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वो यादगार होली और नन्हा सा गुल खिलने की आस-४

सद्गुरुजी
सद्गुरुजी
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नन्हा सा गुल खिलने की आस-अंतिम भाग
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आओ..मेरे पास बैठो..-अर्पिता मेरा हाथ पकड़ अपनी तरफ खींचते हुए बोली.
मैं बिस्तर के ऊपर उसके पास बैठ गया.वो बिस्तर पर अपनी बायीं ओर खिसकते हुए बोली-पैर ऊपर कर लो..आराम मिलेगा..तुम आज बहुत थके हुए लग रहे हो..मुझे खून भी दिए हो..
मैं उसके बगल में बैठकर अपने पैर सीधा फैला लिया.मुझे बहुत आराम मिला.
तुम्हारी पैंटपर चाय की कुछ बूंदे गिर गईं हैं..दाग पड़ गया है..पैट उतार दो..मैं प्रिया से धुलवा देती हूँ..-अर्पिता मेरी क्रीम कलर की पैंट पर लगे चाय के दाग पर अपना दायां हाथ रख बोली.
नहीं रहने दो..मुझे चाय के इस दाग की परवाह नहीं..आज हमारे जीवन पर हमारे होने वाले बच्चे की मौत का जो दाग लग गया है..उससे बड़ा दाग क्या होगा..डॉक्टर प्रभा गर्भपात के लिए हमदोनों को दोषी ठहरा रहीं थीं..-मैं दुखी स्वर में बोला.
तुमसे ज्यादा तो मैं दोषी हूँ..मैं ही तुम्हे सेक्स करने के लिए मजबूर करती रही..अपने बच्चे को मैंने खुद ही मार दिया..कल रात को तुम मुझसे मिल के जा रहे थे..मैं तुम्हे जाने देती..सेक्स करने के लिए मजबूर नहीं करती तो न बच्चे को चोट लगती और न ही गर्भपात होता..मुझे माफ़ कर दो..-अर्पिता मेरे कंधे पर सिर रख सिसकने लगी.
मैं अपना बायां हाथ उसके कंधे पर उसे अपने और करीब किया.उसका रुमाल लेकर दायें हाथ से उसकी आँखों से बहते आंसू पोंछा.
थोड़ी देरतक हमदोनों खामोश रहे.कुछ देर बाद मैं बोला-तुमसे एक बात पूछना चाह रहा था..पर जाने दो तुम्हे यादकर दुःख होगा..
अब इससे बड़ा दुःख और क्या होगा..मैं जरुर जबाब दूंगी तुम पूछो..तुम मेरे लिए क्या हो..ये मैं रात को पूरी तरह से समझ पाई..हॉस्पिटल में शारीरिक कष्ट झेलते हुए हर घडी तुम्हारी याद आती रही..मेरी निगाहें सिर्फ तुम्हे ढूंढती रहीं..और अपनी हर एक स्वांस के साथ बस तुम्हारा नाम लेती रही..मुझे मालूम था कि तुम हॉस्पिटल में मेरे भर्ती होने की बात सुनते ही दौड़े चले आओगे..-अर्पिता सिसकते हुए बोली.
मैं रात को देखा बुरा सपना याद करते हुए बोला-मैं तो आज सुबह से ही तुमसे मिलने को बेचैन था..मैंने रात को बहुत बुरा सपना देखा था कि तुम्हारे गर्भ में एक नन्हा सा बच्चा जोर जोर से रो रहा है और बेरहम डॉक्टर उसका अंग अंग काट के फेंकते जा रहे हैं..मैं उसे बचाने के लिए चिल्ला रहा हूँ..कोई मेरे बच्चे को बचाओ..और फिर मेरी नींद खुल गई…बिस्तर से उठकर कमरे की लाईट जलाया और घडी में देखा तो सुबह के चार बजे थे..इतना कहते कहते मेरा गला भर आया.अपनी आँखों से बहते आंसू पोंछने लगा.
अर्पिता देर तक मेरे कंधे पर सिर रख सिसकती रही फिर बोली-तुम कितना चाहते थे उसे..वो जाते जाते भी तुंम्हे सपने में मिल के गया..
