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छूप गया कोई रे-पिया की सुरतिया देख,मगन भई-भाग २०

सद्गुरुजी
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छूप गया कोई रे-पिया की सुरतिया देख,मगन भई-भाग २०
मेरे लिए एक थाली में खाना लगा अर्पिता मेरे सामने रख दी.स्टील के एक नए चमकते हुए गिलास में जग से पानी निकाल मेरे बायीं तरफ रख दी.सबने अपनी पसंद के अनुसार थाली में खाना ले लिया.सब मेरी और देख रहे थे कि मैं शुरू करूँ.मैंने ईश्वर को याद किया,उसे धन्यवाद दिया और खाना खाने लगा.अर्पिता,उसके पिताजी और अर्चना भी खाना खाने लगे.हालाँकि मेरे पास बैठी अर्पिता खुश नजर नहीं आ रही थी.
खाना खाकर अर्पिता के पिताजी उठ खड़े हुए.वो वाशबेसिन में हाथ धोकर आये तो मैं बोला-पापाजी,अभी तो शाम की पार्टी में बहुत समय बाकी है.क्या मैं आपकी लाइब्रेरी में पुस्तकें पढकर कुछ समय गुजार सकता हूँ.
हाँ,हाँ क्यों नहीं बेटा,चलो मैं तुम्हे अपनी लाइब्रेरी दिखाता हूँ-वो मेरे करीब आ बोले.
अर्पिता मेज के नीचे अपने दायें पैर से मेरा बायां पैर दबाते हुए बैठै रहने का ईशारा कर रही थी.मैं उसके इशारे के बावजूद अपनी जांघ पर पड़ा तौलिया उठा मेज पर रखा और उठ खड़ा हुआ-जी,चलिए..फिर मैंने अर्पिता की तरफ देखते हुए कहा-पुस्तकें हमेशा अपनी पसंद की पढ़नी चाहिए.
मेरा इतना कहना भर था कि वो खाना छोड़कर उठ खड़ी हुई.वासबेसिन पर हाथ धोकर मेरे पास आई.वो मेज से तौलिया उठा अपना हाथ पोंछी और गुस्से के मारे तौलिया मेज पर फेंकते हुए बोली-चलो,मैं तुम्हारी पसंद की किताबें तुम्हे देती हूँ.
अपने दायें हाथ से मेरा बायां हाथ पकड़ वो मुझे खींचते हुए अपने पिताजी के कमरे की ओर ले के चल पड़ी.उनके कमरे के दरवाजे के पास पहुंचकर अपने बाएं हाथ से बाहर से बंद दरवाजे की कुण्डी खोल दरवाजा खोल दी.कमरे की लाईट जलाने के बाद वो मुझे ले जाकर अपने पिताजी के बिस्तर पर बैठा दी और फिर अपने पिताजी की लाइब्रेरी के पास जा चारो रैक के शीशे एक तरफ सरका दी.वो रैक से धार्मिक पुस्तकें ढूंढ-ढूंढकर मेरे पास लाकर उन्हें बिस्तर पर रखने लगी.कुछ ही देर में उसने धार्मिक पुस्तकों का ढेर लगा दिया.अर्पिता के पिताजी और अर्चना कमरे के भीतर आकर चुपचाप खड़े होकर सबकुछ देख रहे थे.
लो पढ़ो अपनी पसंद की पुस्तकें और अभी से जाकर सन्यास ले लो-अर्पिता गुस्से से नुझे देखते हुए बोली.वो इतना कहकर वो कमरे के बाहर चली गई.मैं चुपचाप बैठा सोचता रहा.
कुछ देर बाद मैंने उसके पिताजी की तरफ देखते हुए पूछा-पापाजी,अब मुझे क्या करना चाहिए.ये तो फिर एक प्रॉब्लम पैदा कर दी.
पता नहीं बेटा,मैंने ऐसी प्रॉब्लम का जिंदगी में कभी सामना नहीं किया-अर्पिता के पिताजी बोले.वो हँसते हुए कमरे से बाहर निकल गए.
अर्चना आओ बैठो,तुम्ही मुझे कुछ सलाह दो कि अब मैं क्या करूँ ?-मैं अर्चना से बोला.
