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शिव-पार्वती की प्रेम विवाह कथा
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महाशिवरात्रि के अवसर पर जगत के पिता और माता भगवान शिव और माँ पार्वती की याद आ रही है.उनकी प्रेमकथा निश्चय ही ब्रह्माण्ड की एक अनूठी प्रेम कथा होगी.शास्त्रों में वर्णित शिव-पार्वती प्रेम विवाह कथा संक्षिप्त रूप से एक फ़िल्म के गीत के साथ प्रस्तुत है.फिल्म “मुनीमजी” के लिए इस गीत को प्रसिद्द गीतकार शैलेन्द्रजी ने लिखा है.फ़िल्म में इस गीत को एक नाट्य कार्यक्रम के रूप में दिखाया गया है.गीत में शिव जी की बारात निकल रही है.उनके गण आसपास नृत्य करते हुए ख़ुशी से झूम रहे हैं.आप सभी को महाशिवरात्रि पर्व की बधाई देते हुए ये प्रस्तुति भगवान शिव और माँ पार्वती को समर्पित है.
सती के विरह में शंकरजी की दयनीय दशा हो गई.वे हर पल सती का ही ध्यान करते रहते और उन्हीं की चर्चा में व्यस्त रहते.उधर सती ने भी शरीर का त्याग करते समय संकल्प किया था कि मैं राजा हिमालय के यहाँ जन्म लेकर शंकरजी की अर्द्धांगिनी बनूँ.
अब जगदम्बा का संकल्प व्यर्थ होने से तो रहा.वे उचित समय पर राजा हिमालय की पत्नी मैना के गर्भ में प्रविष्ट होकर उनकी कोख में से प्रकट हुईं.पर्वतराज की पुत्री होने के कारण वे ‘पार्वती’ कहलाईं.जब पार्वती बड़ी होकर सयानी हुईं तो उनके माता-पिता को अच्छा वर तलाश करने की चिंता सताने लगी.
एक दिन अचानक देवर्षि नारद राजा हिमालय के महल में आ पहुँचे और पार्वती को देख कहने लगे कि इसका विवाह शंकरजी के साथ होना चाहिए और वे ही सभी दृष्टि से इसके योग्य हैं.
पार्वती के माता-पिता के आनंद का यह जानकर ठिकाना न रहा कि साक्षात जगन्माता सती ही उनके यहाँ प्रकट हुई हैं.वे मन ही मन अपने भाग्य को सराहने लगे.
एक दिन अचानक भगवान शंकर सती के विरह में घूमते-घूमते उसी प्रदेश में जा पहुँचे और पास ही के स्थान गंगावतरण में तपस्या करने लगे.जब हिमालय को इसकी जानकारी मिली तो वे पार्वती को लेकर शिवजी के पास गए.
वहाँ राजा ने शिवजी से विनम्रतापूर्वक अपनी पुत्री को सेवा में ग्रहण करने की प्रार्थना की.शिवजी ने पहले तो आनाकानी की, किंतु पार्वती की भक्ति देखकर वे उनका आग्रह न टाल न सके.
शिवजी से अनुमति मिलने के बाद तो पार्वती प्रतिदिन अपनी सखियों को साथ ले उनकी सेवा करने लगीं.पार्वती हमेशा इस बात का सदा ध्यान रखती थीं कि शिवजी को किसी भी प्रकार का कष्ट न हो.
वे हमेशा उनके चरण धोकर चरणोदक ग्रहण करतीं और षोडशोपचार से पूजा करतीं.इसी तरह पार्वती को भगवान शंकर की सेवा करते दीर्घ समय व्यतीत हो गया.किंतु पार्वती जैसी सुंदर बाला से इस प्रकार एकांत में सेवा लेते रहने पर भी शंकर के मन में कभी विकार नहीं हुआ.
वे सदा अपनी समाधि में ही निश्चल रहते.उधर देवताओं को तारक नाम का असुर बड़ा त्रास देने लगा.यह जानकर कि शिव के पुत्र से ही तारक की मृत्यु हो सकती है, सभी देवता शिव-पार्वती का विवाह कराने की चेष्टा करने लगे.