मैं उसी के बारे में तुमसे पूछना चाहता था..बच्चे के गर्भ से बाहर आने के बाद क्या उसे तुमने देखा..कितना बड़ा था वो..और कैसा था वो..-उससे पूछते पूछते मैं रोने लगा.
अर्पिता रोते हुए बोली-मैंने डॉक्टर प्रभा से कहा था..मुझे मेरे मरे हुए बच्चे को एक बार दिखा दो..पर उसने और पापा ने मुझे डांट के चुप करा दिया..
तू पागल हो गई है..ये सब बातें करके रो रही है..और उसे भी रुला रही है..तू बैठी क्यों है..चल चुपचाप लेट जा..-अर्पिता की माताजी प्रिया के साथ हमारी तरफ आते हुए बोलीं.
मैं बिस्तर से उतरकर खड़ा हो गया.अर्पिता की माताजी बिस्तर के पास आकर गुस्से से डांटते हुए बोलीं-तुझसे मुझे कुछ जरुरी बात करनी है..पर आज नहीं..कल अकेले में बात करुँगी..अभी तू खाना खा के दवा खा और चुपचाप सो जा..
वो कुर्सी पर बैठ गईं और प्रिया से खाना मंगाकर जबरदस्ती डांट फटकारकर हमदोनों को खाना खिलाया.प्रिया कुछ दवाएं ले के आई.अर्पिता दवा खाकर लेट गई.प्रिया उसी चादर ओढ़ा दी.मैं बिस्तर पर चुपचाप बैठा था.थोड़ी देर बाद वो गहरी नींद में सो गई.
मैं बिस्तर से उठकर खड़ा हो गया.मैं अर्पिता के माताजी का पैर छुआ और बोला-मम्मीजी..अब मैं घर चलूँगा..
प्रिया के सहारे वो कुर्सी से उठते हुए बोलीं-ठीक है बेटा..तूने खाना खा लिया..अब मैं नहीं रोकूंगी..अपनी सेहत का ख्याल रखा कर..वो लड़की तो पागल है ही..तू तो समझदार बन.
उनकी बात मुझे बहुत ख़राब लगी,परन्तु मैं कुछ बोला नहीं.चुपचाप उनके साथ कमरे से बाहर आ गया.सीधी के नीचे जाकर मैंने अपने जूते पहने और प्रिया से कहा-प्रिया गेट बंद कर लेना..ये कहकर मैं घर के बाहर आ गया.गैलरी से होते हुए मैं बगीचा पार कर गेट के पास पहुँच गया.गेट खोलकर मैं बसस्टैण्ड की तरफ चल पड़ा.
बस पकड़कर मैं छावनी बाज़ार पहुंचा तो मुझे याद आया कि मेरे पिताजी कई दिनों से मुझे अपने बाल छोटे कराने का आदेश दे रहे थे.मैं एक नाई की दुकान में गया और अपने मरे हुए बच्चे के शोक में मैंने अपनी ढाढी,मूंछ और सिर के बाल सब छिलवा दिए.मैंने एक टोपी खरीदकर अपने सिर पर लगा लिया.मैं अपने घर की तरफ चल पड़ा.अपने बेटे की मृत्यु का दुःख पूरी तरह से मेरे ऊपर हावी था.मैं अपने बच्चे के बारे में सोच रहा था और आंसू बहा रहा था.हाथ में सफ़ेद रुमाल लिए था,जिससे रह रह कर अपनी आँखों से बहते आंसू पोंछ लेता था.अर्पिता की माताजी की डांट मेरे कानो में गुंज रही थी-अपनी सेहत का ख्याल रखा कर..वो लड़की तो पागल है ही..तू तो समझदार बन..मुझे उनकी डांट बहुत बुरी लगी थी.
मैं घर पहुंचा और दरवाजा खटखटाया.दरवाजा पिताजी ने खोला.वो अपनी सफ़ेद ड्रेस में थे.सफ़ेद सूज,सफ़ेद हाफ पैंट और सफ़ेद हाफ शर्ट..मैं समझ गया कि वो शाम की फिजिकल एक्सरसाइज करके अभी लौटे हैं..वो मुझे ध्यान से देख रहे थे.मैं अपने दुःख को छिपा उनके सामने सावधान होकर घर में प्रवेश किया.
