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उदारता और स्वाभिमान के बीच हुई जंग-एक आपबीती
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हाथ में दूध का डिब्बा लिए आसमानी कलर की सलवार सूट पहनी एक महिला आश्रम में प्रवेश कीं.वो मेरा अभिवादन कर बोलीं-गुरूजी..आप मुझे नहीं पहचान रहे होंगे..मैं आपके घर के पास दूध लेने आयी थी..आश्रम का बोर्ड और आपकी फ़ोटो देखी तो मैं आपको पहचान गई..मुझे ये जानकर बहुत ख़ुशी हुई कि आप इसी कालोनी में रहते हैं..कई साल से मैं आपका पता ढूंढ रही थी..
जी..आप कौन हैं..मुझे याद नहीं आ रहा है..-मैं बोला.
वो बोलीं-पर मैं आपको जानती हूँ..बहुत पहले मैं दोबार आपसे मिली थी..जब आप विद्यापीठ रोड पर रहते थे..सौभाग्य से अब तो हमलोग आपकी कालोनी में आ गए हैं..आपके दर्शन होते रहेंगे..इस कालोनी में हमने एक मकान ख़रीदा है..मेरे पति बीएचयू में सर्विस करते हैं..
मैं उन्हें बैठने के लिए कुर्सी की तरफ ईशारा करते हुए कहा-बैठिये..मुझे ये जानकर बहुत अच्छा लगा कि आप इस कालोनी में आ गई हैं..इस कालोनी में आपका स्वागत है..कैसी लगी आपको ये कालोनी और ये गांव..
वो हँसते हुए बोलीं-इस गांव के लोग तो बहुत बहुरूपियाँ हैं..वो देखने में गरीब लगते हैं..पर वास्तव में वो गरीब हैं नहीं..सब बहुत पैसे वाले हैं..
हाँ..तभी तो गांव के अधिकतर लोग अपनी जमीन बेंच के रोज दिनभर जुआ खेल रहे हैं और रात को खूब जम के दारु पी रहें हैं-मैं उन्हें प्रसाद देते हुए बोला.
वो प्रसाद खाकर पानी पीं और फिर कुर्सी पर बैठते हुए बोलीं- आप तो कई साल से यहांपर हैं..इसीलिए इन लोगों को भलीं भांति जानते होंगे..पर मैं तो इन्हे पहचानने में बुरी तरह से गच्चा खा गई..
वो कैसे..कोई विशेष बात हुई क्या..-मैं उत्सुकता से पूछा.
वो मुझे हँसते हुए बताने लगीं-इस गांव की एक औरत मेरे घर के सामने से रोज गुजरती है..वो रोज वही एक मैली सी फटी पुरानी हल्के आसमानी रंग की साड़ी पहने रहती है..ब्लाउज पहनती ही नहीं है..उसके बाल बेतरतीब पागलों की तरह बिखरे रहते हैं..हाथ में चूड़ी नहीं..माथे पर बिंदी नहीं..मांग में सिंदूर नहीं..और पैरो में चप्पल नहीं..उसे देख के मुझे बहुत दया आती थी..
कल उसपर और उसकी गरीबी पर तरस खा के मैंने उसे आवाज देकर अपने घर के अंदर बुला लिया.मैंने उसे कुर्सी पर बैठा दिया.रसोई से एक गिलास पानी और बर्फी के दो पीस लाकर उसे देते हुए पूछा-तुम शादीशुदा हो..
हाँ..मेरे चार बच्चे हैं..दो लड़का और दो लड़की..-वो मिठाई खाते हुए बोली.
मैंने आश्चर्य से भरकर कहा-तुम शादीशुदा हो और विधवाओं की तरह रहती हो..तुम्हे शादीशुदा औरतों की तरह रहना चाहिए..तुम पानी पीकर मेरे साथ चलो..