उन्होंने शिव को पार्वती के प्रति अनुरक्त करने के लिए कामदेव को उनके पास भेजा, किंतु पुष्पायुध का पुष्पबाण भी शंकर के मन को विक्षुब्ध न कर सका. उलटा कामदेव उनकी क्रोधाग्नि से भस्म हो गए.
इसके बाद शंकर भी वहाँ अधिक रहना अपनी तपश्चर्या के लिए अंतरायरूप समझ कैलास की ओर चल दिए.पार्वती को शंकर की सेवा से वंचित होने का बड़ा दुःख हुआ, किंतु उन्होंने निराश न होकर अब की बार तप द्वारा शंकर को संतुष्ट करने की मन में ठानी.
उनकी माता ने उन्हें सुकुमार एवं तप के अयोग्य समझकर बहुत मना किया, इसीलिए उनका ‘उमा’- उ+मा (तप न करो)- नाम प्रसिद्ध हुआ.किंतु पार्वती पर इसका असर न हुआ.अपने संकल्प से वे तनिक भी विचलित नहीं हुईं.वे भी घर से निकल उसी शिखर पर तपस्या करने लगीं, जहाँ शिवजी ने तपस्या की थी.
तभी से लोग उस शिखर को ‘गौरी-शिखर’ कहने लगे.वहाँ उन्होंने पहले वर्ष फलाहार से जीवन व्यतीत किया, दूसरे वर्ष वे पर्ण (वृक्षों के पत्ते) खाकर रहने लगीं और फिर तो उन्होंने पर्ण का भी त्याग कर दिया और इसीलिए वे ‘अपर्णा’ कहलाईं.
इस प्रकार पार्वती ने तीन हजार वर्ष तक तपस्या की.उनकी कठोर तपस्या को देख ऋषि-मुनि भी दंग रह गए.
अंत में भगवान आशुतोष का आसन हिला.उन्होंने पार्वती की परीक्षा के लिए पहले सप्तर्षियों को भेजा और पीछे स्वयं वटुवेश धारण कर पार्वती की परीक्षा के निमित्त प्रस्थान किया.
जब इन्होंने सब प्रकार से जाँच-परखकर देख लिया कि पार्वती की उनमें अविचल निष्ठा है, तब तो वे अपने को अधिक देर तक न छिपा सके.वे तुरंत अपने असली रूप में पार्वती के सामने प्रकट हो गए और उन्हें पाणिग्रहण का वरदान देकर अंतर्धान हो गए.
पार्वती अपने तप को पूर्ण होते देख घर लौट आईं और अपने माता-पिता से सारा वृत्तांत कह सुनाया.अपनी दुलारी पुत्री की कठोर तपस्या को फलीभूत होता देखकर माता-पिता के आनंद का ठिकाना नहीं रहा.
उधर शंकरजी ने सप्तर्षियों को विवाह का प्रस्ताव लेकर हिमालय के पास भेजा और इस प्रकार विवाह की शुभ तिथि निश्चित हुई.
सप्तर्षियों द्वारा विवाह की तिथि निश्चित कर दिए जाने के बाद भगवान् शंकरजी ने नारदजी द्वारा सारे देवताओं को विवाह में सम्मिलित होने के लिए आदरपूर्वक निमंत्रित किया और अपने गणों को बारात की तैयारी करने का आदेश दिया.
बम बम भोला बम बम भोला बम बम भोला बम बम भोला
हो शिवजी बिहाने चले पालकी सजाईके भभूति लगाइके ना..
हो शिवजी बिहाने चले पालकी सजाईके भभूति लगाइके पालकी सजाईके ना..
उनके इस आदेश से अत्यंत प्रसन्न होकर गणेश्वर शंखकर्ण, केकराक्ष, विकृत, विशाख, विकृतानन, दुन्दुभ, कपाल, कुंडक, काकपादोदर, मधुपिंग, प्रमथ, वीरभद्र आदि गणों के अध्यक्ष अपने-अपने गणों को साथ लेकर चल पड़े.
नंदी, क्षेत्रपाल, भैरव आदि गणराज भी कोटि-कोटि गणों के साथ निकल पड़े.ये सभी तीन नेत्रों वाले थे.सबके मस्तक पर चंद्रमा और गले में नीले चिन्ह थे.सभी ने रुद्राक्ष के आभूषण पहन रखे थे.सभी के शरीर पर उत्तम भस्म पुती हुई थी.