पिताजी दरवाजा बंदकर गुस्से से मुझे घूरते हुए बोले-ये क्या कार्टून बन के आये हो..मैंने बाल छोटे कराने को कहा था..गंजा होने को तो नहीं कहा था..तुम गुस्से के मारे दाढ़ी मूंछ और सिर के बाल सब छिलवा लिए..
जी..मैं गुस्से से नहीं छिलवाया..मेरे सिर में खुजली हो रही थी..-मैं किसी तरह से हिम्मत जुटाकर बोला.
पिताजी कुर्सी पर बैठकर अपने सफ़ेद कपडे के जूते उतारते हुए बोले- तुम्हारे सिर में नहीं बल्कि तुम्हारे दिमाग में खुजली हो रही थी..तुम्हारे भले के लिए मैं कुछ कहता हूँ..तो मेरी अच्छी बात भी तुम्हे बुरी लगती है..जिंदगी में जिस दिन तुम बाप बनोगे..तुम्हे मेरे दर्द का एहसास होगा..मेरी तरह एक बूढ़ा आदमी अपने नासमझ बेटे को रोज समझाता था कि बेटा धूप में मत घूमो..तुम्हे धूप में घूमते देख मुझे बहुत तकलीफ होती है..उसका बेटा अपने पिता की बात सुनता ही नहीं था..उसे पिता के दर्द का एहसास ही नहीं था..एक दिन उस बूढ़े आदमी ने अपने पोते को उठाकर धूप में रख दिया..बच्चा धूप लगने से जैसे ही रोना चिल्लाना शुरू किया..उसका बाप दौड़कर गया और अपने बेटे को झट से गोद में लेकर अपने पिता को गुस्से के मारे डांटने लगा..बूढ़े आदमी ने कहा-अब तुझे बाप के दर्द का एहसास हुआ..
पिताजी की बातें सुनकर मुझे अपने बच्चे की याद आ गई,जिसकी आज गर्भ में ही मृत्यु हो गई थी.मेरी आँखों से झर झर आंसू बहने लगे.भावावेश में आकर मैंने पिताजी के चरण छुए और रोते हुए बोला-पापा..आप अपना ट्रांसफर करा लीजिये..मेरा मन यहाँ नहीं लगता है..इस वादी के लोग अच्छे नहीं हैं..
पिताजी आश्चर्य से मुझे देख रहे थे.उनकी समझ में नहीं आया कि इस हिल स्टेशन की और यहाँ के लोगों की हमेशा तारीफ करने वाला लड़का आज ये सब क्यों कह रहा है.वो कुछ पूछना छह रहे थे,पर मैं उनके पास रुका नहीं.मैं रोते हुए अपने कमरे में आ गया.
मैं अपने कमरे में आकर अपने बिस्तर पर बैठकर रोने लगा.माँ और दीदी ने मुझसे बहुत पूछा कि-क्या बात है..तू बाल दाढ़ी मूंछ सब क्यों छिलवा लिया है..कैसा अजीब सा तेरा चेहरा लग रहा है..तुझे अपने सिर के बाल इतने प्रिय थे..फिर क्यों कटवा लिया..गुस्से के मारे सब कटवा लिया क्या.. वो यही सब सवाल बार बार पूछती रहीं,पर मैं उन्हें कुछ नहीं जबाब दिया.बस हिचक हिचककर रोता रहा.
माँ मुझपर बहुत नाराज हो रही थीं-बाल कटाने को तेरे पिताजी क्या कह दिए..तू बुरा मान गया..और गुस्से के मारे सिर का पूरा बाल ही छिलवा दिया..हमलोगों के जीते जी तू बाल दाढ़ी मूंछ सब छिलवा के अपशगुन मना रहा है..
घर के सब लोग मुझसे पूछताछ कर थकहार गए तो अपने अपने कामों में बिजी हो गए.