वो पानी पीकर कुर्सी से उठ कड़ी हुई.मैं उसे घर के भीतर अपने कमरे में ले गई.उसे मैंने अपनी एक अच्छी से लाल रंग की साड़ी ब्लाउज के साथ पहनाई.उसके हाथों में लाल रंग की चूड़ी पहनाई.उसके माथे पर लाल रंग कि बिंदी लगाई .उसकी मांग में सिंदूर भरकर उसके बाल झाडे और एक सुंदर सी छोटी बना दी.वो बहुत सुंदर लग रही थी.
मैंने उसे समझाते हुए कहा-अब तुम कितनी सुंदर लग रही हो..ऐसे बनठन के रहा करो..तुम्हारा आदमी भी तुमसे खुश रहेगा..
वो हँसते हुए बोली-वो तो वैसे ही मुझसे खुश रहता है..दिन हो या रात..जब खूब दारु चढ़ा लेता है..तब बड़बड़ाते हुए पूरे घर में मुझे ढूँढता फिरता है-कहाँ है मेरी मेनका..मुझे अपनी तपस्या भंग करनी है..और नशे में धुत हालत में जहाँ वो मुझे पा जाता है..सब लोकलाज भुला आदमी से कुकुर बन जाता है..
क्या करता है तुम्हारा मर्द..-मैंने पूछा.
वो बोली-गांव के एक मंदिर में पुजारी है..अपने पीने और जुआ खेलने भर को पैसे रोज मंदिर से पा जाता है..सब गांव वाले उसे पुजारी बाबा कहते हैं..
मैंने कहा-ठीक है..अब तुम जाओ..और कल से काम पर आ जाना..मेरे घर के बर्तन और कपडे धो देना..मैं तुम्हे दोनों समय चाय-नाश्ता और खाना दूंगीं..और हर महीने एक हजार रूपये भी दूंगी..
वो मेरी बात सुनकर हंसने लगी.कुछ देर बाद वो मेरे घर को देखते हुए बोली-ई मकनवां केतना में खरीदले हउ..
साठ लाख में..मगर तुम क्यों पूछ रही हो..-मैंने पूछा.
वो व्यंग्य से मुस्कुराते हुए बोली-हम तोहार ई मकान ख़रीदे बदे तैयार हईं..आपन एकठो जमीन बेच देइब एतना रुपया हमरी लग्गे आ जाई..बोलअ आपन ई मकनवा हमके बेचबू..
उसकी बात सुनकर मैं दंग रह गई.मैं शर्म और संकोच के मारे कुछ बोल नहीं पा रही थी.
वो गुस्से के मारे मेरे दिए हुए कपडे,चूड़ी और बिंदी सब उतार कर जमीन पर फेंक दी और फिर अपनी मैली कुचैली फटी हुई आसमानी रंग की साड़ी पहन उसके आँचल से अपना ऊपरी तन ढँक ली.वो मुझे घूरते हुए मेरे कमरे से बाहर निकल गई.
मैं हतप्रभ सी थी.कुछ बोल नहीं पा रही थी.जब ड्राइंगरूम में मैं पहुंची तो देखा कि घर का मुख्यद्वार खुला हुआ है और वो मेरे घर से बाहर जा चुकी थी.
मिसेज सिंह अपनी आपबीती सुनाकर दूध का डिब्बा उठाते हुए बोलीं-अब मैं चलती हूँ..अब तो आपके दर्शन होते रहेंगे..मैं रविवार को सत्संग में आने की कोशिश करुँगी..
वो आश्रम के गेट के बाहर चलीं गईं और मैं सोचने लगा कि ये आपबीती तो उदारता और स्वाभिमान के बीच हुई अदभुद जंग है,इसे मंच पर मुझे सबके साथ शेयर करना चाहिए.
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ (सद्गुरु श्री राजेंद्र ऋषि जी,प्रकृति पुरुष सिद्धपीठ आश्रम,ग्राम-घमहापुर,पोस्ट-कंदवा,जिला-वाराणसी.पिन-२२११०६)
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