इन गणों के साथ शंकरजी के भूतों, प्रेतों, पिशाचों की सेना भी आकर सम्मिलित हो गई.इनमें डाकनी, शाकिनी, यातुधान, वेताल, ब्रह्मराक्षस आदि भी शामिल थे.इन सभी के रूप-रंग, आकार-प्रकार, चेष्टाएँ, वेश-भूषा, हाव-भाव आदि सभी कुछ अत्यंत विचित्र थे.
किसी के मुख ही नहीं था और किसी के बहुत से मुख थे.कोई बिना हाथ-पैर के ही था तो कोई बहुत से हाथ-पैरों वाला था.किसी के बहुत सी आँखें थीं और किसी के पास एक भी आँख नहीं थी.किसी का मुख गधे की तरह, किसी का सियार की तरह, किसी का कुत्ते की तरह था.
उन सबने अपने अंगों में ताजा खून लगा रखा था.कोई अत्यंत पवित्र और कोई अत्यंत वीभत्स तथा अपवित्र गणवेश धारण किए हुए था.उनके आभूषण बड़े ही डरावने थे उन्होंने हाथ में नर-कपाल ले रखा था.
वे सबके सब अपनी तरंग में मस्त होकर नाचते-गाते और मौज उड़ाते हुए महादेव शंकरजी के चारों ओर एकत्रित हो गए.
चंडीदेवी बड़ी प्रसन्नता के साथ उत्सव मनाती हुई भगवान् रुद्रदेव की बहन बनकर वहाँ आ पहुँचीं.उन्होंने सर्पों के आभूषण पहन रखे थे.वे प्रेत पर बैठकर अपने मस्तक पर सोने का कलश धारण किए हुए थीं.
जब शिव बाबा करें तैयारी कइके सकल समान हो
दाहिने अंग त्रिशूल विराजे नाचे भूत शैतान हो
ब्रह्मा चलें विष्णु चलें लइके वेद पुराण हो
शंख चक्र और गदा धनुष ले चलें श्री भगवान हो
और बन ठन के चलें बम भोला लिए भांग धतूर का गोला
बोले ये हरदम चलें लड़का पराई के
भभूति लगाइके पालकी सजाईके ना
हो शिवजी बिहाने चले पालकी सजाईके भभूति लगाइके पालकी सजाईके ना..
धीरे-धीरे वहाँ सारे देवता भी एकत्र हो गए.उस देवमंडली के बीच में भगवान श्री विष्णु गरुड़ पर विराजमान थे.पितामह ब्रह्माजी भी उनके पास में मूर्तिमान् वेदों, शास्त्रों, पुराणों, आगमों, सनकाद महासिद्धों, प्रजापतियों, पुत्रों तथा कई परिजनों के साथ उपस्थित थे.
देवराज इंद्र भी कई आभूषण पहन अपने ऐरावत गज पर बैठ वहाँ पहुँचे थे.सभी प्रमुख ऋषि भी वहाँ आ गए थे.तुम्बुरु, नारद, हाहा और हूहू आदि श्रेष्ठ गंधर्व तथा किन्नर भी शिवजी की बारात की शोभा बढ़ाने के लिए वहाँ पहुँच गए थे. इनके साथ ही सभी जगन्माताएँ, देवकन्याएँ, देवियाँ तथा पवित्र देवांगनाएँ भी वहाँ आ गई थीं.
इन सभी के वहाँ मिलने के बाद भगवान शंकरजी अपने स्फुटिक जैसे उज्ज्वल, सुंदर वृषभ पर सवार हुए.दूल्हे के वेश में शिवजी की शोभा निराली ही छटक रही थी.
इस दिव्य और विचित्र बारात के प्रस्थान के समय डमरुओं की डम-डम, शंखों के गंभीर नाद, ऋषियों-महर्षियों के मंत्रोच्चार, यक्षों, किन्नरों, गन्धर्वों के सरस गायन और देवांगनाओं के मनमोहक नृत्य और मंगल गीतों की गूँज से तीनों लोक परिव्याप्त हो उठे.