मैं उनकी बातों का कोई जबाब नहीं दिया.उन्हें सच बताने और उनके सवालों का जबाब देने का मतलब था पिताजी से मार खाना,जिसके लिए मेरे जैसा डरपोक आदमी तैयार नहीं था.आज जब मैं उस दिन के बारे में सोचता हूँ तो मुझे लगता है कि वास्तव में मैं डरपोक नहीं बल्कि बहुत बहादुर था जो पिताजी के कड़े अनुशासन और उनके द्वारा बनाये गए भय के माहौल के वावजूद अपने जीवन के इतने बड़े राज को परिवार वालों से छिपाकर रखा था.
मैं उस रात को खाना नहीं खाना चाहता था,परन्तु मेरी माताजी मुझे जबर्दस्ती ले जाकर डाइनिंग टेबल के पास बैठा दीं.सामने खाने की थाली थी और मैं खाना नहीं खा रहा था.माताजी ने पिता जी से जाकर कहा.पिताजी जब मेरे सामने आकर गुस्से से बोले कि-ये क्या देवदास बने हुए हो..जरुर कोई लड़की का चक्कर है..मैं इस बारे में कल सुबह तुमसे बात करूँगा..अभी तुम चुपचाप खाना खाओ..और जा के अपने कमरे में स्टडी करो..अगर स्टडी नहीं करना है तो मच्छरदानी लगाओ और सो जाओ..
मैं दो रोटी किसी तरह से खाया और अपने कमरे में जाकर मच्छरदानी लगाया और फिर लाईट बुझाकर बिस्तर पर लेट गया.मैं सोचने लगा कि-पिताजी को मुझपर शक हो गया है..कल सुबह मैं उन्हें क्या जबाब दूंगा..मैं उन्हें अर्पिता के बारे में बता भी नहीं सकता..वो सब जानकर तो वो मुझे मार ही डालेंगे..गहरी साँस ले लेकर मैं सोचता रहा और सोचते सोचते न जाने कब मैं नींद के आगोश में खो गया.
सुबह माताजी ने मुझे उठाया-उठो..सुबह के सात बज गए हैं..तुम्हारे पिताजी तुम्हे बुला रहे हैं..तुम रातभर आराम से सोते रहे और वो तुम्हारे कमरे के बाहर रातभर बेचैन होकर टहलते रहे..जाओ उन्हें जाकर सब बात सच सच बता दो..
मैं ये सुनकर दुखी हुआ कि रात को पिताजी मेरे कारण परेशान हुए.मैं हाथ मुंह धोकर तौलिया से पोंछा और फिर डरते हुए पिताजी के कमरे में गया.वो अपने सामने सावधान मुद्रा में खड़े दो हेल्परों को कुछ आदेश दे रहे थे.एक को राशन लाने से सम्बंधित और दूसरे को बगीचे में कुछ लगाने से सम्बंधित.दोनों के जाने बाद मैं उनके सामने जाकर सावधान मुद्रा में खड़ा हो गया..
वो चाय पीते हुए बोले-हाँ..अब तुम बताओ कि कल क्या बात हुई थी..कल तुम इतने अपसेट क्यों थे..
मैंने उनसे सच छिपाते हुए कहा-जी..यहाँ के कुछ लोगों से मेरी बहस हो गई थी..वो हमारे देश के बारे में बहुत ख़राब विचार रखते हैं..मुझे बहुत दुःख हुआ था..
पिताजी मेरी तरफ देखते हुए बोले-सिविलियन का कोई कैरेक्टर नहीं होता है..उन्हें सरकार कितना भी खिला पिला दे..सुख सुविधा दे दे वो देश को धोखा ही देंगे..इसीलिए मैं कहता हूँ कि सिविलियन का कोई कैरेक्टर नहीं होता है..कैरेक्टर तो आर्मी का होता है..उसी की बदौलत कोई भी देश एकजुट और सुरक्षित रहता है..
वो चाय की चुस्की लेकर मेरी तरफ ध्यान से देखते हुए बोले-तुम अपना नॉलेज बढ़ाओ..बहस में किसी से हारकर रोना नहीं चाहिए..बल्कि अपनी नॉलेज बढाकर उसे पराजित करना चाहिए..ठीक है अब जाओ..
