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बुढ़वा मंगल’ काशी का विशिष्ट उत्सव
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काशी में ये लोक मान्यता है कि जब ये काशी स्थूल रूप में प्रकट नहीं थी,तब भी भगवान शिव यहाँ रहते थे.उनके सदा से काशी में विदयमान होने के कारण ही उन्हें ‘बुढ़वा बाबा’ कहा जाता है.उन्ही की याद में,प्रेम में और भक्ति में ‘बुढ़वा मंगल’ उत्सव मनाया जाता है.काशी का ये विशिष्ट उत्सव प्रति वर्ष होली के बाद पड़ने वाले पहले मंगलवार को मनाया जाता है.काशी में होली की शुरआत ‘शिवरात्रि’ से होती है और होली का समापन ‘बुढ़वा मंगल’ से होता है.उत्सवों और पर्वो की नगरी काशी का प्राचीन और विशिष्ट उत्सव ‘बुढ़वा मंगल’ जल उत्सव के नाम से भी जाना जाता है.’बुढ़वा मंगल’ या ‘जल उत्सव’ पर्व का इतिहास बहुत पुराना है.
इतिहासकारों के अनुसार सन 1735 में काशी के चकलेदार मीर रुस्तम अली ने पहली बार एक भव्य मेले के रूप में ‘बुढ़वा मंगल’ पर्व का आयोजन किया था.उनके काशी से जाने के बाद उनकी याद में दुखी होकर गायिकाएं गाती थीं-कहां गयो मेरो होली को खेलैया, सिपाही रुस्तम अली बांके सिपहिया.काशी नरेश चेत सिंह का संरक्षण मिलने के बाद यह पर्व ‘लाखा मेला’ के नाम से प्रसिद्द हो गया था.एक ऐसा मेला जो गंगा जी की पावन जलधारा पर लगता था और जिसमे लाखों लोग भाग लेते थे.
गंगा जी के जल की सतह पर सजी धजी नावों में ये मेला लगा करता था.इस अवसर पर सजी धजी सर्वश्रेष्ठ नौका का चुनाव होता था और उसे पुरस्कृत किया जाता था.नावों पर सब जरुरी सामान बिकता था.नावों पर ही पर रंग,अबीर,गुलाल,इत्र और गुलाब की पंखुड़ियों से होली खेली जाती थी.विभिन्न तरह की सजी धजी नावों पर नृत्य और संगीत के आयोजन की व्यवस्था की जाती थी.इस लाखा मेले में आने वाले लोग लोग नाव से मेले में यहाँ वहाँ घूमते थे और नाच-गाने का आनंद लेते थे.राजा,जमींदार,सेठ,साहूकार,रईस,कलाकार,कवी,साहित्यकार से लेकर आम जनता तक सभी इस मेले में आते थे और मेले का भरपूर लुत्फ़ उठाते थे.
प्रसिद्द साहित्कार भारतेंदु हरिश्चंद्र भी इस मेले में गीत संगीत का आनंद लेने के लिए अपनी सजी धजी नाव पर सवार होकर मिर्जापुर से आते थे.ये आयोजन शास्त्रीय और गैर शास्त्रीय गीत संगीत की सुरवर्षा के लिए के लिए सैकड़ों वर्षों से पूरे विश्व में प्रसिद्द रहा है.पुराने समय की मशहूर नर्तकी और गायिका हुस्नबानो के बारे में कहा जाता है कि दशाश्वमेघ घाट के सामने गंगा की जलधारा के बीच बजड़े पर जब नृत्य करते हुए वो गाती थी-“फूल गेंदवा के ना मोहे मारा हो राजा..” तो गंगा उस पार रामनगर के किले तक उसकी आवाज सुनाई देती थी.राजेश्वरी का गायन सुनने के लिए और मैना का नृत्य देखने के लिए लोग बेचैन हो जाते थे.सन १९३६ में इस मेल में अनवरीबाई का गाया गीत-“मार डाला..मार डाला..मार डाला..” बहुत प्रसिद्द हो गाया था.