अर्चना मेरे पास आने को हुई तभी कमरे के भीतर अर्पिता दनदनाते हुए आई और अर्चना का पकड़ मेरी और गुस्से से देखते हुए बोली-ये मेरे साथ रहेगी और तैयार होने में मेरी मदद करेगी.तुम अकेले यहांपर ये पुस्तकें पढ़ो और ब्रह्मज्ञान का आनंद लो.इतना कहकर वो अर्चना को लेकर कमरे के बाहर निकल गई.
मैंने धार्मिक पुस्तकों के ढेर से गीता निकली और उसे माथे से लगाकर खोला और अठारहवां अध्याय पढ़ना शरू कर दिया.गीता और कुछ अन्य धार्मिक पुस्तकें पढ़ते हुए मुझे पता ही नहीं चला की कब शाम हो गई.
पुस्तक पढ़ने से मेरा ध्यान तब भंग हुआ जब प्रिया ने आवाज दी-साहिबजी,चाय पी लो.
वो स्टूल मेरे सामने रखते हुए चाय की ट्रे उसपर रख दी.ट्रे में एक कप चाय,एक गिलास पानी तथा नमकीन और बिस्कुट रखे हुए थे.प्रिया मेरे हाथों में पकड़ी एक धार्मिक किताब को ध्यान से देख रही थी.मेरी बगल में रखे धार्मिक पुस्तकों के ढेर को देखकर हंस रही थी.
साहिब,आज ये धर्म की किताबें पढ़ रहे हो.कोई प्रेम की किताब पढ़ो न-प्रिया हँसते हुए बोली.
प्रिया,प्रेम की किताबें एक व्यक्ति से प्रेम करना सिखाती हैं,जिसका एक दिन अंत है.जबकि धर्म अनन्त परमात्मा से प्रेम करना सिखाता है,जिसका कभी अंत नहीं है,इसीलिए धार्मिक पुस्तकें पढ़ने के लिए सर्वश्रेष्ठ मानी गई हैं.
पुस्तक बिस्तर पर एक तरफ रख मैंने अपनी बाएं हाथ में बंधी घड़ी में देखा शाम के छह बजकर सत्ताइस मिनट हो रहे थे.मै ट्रे में से शीशे का गिलास उठाकर पानी पिया ओर फिर ख़ाली गिलास ट्रे में रख मैंने मैंने चाय का कप उठाते हुए पूछा-ये चाय किसने बनाई है ?
दीदी ने अपने हाथों से आपके लिए बनाई है-प्रिया मुस्कुराते हुए बोली.
वो अब भी मुझसे नाराज है ?-मैंने पूछा.
प्रिया मेरी ओर देखते हुए बोली-नहीं तो..वो तो बहुत खुश हैं.तीन घंटे से वो आपके लिए तैयार हो रही हैं.अर्चना दीदी उनकी मदद कर रही है.
मैं चैन की गहरी साँस लिया कि शुक्र है वो अब नाराज नहीं है.
मैं प्रिया से बोला-ठीक है प्रिया अब तुम जाके अपना काम करो.
मैंने खाली कप ट्रे में रख दिया.प्रिया चाय की ट्रे उठाकर कमरे के बाहर चली गई.मै अपने बगल में रखीं धार्मिक पुस्तकों के ढेर से परमहंस योगानंद जी की लिखी पुस्तक “योगी कथामृत” निकाला और उसे खोल के पढ़ने लगा.ये पुस्तक मुझे बहुत रुचिकर लगी.परमहन्स योगानन्दजी की जीवनी के कुछ पन्ने ही अभी पढ़े ही थे कि कमरे के बाहर बच्चों की आवाजों का तेज शोर सुनाई दिया.मैं पुस्तक बंद कर दूसरी पुस्तकों के ऊपर रख दिया और बिस्तर से उठ खड़ा हुआ.अर्पिता के पिताजी के कमरे से बाहर आया तो सीढ़ियों के पास रंग-बिरंगे कपडे पहने बाल अनाथालय के बच्चे अपने जूते चप्पल उतारते और शोर मचाते दिखे.प्रिया उन्हें कुछ समझा रही थी.अनाथ बच्चों पर नजर पड़ते ही मेरे चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई.मेरा मन खुश हो गया.