मैं पिताजी के कमरे से बाहर आकर अपनी नित्य क्रिया में लग गया.मैंने मन ही मन निश्चय कर लिया कि अब कुछ दिनों तक अर्पिता के पास नहीं जाउंगा.मैं अपने बच्चे के गुजरने के शोक में डूबा हुआ था.मै दो दिन तक अर्पिता के घर नहीं गया.अपने कमरे में रहकर शोक मनाता रहा,परन्तु मेरे मन में शांति नहीं थी.मुझे अर्पिता की चिंता लगीं थी.मैं सोच रहा था कि वो मुझे बहुत याद करती होगी.इस समय भावनात्मक रूप से सहारा पाने के लिए उसे मेरी बहुत जरुरत महसूस हो रही होगी.होगी.
दूसरे दिन दोपहर के समय जब पिताजी ऑफिस गए हुए थे.मैं उनके कमरे में जाकर उनका रेडियो उठा लाया.दीदी पढ़ाने के लिए स्कूल गई थीं,नहीं तो मुझे रेडियो मिलना मुश्किल था.मैं रेडियो खोला तो उसपर हिंदी फ़िल्मी गीतों का कार्यक्रम आ रहा था.इन्दीवर जी का लिखा हुआ फ़िल्म सफ़र का एक गीत मुझे बहुत अच्छा लगा.इस गीत ने मुझे जिंदगी का कठोर और यथार्थ फलसफा समझाते हुए शोक से बाहर निकलने में मेरी बहुत मदद की.
ओ नदिया चले चले रे धारा
ओ नदिया चले चले रे धारा
चन्दा चले चले रे तारा
तुझको चलना होगा,
तुझको चलना होगा
जीवन कहीं भी ठहरता नहीं है
आँधी से तूफां से डरता नहीं है
तू ना चलेगा तो चल देंगी राहें
ओ तू ना चलेगा तो चल देंगी राहें
मंज़िल को तरसेंगी तेरी निगाहें
तुझको चलना होगा,तुझको चलना होगा

मुझे समझ में गया कि जिंदगी चलने का नाम है और शोक मनाना रुकने की कोशिश करना है.ये हर क्षण दौड़ती भागती जिंदगी मुझे ज्यादा दिन तक शोक के सागर में डूबकर रुकने नहीं देगी.वो मुझे आगे बढ़ने पर मजबूर कर देगी.
तीसरे दिन मैं अर्पिता के घर पहुँच गया.मैं सीढ़ी के नीचे जूते उतारते हुए देखा कि सब लोग डाइनिंग टेबल पर बैठकर खाना खाते हुए मेरी ही चर्चा कर रहे थे.मुझे एक नए रूप में देखकर सब हैरान और परेशान थे.मैं वासवेसिन पर हाथ धोकर अर्पिता के माता पिताजी के पैर छुआ और अर्पिता के पास पड़ी कुर्सी पर जाकर बैठ गया.
अर्पिता मेरे लिए एक प्लेट में खाना निकालने लगी.मैंने उसे मना किया,पर वो नहीं मानी.
मेरे सामने खाने की प्लेट रख मुस्कुराते हुए अपने हाथ से दो बार रोटी तोड़ के खिलाई.मैं शरमा रहा था,जबकि वो एकदम नार्मल बिहेव कर रही थी.मैं खाना खाने लगा.
अर्पिता अपने बाएं हाथ से मेरी जांघ में चिकोटी काटते हुए बोली-तुमने ये क्या अपना हुलिया बना रखा है..और दो दिन से कहाँ थे तुम..मैं तुम्हारे लिए दो दिन से कितनी परेशान हूँ..
मैंने अपने गुजरे हुए बच्चे के शोक में सिर के बाल,मूंछ और दाढ़ी सब कटवा दिए..मैं अपने घर पर ही था..मेरा मन बहुत दुखी था..इसलिए दो दिन घर से बाहर नहीं निकला..-मैं बोला.
ये दो दिन से मुझसे झगड़ रही कि तुमने जरुर राज को कुछ कहा होगा..इसीलिए वो नहीं आ रहा है..-अर्पिता की माताजी बोली.
अर्पिता मेरी पत्नी है..वो जबतक यहाँ है..मैं यहाँ आना नहीं छोडूंगा-मैं अर्पिता की ओर देखते हुए बोला.