मेले में अपराध और अश्लीलता बढ़ने से काशीराज सहित बहुत से रईस और सम्मानित लोग मेले में आने से कतराने लगे.अन्य कई कारणो से भी कई बार इस मेले का आयोजन नहीं हुआ.राजा और सामंतों के युग की समाप्ति के साथ इस मेले का स्वरुप भी बदलता गया और काशी का ये आईना धुंधला पड़ता गया.पिछले १६ वरसों से प्रशासन ने इस आयोजन में रूचि लेकर काशी के इस धुंधलाते आईने को धोने व पोंछ के साफ करने की कोशिश की है,ताकि काशी का इतिहास और काशी की संस्कृति को पुनर्जीवित किया जा सके.
पिछले कई वर्षों से “बुढ़वा मंगल” के आयोजन को सरकार और प्रशासन की मदद मिल रही है,परन्तु इस वर्ष चुनावी आचार संहिता लागू होने के कारण सरकार के संस्कृति मंत्रालय से इस आयोजन को कोई आर्थिक मदद नहीं मिली और स्थानीय प्रशासन भी इस आयोजन से दूर रहा.आयोजकों ने आर्थिक परेशानी झेलते हुए भी कुछ कारपोरेट घरानों व उद्यमियों की मदद से इस विशिष्ट उत्सव का सफल आयोजन किया और काशी की इस विशिष्ट परम्परा को जीवित रखा.
मंगलवार २५ मार्च को डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद घाट के सामने गंगा की‘ धारा में बहुत से बजड़ों और नावों के सहयोग से सजी बुढ़वा मंगल की महफ़िल का काशीवासियों ने भरपूर आनद लिया.सफ़ेद गुलाबी वस्त्र पहने हुए लोग..और उनपर गुलाब की पंखुड़ियों,गुलाबजल और सुंगंधित इत्र का होता झिड़काव..ठंडई चखते और बनारस का मशहूर मगही पान जमाते लोग..काशी के राजा और देवों के देव महादेव को याद करते लोग..मसनद की टेक लगाये संगीत के रसिक..और राग रागिनियों की सुरवर्षा करते शास्त्रीय संगीत के एक से बढ़कर एक महान कलाकार..”बरजोरी करो न होली में”..”उड़त अबीर गुलाल”..”एही ठइया मोतिया हेराइल हो रामा”..”सुतल सइंया जगावे हो रामा”..और “एही काशी नगरिया क कौने जोड़ नाही बा”..सबकुछ अदभुद और ठेठ बनारसी अंदाज..
आज जरुरत इस बात की है कि ‘बुढ़वा मंगल’ पर्व को शासकीय पर्व घोषित किया जाये और इसे एक वृहद् आयोजन का स्वरुप देकर आम जनता को और विदेशी शैलानिओं को इससे जोड़ा जाये.इससे आम जनता ओर विदेशी शैलानियों के बीच यह पर्व और लोकप्रिय होगा.बहुत से गीत संगीत के कलाकारों को अपनी कला प्रदर्शित करने का गंगधारा के बीच एक अदभुद मंच मिलेगा.फ़िलहाल बिना किसी शासकीय मदद के ‘बुढ़वा मंगल’ उत्सव को आयोजित करने वाले समर्पित आयोजक और इसमें पूरे उत्साह के साथ भाग लेने वाले काशीवासी बधाई के पात्र हैं,जिन्होंने इस विशिष्ट उत्सव के जरिये काशी की मौज-मस्ती व फक्कड़पन को जीवित रखा हुआ है.मैं उन्हें सादर नमन करता हूँ.हम सब काशीवासी धन्य हैं,जो बुढ़वा बाबा की छत्रछाया में उनकी प्रिय नगरी में रहते हैं.
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ (सद्गुरु श्री राजेंद्र ऋषि जी,प्रकृति पुरुष सिद्धपीठ आश्रम,ग्राम-घमहापुर,पोस्ट-कंदवा,जिला-वाराणसी.पिन-२२११०६)
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