तभी मेरी निगाह मुख्यद्वार की ओर गई,जहाँ से अर्पिता के पिताजी पहले घर के भीतर प्रवेश किये ओर फिर सफ़ेद कपड़ों में लिपटे दीदी और बूढ़े कबीरपंथी साधुबाबा घर के भीतर प्रवेश किये.कबीरपंथी साधुबाबा अपने हाथों में बादामी कलर का तानपुरा लिए थे.वो दोनों अपने जूते और चप्पल सीढ़ी के नीचे उस जगह पर उतार कर रख दिए,जहाँ पर अर्पिता के पिताजी अपने जूते उतार के रखे थे.वहीँ पर बच्चों के कई जोड़े जूते और चप्पल रखे हुए थे.अर्पिता के पिताजी सबको लेकर सीढ़ियों की तरफ बढे.
मैं तेजी से सीढ़ियों की तरफ बढ़ा और उनके पास जाकर दीदी के चरणो में झुककर उन्हें प्रणाम किया.मेरे सिर पर अपना दायां हाथ रख उन्होंने आशीर्वाद दिया-हमेशा खुश रहो. मैंने साधुबाबा के चरणस्पर्श कर उन्हें प्रणाम किया.वो खुश होकर बोले-बेटा,तुम अपने जीवन में धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों की सिद्धि प्राप्त करो.मेरा आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ रहेगा.
साधुबाबा और उनके तानपुरा को देख मेरा मन उनसे भजन सुनने को मचल उठा.मैं साधुबाबा का हाथ पकड़ बोला-बाबा,मुझे आपसे कुछ बात करनी है.कुछ देर के लिए आप मेरे साथ आइये.
बेटा,इन लोगों को जल्दी खाना खिला के अनाथालय छोड़ना है.साधुबाबा को भी अपने डेरे पर जाना है.ये तो अपने डेरे जा रहे थे.मैं बहुत अनुरोध कर इन्हे साथ लेते आया.मैंने इन्हे जल्दी छोड़ने का वादा किया है.-अर्पिता के पिताजी बोले.
पापाजी,आप दीदी और बच्चों को लेकर ऊपर चलिए और उन्हें खाना खिलाइये.मैं बाबाजी को बहुत जल्दी छोड़ दूंगा,उनका ज्यादा समय नहीं लूंगा-मैं बोला.
ये बच्चा मुझसे अकेले में बात करने का इतना इच्छुक है तो मैं इसे कुछ समय दे देता हूँ-साधुबाबा अर्पिता के पिताजी की तरफ देखते हुए बोले.
जैसी आपकी इच्छा-अर्पिता के पिताजी बहुत बेमन से बोले.फिर वो दीदी और बच्चों को लेकर छत पर जेन के लिए सीढियाँ चढ़ने लगे.
मैं साधुबाबा को लेकर अर्पिता के पिताजी के कमरे में आ गया.मैंने उन्हें आदर के साथ कुर्सी पर बैठा दिया.उनके पास ही बिस्तर पर बैठते हुए मैं बोला-बाबा,आज मुझे संत धर्मदासजी का वो भजन सुना दीजिये-पिया की सुरतिया देख,मगन भई..जो आप अनाथालय में हुई हमारी पहली मुलाकात में सुनाये थे और जिसे मैंने अपनी कापी में नोट भी किया हुआ है.
बेटा,पार्टी के मौके पर फ़िल्मी गाना बजाना चलता है.इस मौके पर भजन लोग सुनेंगे तो हमदोनों पर हँसेंगे-साधुबाबा बोले.
बाबा,आप लोगों की परवाह मत कीजिये.आप वो भजन सुनाइए,जो आज मैं सुनना चाहता हूँ.आपके एक भक्त का आपसे ये अनुरोध है-मैं उनसे अनुरोध किया.
साधुबाबा अपने कंधे से तानपुरा उतार कुछ देर उसकी सेटिंग किये,फिर अपने बाएं हाथ में पकड़ लिए और अपने दायें हाथ की अंगुलियां तानपुरा के तारों पर फेरने लगे.कमरे में तानपुरा का मधुर संगीत गूंज उठा.तभी कमरे में गुलाबी रंग की साड़ी में सजी-धजी और कई सुंदर गहने पहनी अर्पिता कमरे में प्रवेश की.उसकी सुंदरता को मैं बिना पलक झपकाए कुछ देर तक निहारता रह गया.उसके साथ आई अर्चना उसके माथे की मांगटीका ठीक करने लगी.प्रिया उसका दोनों हाथ पकडे थी,जिसमें सोने के कंगनों के बीच कांच की सुंदर गुलाबी चूड़ियाँ पहने हुए थी.उधर तानपुरा का मधुर संगीत अब कमरे में ही नहीं बल्कि पूरे घर में गूंज रहा था.