मैं अब यहाँ ज्यादा दिन नहीं रहूंगी..तुम जल्दी से कोई व्यवस्था करो..और मुझे अपने साथ रखो..मैं अब तुम्हारे बिना नहीं रह सकती हूँ..-अर्पिता मुझे निहारते हुए गम्भीर स्वर में बोली.
सबके सामने ये सुनकर मुझे शर्म आ रही थी,पर उसकी बात मेरे मन को गुदगुदा रही थी.मैं भी तो यही चाहता था की उसके साथ रहूँ.दिन रात उसी की याद में डूबा रहता था.
ये तुम दोनों का भी घर है बेटा..जबतक चाहे यहांपर रहो..-अर्पिता के पिताजी बोले.
मैं आज सुबह अपने घर से ही ये निश्चय करके चला था कि बच्चे के गुजरने के शोक से बाहर निकलने के लिए तथा अपना और अर्पिता का मूड फ्रेश करने के लिए आज माँ दुर्गाजी के मंदिर जायेंगे.यदि और कोई नहीं जायेगा तो मैं अर्पिता को लेकर जाउंगा.
मंदिर जाने वाला निश्चय याद आते ही मैं अर्पिता के पिताजी से बोला-पापाजी..चलिए हमसब लोग आज माँ दुर्गाजी के मंदिर चलें..जहांपर हमारी शादी हुई थी..वहीँ से आज फिर हम एक नई जिंदगी की शुरुआत करें..
ये तो बहुत अच्छा आइडिया है..माँ के दर्शन हो जायेंगे और हम सबका सैड मूड भी फ्रेश हो जायेगा..-अर्पिता खुश होकर बोली.
तुम सबके साथ आज मैं भी चलूंगी..मंदिर की सीढ़ियों के नीचे से ही माँ के दर्शन कर लूंगी..-अर्पिता की माताजी बोलीं.
ठीक है चलो..तुम सब लोग तैयार होवो..मैं गाड़ी की व्यवस्था करके लाता हूँ..-अर्पिता के पिताजी कुर्सी से उठते हुए बोले.
मैं प्रिया से बोला-प्रिया..तुम जाकर अर्चना को भी बुला लाओ..मंदिर जेक उसका भी मूड फ्रेश हो जायेगा..वो भी तो हमारे दुःख से दुखी है..
प्रिया अर्चना के माताजी को सहारा देकर उठाते हुए बोली-ठीक है साहिब..मैं अर्चना दीदी को बुला लती हूँ..पर मैं भी आप लोगों के साथ चलूंगी..
मैं उसकी मदद याद करते हुए बोला-तुम्हे तो ले जाना ही पड़ेगा..तुम हमारी शादी में शामिल थी..और तुमने शादी में हमारी बहुत मदद की थी..
प्रिया खुश होकर मुस्कुराते लगी.आज कई दिन बाद उसके चेहरे पर मुस्कुराहट दिखी थी.
अर्पिता खड़ी होकर मेरा हाथ पकड़ उठाते हुए बोली-अब उठो..और मेरे साथ चलो..
मैं उठकर उसके साथ चल दिया.वो मुझे अपने कमरे में ले गई.कमरे के भीतर जाते ही दरवाजा अंदर से बंदकर मुझपर बरस पड़ी-तुम अगर आज नहीं आते तो कल मैं अर्चना को लेकर तुम्हारे घर पहुँच जाती..फिर मैं अपने घर वापस लौट के नहीं आती..वहीँ तुम्हारे साथ रहती..
तुम ऐसा ही कर दो तो अच्छा है..अपने घरवालों से झूठ बोलते बोलते मैं थक गया हूँ..-अर्पिता को मैं अपनी बाँहों में भरते हुए बोला.
अर्पिता मुझसे लिपटते हुए बोली- दो दिन से तुमसे मिलने को मैं तड़फ रही हूँ..मुझे क्यों इतना तड़फ़ाते हो..
शरीर के स्पर्श का सुख हमदोनों को ही बेचैन किये हुए था.हमदोनों इस सुख के आदती हो चुके थे.मैं चुपचाप खड़ा रहा.वो अपने हाथों से और होंठों से कुछ देर तक स्पर्श का सुख भोगती रही,फिर शांत होकर बोली-बताओ मैं क्या पहन के चलूँ..