ओ माता मैना परछन चलली तिलक दिहली लिलार हो
काला नाग गर्दन के नीचे वो हू दिहल फुंफकार हो
लोटा फेंक के भाग चलेली का ई लिखल लिलार हो
इनके संगे ब्याह न करबो गौरी रही कुंआरी हो
कहें पार्वती समझाई बतिया मानो हमरी माई
उहे होइहें जइसन आइल हईं हम करमवा लिखाई के
भभूति लगाइके पालकी सजाईके ना
हो शिवजी बिहाने चले पालकी सजाईके भभूति लगाइके पालकी सजाईके ना..
उधर हिमालय ने विवाह के लिए बड़ी धूम-धाम से तैयारियाँ कीं और शुभ लग्न में शिवजी की बारात हिमालय के द्वार पर आ लगी.पहले तो शिवजी का विकट रूप तथा उनकी भूत-प्रेतों की सेना को देखकर मैना बहुत डर गईं और उन्हें अपनी कन्या का पाणिग्रहण कराने में आनाकानी करने लगीं.पार्वती उन्हें समझाती हैं कि हे माता,ये विवाह होना मेरे भाग्य में लिखा हुआ है,अत:इस विवाह कार्य को निर्विध्न सम्पन्न होने दो.
ओ जब शिव बाबा मंडवा गइलें होला मंगलाचार हो
बाबा पंडित वेद विचारें होला गुस्साचार हो
बजरबटी की लगी झालरी नागिन की अधिकार हो
बीच मंडवा में नाउन अइली करे झगड़ा बरियार हो
एगो नागिन दिहलन बिदाई नाउन जिउले चले पराई
सब हँसे लगैला देवता ठठाय के
भभूति लगाइके पालकी सजाईके ना
हो शिवजी बिहाने चले पालकी सजाईके भभूति लगाइके पालकी सजाईके ना ..
शिवजी के विववाह में मंत्रोचार हो रहा है.वेद को मानने वाले पंडित लोग इस औघड़दानी भगवान शिव के विवाह को संपन्न करते हुए नाराज भी हो रहे हैं.उन्हें बहुत सी चीजे वेद के विरुद्ध महसूस हो रही है.मंडवा में देवता और पंडितों के साथ साथ नाग नागिन भी टहल रहे हैं.एक नाउन मंडवा में आकर भेंट देने के लिए बहुत झगड़ा करती है तो भगवान शिव एक नागिन उठाकर उसे बिदाई में भेंट देते हैं.वो डर के मारे अपनी जान बचाते हुए वहाँ से भाग खड़ी होती है.
ओ कोमल रूप धरे शिव-शंकर खुश भये नर-नारी हो
राजा हिमांचल गान कर कहें इज्जत रहे हमार हो
कहें वर साथी शिव-शंकर के केहू न पावल पार हो
इनके जटा से गंगा बहली महिमा अगम अपार हो
जय शिव-शंकर ध्यान लगायेँ इनके तीनो लोक दिखायें
कहें दुखहरण यहीं छाड़ो मनवा के
भभूति लगाइके पालकी सजाईके ना
हो शिवजी बिहाने चले पालकी सजाईके भभूति लगाइके पालकी सजाईके ना..
पार्वतीजी की माताजी ने जब शंकरजी का करोड़ों कामदेवों को लजाने वाला सोलह वर्ष की अवस्था का परम लावण्यमय रूप देखा तो वे देह-गेह की सुधि भूल गईं और शंकर पर अपनी कन्या के साथ ही साथ अपनी आत्मा को भी न्योछावर कर दिया.
शिव-पार्वती का विवाह आनंदपूर्वक संपन्न हुआ.हिमाचल ने कन्यादान दिया.विष्णु भगवान तथा अन्यान्य देव और देव-रमणियों ने नाना प्रकार के उपहार भेंट किए.ब्रह्माजी ने वेदोक्त रीति से विवाह करवाया.सब लोग अमित उछाह से भरे अपने-अपने स्थानों को लौट गए.
शिव विवाह कथा-भगवान वेबपेज से आभार सहित संकलित.
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आलेख,संकलन और प्रस्तुति=सद्गुरु श्री राजेंद्र ऋषि जी,प्रकृति पुरुष सिद्धपीठ आश्रम,ग्राम-घमहापुर,पोस्ट-कंदवा,जिला-वाराणसी.पिन-२२११०६.
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