अर्पिता बहुत गुस्से में लग रही थी.गुस्से में कुछ बोलने को उसके होंठ फड़फड़ा रहे थे.मैं बिस्तर से उठकर उसके पास गया और अपने दायें हाथ से उसका बायां हाथ पकड़ साधुबाबा के पास लाया और उसका हाथ उनके चरणो से छुआ दिया.वो तानपुरा बजाना जारी रखते हुए सिर हिलाकर आशीर्वाद दिए.
मैं दोनों हाथों से पकड़ अर्पिता को धीरे से बिस्तर पर बैठा दिया और उसकी दाहिनी तरफ मैं भी बैठ गया.अर्पिता बस एकटक मुझे देखे जा रही थी.उसके गुलाबी चेहरे से गुस्सा अभी भी झलक रहा था.
साधुबाबा ने अपने मधुर स्वर में संत धर्मदासजी का भजन तानपुरा बजाते हुए गाना शुरू कर दिया-
ऐ जी पांच तत्व गुण तीन के,आगे मुक्ति मुकाम,
जहाँ कबीर सागर किया,गोरख दसहुँ न राम.
विरहिन देय संदेसरों,सुनहु राम सुजान,
देखी लो तुम आय के,नहीं तो तजहुँ प्रान.

मगन भई वो लाड़ली,मगन भई,
पिया की सुरतिया देख,मगन भई,
हाँ हाँ,पिया की सुरतिया देख,मगन भई.
१-हिल म्हारी पांच तत्व गुन तीनों भेदन,
उनका काम नहीं,
हिल म्हारी पांच तत्व गुन तीनों भेदन,
उनका काम नहीं,
इ पांच पचीस सभी से न्यारा,
इ पांच पचीस सभी से न्यारा,
इ चेतना पुरस सही.
पिया की सुरतिया देख मगन भई.
मगन भई वो लाड़ली,मगन भई,
पिया की सुरतिया देख,मगन भई,
हाँ हाँ,पिया की सुरतिया देख,मगन भई.
२-हिल म्हारी नौ द्वारे दस त्रिकुटी गगना,
इनका काम नहीं,
हिल म्हारी नौ द्वारे दस त्रिकुटी गगना,
इनका काम नहीं,
इ सब चक्कर को मेटी सके री,
इ सब चक्कर को मेटी सके री,
इ उनसरे पार भई,
पिया की सुरतिया देख मगन भई,
मगन भई वो लाड़ली,मगन भई,
पिया की सुरतिया देख,मगन भई,
हाँ हाँ,पिया की सुरतिया देख,मगन भई.
३-हिल म्हारी अपरम पार पार नहीं वाका,
कछु नहीं जान कहीं,
हिल म्हारी अपरम पार पार नहीं वाका,
कछु नहीं जान कहीं,
ई भगवत गीता सास्तर बानी,
ई भगवत गीता सास्तर बानी,
इ वोह भी तो थाक रही.
पिया की सुरतिया देख मगन भई.
मगन भई वो लाड़ली,मगन भई,
पिया की सुरतिया देख,मगन भई,
हाँ हाँ,पिया की सुरतिया देख,मगन भई.
४-हाँ साहिब कबीर मोहें समरथ मिल गया,
साँची सैन कहीं,
हाँ साहिब कबीर मोहें समरथ मिल गया,
साँची सैन कहीं,
ऐ धरमदास साहिब के सरने,
ऐ धरमदास सतगुरु के सरने,
ऐ आगे दौड़ नहीं.
पिया की सुरतिया देख मगन भई.
मगन भई वो लाड़ली,मगन भई,
पिया की सुरतिया देख,मगन भई,
हाँ हाँ,पिया की सुरतिया देख,मगन भई.
