोनें जुग नैन पर प्रेम भरे बैन पर ‘वाहिद’ पगी रहे। चंचल से तन पर सॉंवरे बदन पर नंद के ललन पर लगन लगी रहे।।”आलम खॉं देख रहे हैं – श्‍यामसुंदर का गायें चराकर शाम को गोकुल लौटना – ”मुकता मनि पीत, हरी बनमाल नभ में ‘सुर-चाप’ प्रकास कियो जनु। भूषन दामिनी-से दीपित हैं धुर वासित चंदन खौर कियो तनु।। ‘आलम’ धार सुधा मुरली बरसा पपिहा, ब्रजनारिन को पनु। आवत हैं वन ते, जसुधा-धन री सजनी घनस्‍याम सदा घनु।।”
आगरे के प्रसिद्ध कवि मियॉं ‘नजीर’ का बेनजीर कृष्‍णप्रेम उन्‍हीं के द्वारा सुन लीजिये – ”कितने तो मुरली धुन से हो गये धुनी। कितनों की सुधि बिसर गयी, जिस जिसने धुन सुनी।। क्‍या नर से लेकर नारियॉं, क्‍या रिसी औ मुनी। तब कहने वाले कह उठे, जय जय हरी हरी। ऐसी बजाई कृष्‍ण कन्‍हइया ने बॉंसुरी।।” …… ‘महबूब’ द्वारा गोपाल के गोपालन का दृश्‍य देखिये- ‘आगे धाय धेनु घेरी वृन्‍दावन में हरि ने टेर टेर बेर बेर लागे गाय गिनने चूम पुचकार अंगोछे से पोंछ-पोंछ छूते हैं गौके चरन बुलावें सुबचन ते।।’ …. बिलग्रामवासी सैयद अब्‍दुल जलील जब चारों अन्‍धकार-ही-अन्‍धकार देखते हैं तब कातर स्‍वर से मनमोहन पुकार कर कहते हैं – ”अधम अधारन-नमवॉं सुनकर तोर। अधम काम की बटियॉं गहि मन मोर।। मन बच कायिक निसि दिन अधमी काज। करत करत मन मरिगो हो महाराज। बिलगराम का बासी मीर जलील। तुम्‍हरि सरन गहि आयो हे गुन सील।।” …… अकबर बादशाह के एक मंत्री, अब्‍दुलरहीम खानेखाना ‘रहीम’ – श्रीकृष्‍ण के कमलनयन पर मोहित होकर कहते हैं- ”कमलदल नैननि की उनमानि। बिसरत नाहिं मदनमोहन की मंद-मंद मुसिकानि। ये दसनन दुति चपला हू ते चारू चपल चमकानि।। बसुधा की बसकरी मधुरता, सुधा-पगी बतरानि। चढी रहै चित उर बिसाल की मुकत माल पैहरानि।। अनुदिन श्रीवृन्‍दावन में ते आवन-जावन जानि। अब ‘रहीम’ चित ते न टरति है, सकल स्‍याम की बानि।। रहीम साहब फिर फरमाते हैं- ‘कहि ‘रहीम’ मन आपनों, हमने कियो चकोर। निसि बासर लागौ रहे, कृष्‍न चंद की ओर।। रहिमन कोई क्‍या करै, ज्‍वारी-चोर-लबार। जो पत राखनहार है, माखन-चाखन हार।। रहीम जी की दृष्टि में श्‍याम और राम में कोई अन्‍तर न था। वे दोनों रूपों के समान पुजारी थे। जब आगरे से रहीम को भिखारी बनाकर निकाल दिया गया तब वे चित्रकूट पहुँचे और उन्‍होंने एक दोहा कहा- ” चित्रकूट में रमि रहे, रहिमन अवध नरेस। जा पै विपदा परत है, सो आवै यहि देस।।” ….. आधुनिक मुस्‍लिम कवियों में भी अनेक ऐसे कवि रहे हैं जिनको श्रीकृष्‍ण के प्रति अथाह प्रेम है। बिहार के ‘मीर साहब’ ने श्रीकृष्‍णप्रेम पर अनेक कविताएँ रची हैं।
प्रसिद्ध हिंदी लेखक मौलवी जहूर बख्‍श ने राम और श्‍याम की तारीफ में अनेक सफे रँगे हैं- दतिया निवासी श्रीनवीसबख्‍स ‘फलक’ जी तो अपने जीवन को एकमात्र राधारानी के भरोसे पर ही कायम रखते हैं- ” राज के भरोसे कोऊ, काज के भरोसे कोऊ, साज के भरोसे कोऊ, कोऊ बर बानी के। देह के भरोसे कोऊ, गेह के भरोसे कोऊ नेह के भरोसे कोऊ, कोऊ गुरू ग्‍यानी के। नाम के भरोसे कोऊ, ग्राम के भरोसे कोऊ दाम के भरोसे कोऊ, कीरत कहानी के।। ब्रज है भरोसे सदा स्‍याम ब्रजराज के तौ ‘फलक’ भरोसे एक राधा-ब्रजरानी के।।” अनेक मुसलमान गायक, वादक और अभिनेता बिना किसी भेद के श्रीकृष्‍ण के पुजारी हैं। पंजाब के मौलाना जफरअली साहब फरमाते हैं कि – ”अगर कृष्‍ण की तालीम आम हो जाए। तो काम फितनगारों का तमाम हो जाए।। मिट जाए ब्रहम्‍न और शेख का झगडा। जमाना दोनों घर का गुलाम हो जाए। विदेशी की लडाई की धज्‍जी उड जाए। जहॉं यह तेग दुदुम का तमाम हो जाए।। वतन की खाक से जर्रा बन जाए चॉंद। बुलंद इस कदर उसका मुकाम हो जाए। है इस तराने में बांसुरी की गूंज। खुदा करे वह मकबूल आम हो जाए।। मुसल्‍मान कवियों ने बडे प्रेम से श्रीकृष्‍ण को अपनाया है और साथ ही हिन्‍दी साहित्‍य को भी अपनाया है। ऐसे मुसल्‍मानों पर हम गर्व कर सकते हैं और उनको धन्‍यवाद भी दे सकते हैं। आधुनिक हिन्‍दी के जन्‍मदाता बाबू हरिश्‍चन्‍द्र ने ठीक ही कहा है- ‘इन्‍ह मुसलमान हरिजनन पै कोटिन हिन्‍दू वारिये।’ सच है- ‘जाति-पाति पूँछे नहि कोई। हरिको भजै सो हरि का होई।।’ (मूल लेखक – स्‍वामी श्री पारसनाथ जी सरस्‍वती, ‘कल्‍याण’ भाग-२८, संख्‍या-३ गीताप्रेस गोरखपुर से साभार)
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