मैं मुस्कुराते हुए बोला-तुम दुल्हन वाली वही लाल साड़ी पहनो..जो हमारी शादी के समय पहनी थी..
ठीक है..तुम बैठो..मैं अभी तैयार हो जाती हूँ..-अर्पिता आलमारी की तरफ जाते हुए बोली.
मैं कुर्सी पर बैठकर एक किताब पढ़ने लगा.उसके तैयार होने का इंतजार करते करते उस किताब का दो पेज मैं पढ़ लिया.
अर्पिता तभी मेरे पीछे आकर आवाज दी-चलो..मैं तैयार हूँ..
मैं पीछे मुड़कर देखा.वो शादी के समय वाली वही लाल साड़ी पहने थी और आज भी सालभर पहले वाली अर्पिता ही लग रही थी.मैं कुर्सी से उठकर उसकी साड़ी का पल्लू उसके सिर पर ओढ़ा दीया.हमदोनों एक दुसरे को मुस्कुराते हुए देख रहे थे.तभी दरवाजे पर दस्तक के साथ उसके पिताजी की आवाज सुनाई दी-जल्दी करो अर्पिता..गाड़ी आ गई है..
हमदोनों दरवाजे की तरफ बढे और दरवाजा खोलकर कमरे के बाहर आ गए.बाहर सबलोग हमारा इंतजार कर रहे थे.अर्चना भी आ चुकी थी.सीढ़ी के नीचे जाकर सबलोग अपने जूट चप्पल पहने और घर के बाहर निकल आये.अर्पिता के पिता जी घर के मुख्यद्वार पर ताला लगा दिए.
हमसब लोग गेट के बाहर निकलकर मारुती वैन में बैठ गए.अर्पिता के पिताजी गेट में ताला लगा आशीष के साथ गाड़ी में आगे बैठ गए.मारुती वैन में बैठीं अर्पिता की माताजी,प्रिया,अर्चना और अर्पिता सब मेरे सफाचट चेहरे को देखकर मुस्कुरा रहीं थीं.
अर्पिता मेरा हाथ पकड़ मुस्कुराते हुए मेरी तरफ देख बोली-माँ के मंदिर में जाकर मैं नजूमी बाबा से आज मिलूंगी और उनसे कहूँगी..
क्या कहोगी..-मैं मुस्कुराते हुए पूछा.
अर्पिता मेरे घुटे हुए सिर से टोपी हटाते हुए बोली-यही कि फ़क़ीर बादशाह हो गया..
सब खिलखिलाकर हंस पड़े.जिंदगी बहुत क्रूर ओर बेशर्म है..वो किसी को भी ज्यादा दिन तक संसार में शोक नहीं मनाने देती है..वो किसी एक जगह हमें ठहरने नहीं देती है..चाहे सुख हो या दुःख..चाहे जीवन हो या मृत्यु..बस चलते रहो..कहीं रुको मत..तुम आनंद के अंश हो..इसीलिए आनंद की तलाश करते रहो..चलते..बस चलते रहो..यही जिंदगी का दर्शन ओर सन्देश है..जो इसे समझ जाये वो बादशाह है ओर जो न समझ पाये वो फ़क़ीर है..
ओ पार हुआ वो रहा जो सफ़र में
ओ पार हुआ वो रहा जो सफ़र में
जो भी रुका घिर गया वो भंवर में
नाव तो क्या बह जाये किनारा
kashmirtrip048
ओ नाव तो क्या बह जाये किनारा
बड़ी ही तेज़ समय की है धारा
तुझको चलना होगा,
तुझको चलना होगा
ओह… नदिया चले चले रे धारा
चँदा चले चले रे तारा
तुझको चलना होगा,
तुझको चलना होगा.

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(सद्गुरु श्री राजेंद्र ऋषि जी,प्रकृति पुरुष सिद्धपीठ आश्रम,ग्राम-घमहापुर,पोस्ट-कंदवा,जिला-वाराणसी.पिन-२२११०६)
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