मेरी सुधबुध भजन और तानपुरा की मधुर आवाज में खो सी गई थी.भजन के आनंद में मेरी दोनों आँखे बंद हो गईं थीं और मेरी लाड़ली आत्मा तीसरे नेत्र के आध्यात्मिक गगन में ज्योतिर्मय परमात्मा रूपी पिया को निहार रही थी.
जब भजन खत्म हो गया और तानपुरा की आवाज भी बंद हो गई और तालियों की तेज गड़गड़ाहट हुई,तब मेरी तंद्रा टूटी और मैंने आँखे खोल के देखा कि पूरा कमरा लोगों से भरा हुआ था.हमारे चारो तरफ लोग खड़े थे.तालियों की गड़गड़ाहट कमरे से बाहर से भी आ रही थी.अर्पिता अपना दाहिना हाथ मेरे बाएं हाथ के ऊपर रखी थी.सबलोग धीरे धीरे करके कमरे से बाहर चले गए.अब ज्यादातर घर और रिश्तेदारी के ही लोग कमरे में रह गए थे.
बाबा,आपके मुख से ये भजन सुनकर आनंद आ गया.आपकी आवाज कितनी मधुर है और तानपुरा भी आप कितना अच्छा बजाते हैं-मैं साधुबाबा की ओर देखते हुए बोला.
बेटा,जब मैं तुम्हारी उम्र का था,तभी घर बार छोड़कर सन्यासी हो गया था.तबसे मैं तानपुरा बजा रहा हूँ और संतों के भजन गा रहा हूँ-साधुबाबा हँसते हुए बोले.
अर्पिता मेरा हाथ कस के पकड़ ली.वो बहुत गुस्से में लग रही थी और गहरी सांसे ले रही थी.
और बाबा आपके बीबी बच्चे..?-मैं उत्सुकता से पूछा.
शादी तो मेरी बचपन में ही हो गई थी बेटा.तुम्हारी उम्र तक पहुँचते पहुँचते कुल चार बच्चे हो गए थे मेरे दो लड़का और दो लड़की-साधुबाबा बोले.
आपकी इतनी सुखी घर गृहस्थी थी,फिर आपने बीबी बच्चे घर बार सब छोड़कर सन्यास क्यों ले लिया..?-मैं पूछा.
ईश्वर की मर्जी बेटा.समर्थ गुरु मिल गए और मैं उनके साथ चल दिया-साधुबाबा हंसने लगे.
आपको कभी अपने बीबी बच्चों की याद नहीं आई..?-मैं पूछा.
आई बेटा,बहुत बार आई,लेकिन अपने गुरु की दया से मुझे परमात्मा रूपी एक ऐसी बड़ी चीज मिल गई थी,जिसके आगे बीबी बच्चे और घर परिवार सब बेकार लगने लगे-साधुबाबा इतना कहकर हंसने लगे.
मैं कहती हूँ उठो..और चलो यहाँ से..-अर्पिता गुस्से से बिफरते हुए उठ खड़ी हुई और मेरा हाथ कस के पकड़कर खींचते हुए मुझे भी उठा दी.वो मुझे खींचकर कमरे से बाहर ले जाने लगी.सबके सामने मुझे बहुत संकोच हो रहा था और शर्म भी आ रही थी.
नदी के बहाव के साथ बह बिटिया.नदी के बहाव को रोकने की कोशिश मत कर.नहीं तो एक दिन तू बहुत पछताएगी-ये कहकर साधुबाबा जोर जोर से हंसने लगे.
अर्पिता प्रिया के पास रुक बोली-साधुबाबा को ऊपर ले जाकर भोजन करा दो.फिर वो अर्चना से बोली-बिस्तर पर पड़ी किताबें लाइब्रेरी में लगा देना और कमरा बंदकर बाहर से ताला लगा देना.इतना कहकर वो मुझे लेकर कमरे से बाहर निकल आई और किसी की भी परवाह न करते हुए मुझे लगभग खींचते हुए अपने कमरे में ले आई.वो हाथों की चूड़ियाँ खनक रहीं थीं और पाओं की पायल झन झन कर बज रहीं थीं.गुस्से के मारे वो जोर से दरवाजा बंद की.धड़ाम की तेज आवाज हुई.वो दरवाजे से अपनी पीठ सटा के खड़ी हो गई और मुझे अपने पास खिंच ली.मैं उससे टकराते टकराते बचा.
ये क्या बत्तमीजी है..इस तरह से खिंच के मुझे क्यों लाई हो..सबके सामने तुम मेरा अपमान करती हो..-मैं अपनी कलाई सहलाते हुए बोला.
वो गुस्से से चिल्लाते हुए बोली-बत्तमीजी तुम करते हो..मेरा अपमान तुम करते हो..क्या कमी है मुझमे..मुझसे दूर क्यों भागते हो..तुम मुझसे शादी करके खुश नहीं हो,,मैंने तुमसे जबर्दस्ती शादी जो की है..मैं किसी दिन अपनी जान दे दूंगी फिर तुम अकेले खुश रहना..
मैंने अपना दाहिना हाथ उसके मुंह पर रख दिया.मेरी नरम मुलायम हथेली से उसके होंठ दबे और वो चुप हो गई.कुछ देर तक मैं उसके मुंह पर मैं अपना हाथ रखे रहा.
उसके गुलाबी चहरे पर धीरे धीरे शांति आने लगी.अब भी वो गुस्से में थी.दोनों हाथों से मेरा हाथ पकड़ बोली-तुम्हारा हाथ काट लूंगी मैं.
जैसी तुम्हारी इच्छा..दिल कर रहा है तो काट लो..-मैं मुस्कुराते हुए बोला.
वो अपना मुंह खोलकर सचमुच में ही मेरी हथेली में दांत गड़ाने लगी.तेज दर्द हुआ तो मैं अपना हाथ खिंच लिया.अंगूठे के पास उसने कसकर दांत गड़ा दिया था.
मैं अपनी हथेली सहलाते हुए बोला तुम बहुत सुन्दर हो,लेकिन बहुत क्रूर भी हो.इतनी सुंदर लड़की को इतना क्रोध और इतनी क्रूरता शोभा नहीं देती है-मैं उसे समझाते हुए बोला.
किस काम की है मेरी ये सुंदरता,जो तुम्हे रिझा भी नहीं पाती है.मैं जितना तुम्हारे करीब जाती हूँ,उतना ही तुम मुझसे दूर भागते हो.आज हमारी शादी हुई है और तुम आज ही साधू और भजन के पीछे भाग रहे हो.अब आगे जाने क्या होगा ? मुझे तो डर लगता है कि कहीं तुम सन्यास न ले लो.-अर्पिता गम्भीरता से बोली.
तुम निश्चिन्त रहो.मैं तुम्हारे जीतेजी कभी सन्यास नहीं लूंगा.मैं तुम्हे वचन देता हूँ.रही बात साधू और भजन में रूचि लेने की तो हर पति को परमात्मा की खोज में रूचि लेना चाहिए और अपने अनुभव के सहारे पत्नी को भी ईश्वर-पथ पर अग्रसर करना चाहिए.इसीलिए पति को पति परमेश्वर कहा जाता है-मैं भी गम्भीरता से बोला.
अर्पिता अपनी गलती महसूस करते हुए बोली-सॉरी,तुम्हे समझने में मुझसे बहुत बड़ी भूल हुई.मुझे तो गर्व करना चाहिए की मुझे इतना अच्छा और इतना संस्कारी पति मिला है.
मैं मुस्कुराते हुए बोला-मुझे भी गर्व है कि मुझे इतनी सुंदर और इतनी बुद्धिमान पत्नी मिली है.अगर मेरी माँ तुम्हे देखती तो सबसे पहले तुम्हे काला टिका लगाती.इस तरह से..-मैंने उसकी काजल लगी आँखों से जरा सा काजल तर्जनी अंगुली पर लेकर उसके माथे के बायीं और लगा दिया.
अर्पिता खिलखिलाकर हंस पड़ी.उसके मोतियों जैसे सुंदर दांत चमकाने लगे.
माँ की याद आते ही मुझे माँ की दी हुई साड़ी की याद आई.मैंने कमरे में इधर उधर देखते हुए पूछा-मेरा बैग कहाँ है.उसमे तुम्हारे लिए दो गिफ्ट है.एक मेरी माँ की ओर से और दूसरा मेरी ओर से.
रुको,मैं देती हूँ.-ये कहकर अर्पिता पलंग के पास जाकर उसके नीचे से मेरा बैग निकाल बिस्तर के ऊपर रख दी.मैं उसके पास पहुंचकर बैग खोला ओर बैग से लाल पन्नी में पैक गिफ्ट निकालकर उसे दे दिया-हमारी शादी और तुम्हारे जन्मदिन की ख़ुशी में ये मेरी तरफ से एक छोटा सा उपहार है.
वो मेरा दिया उपहार अपने सीने से लगाई और फिर पन्नी खोलकर मेरा उपहार बाहर निकाल ली.वो फोटोफ्रेम और घडी को खोल के देखने लगी,जिसमे एक तरफ फोटोफ्रेम था और दूसरी तरफ बैटरी से चलनेवाली घडी थी.वो ख़ुशी से मुस्कुराते हुए बोली-बहुत खूबसूरत है.मैं इसमें एक तरफ हमदोनों की फ़ोटो लगाउंगी और दूसरी तरफ घडी को बंद रखूंगी,ताकि समय ठहर जाये.
उसकी बातें सुनकर मुझे हंसी आ गई.मैं बैग में से अख़बार में लपेटी हुई गुलाबी रंग की रेशमी साड़ी निकाल बोला-ये मेरी माँ की तरफ से अपनी बहू के लिए एक भेंट है.
फोटोफ्रेम मेज पर रख वो दोनों हाथों से साड़ी ले अपने ह्रदय से लगा ली.
माँ जी के भेजे इस उपहार का मतलब है कि तुमने हमारी शादी के बारे में उन्हें सबकुछ बता दिया है-अर्पिता अख़बार हटा साड़ी को देखते हुए बोली.
नहीं,मैंने उन्हें अभी कुछ नहीं बताया है.ये साड़ी उन्होंने बक्से में बहुत सम्भालकर अपनी होनेवाली बहू के लिए रखी थी.मैं अपने दोस्त की पत्नी को उपहार देने के बहाने बड़ी मुश्किल से उनसे मांग के लाया हूँ.मुझे बहुत दुःख है कि माँ से झूठ बोलना पड़ा-मैं बोला.
कोई बात नहीं.साड़ी सही जगह पहुँच गई है-अर्पिता साड़ी को फिर अपने ह्रदय से लगा ली.अर्पिता मेरी ओर देख शरारत से मुस्कुराते हुए बोली-इन दोनों गिफ्ट के लिए मुझे तुम्हे दो बार धन्यवाद देना चाहिए.चलो,मेरे पास आओ.
नहीं,रहने दो..उसकी जरुरत नहीं..-मैं घबराते हुए बोला.
वो साड़ी मेज पर रख मुझे अपने पास खिंची ओर बहुत तेजी से मुझे अपनी बाँहों में ले मेरे होंठों को चूम ली.इससे पहले कि मैं कुछ बोलता वो फिर दुबारा मेरे होंठो को चूम ली.मेरा पूरा शरीर गनगना गय़ा.मेरी तरफ देख वो हँसते हुए बोली-बुद्धू ओर डरपोंक कहीं के..
तभी दरवाजे पर दस्तक हुई-बेटा,सबलोग इंतजार कर रहे हैं तुमदोनों का..जल्दी चलो.
अर्पिता साड़ी और गिफ्ट ले जाकर आलमारी में रख दी.मैं बैग बंदकर पलंग के नीचे रख दिय.अर्पिता मेरे पास आकर गिफ्ट की पन्नी का कागज बिस्तर से उठाकर पलंग के नीचे डाल दी.हमदोनों दरवाजे के पास पहुंचकर अपने कपडे ठीक किये.अर्पिता दरवाजा खोल दी.
दरवाजे पर अर्पिता के पिताजी खड़े थे.
हमदोनों को देखते ही बोले-बेटा,चलो जल्दी चलो,सबलोग तुमदोनों का ही इंतजार कर रहे हैं.तुम्हारी अनाथालय वाली दीदी,उनके अनाथालय के बच्चे और वो साधुबाबा सबलोग खाना खा चुके हैं और अब तुमसे विदा लेना चाहते हैं.हमलोग तेजी से सीढ़ियों की तरफ बढे.
शेष अगले ब्लॉग में…
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~(सद्गुरु श्री राजेंद्र ऋषि जी,प्रकृति पुरुष सिद्धपीठ आश्रम,ग्राम-घमहापुर,पोस्ट-कंदवा,जिला-वाराणसी.पिन-२२११०६)

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