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हाय वो बचपन के दिन भी क्या दिन थे-वो स्मृतियाँ

सद्गुरुजी
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हाय वो बचपन के दिन भी क्या दिन थ-वो स्मृतियाँ
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बचपन के दिन भी क्या दिन थे
बचपन के दिन भी क्या दिन थे
उड़ते फिरते तितली बन के
उड़ते फिरते तितली बन के

जब मैं अपने बचपन को याद करता हूँ तो मजरूह सुलतान पुरी जी का लिखा हुआ फिल्म “सुजाता” का ये गीत मुझे याद आ जाता है.बचपन में वाकई हम चारो भाई बहन तितली की तरह ही उड़ते फिरते थे.घर का अकेला लड़का होने के कारण मैं कुछ ज्यादा ही शरारती था.माता पिता जी से डांट खाना रोज का काम था.कभी कभी मार भी पड़ती थी.मेरी तीनो बहने अक्सर मेरे माता पिताजी से शिकायत करने का मौका ढूंढती थीं.जब मुझे डांट पड़ती थी तो वो लोग खुश हो जाती थीं.शरारते करने में मैं सबसे आगे रहता था लेकिन माँ के सामने मैं इतना मासूम बन जाता था कि माँ मेरा पक्ष लेने लगती थीं.मेरी माँ से अक्सर मेरी बहने शिकायत करती थीं कि लड़का होने की वजह से आप उसका पक्ष लेती हैं.हम सब भाई बहनो में अक्सर किसी न किसी बात को लेकर खूब झगड़ा होता था,परन्तु आपस में प्रेम इतना था कि हम्मे से कोई स्कूल से घर नहीं लौटा होता था तो बेसब्री से उसका इंतजार करते थे और जबतक डाइनिंग टेबल पर सब भाई बहन इकट्ठा न हो जाते थे तब तक खाना नहीं खाते थे.
वहाँ फिरते थे हम फूलों में पड़े
जहाँ ढूँढते सब हमें छोटे बड़े
थक जाते थे हम कलियाँ चुनते
बचपन के दिन भी क्या दिन थे

अब तो स्कूलों में बच्चों को मारना मना हो गया है और होना भी चाहिए क्योंकि इससे बच्चों के मन में टीचरों के प्रति खौफ पैदा होता है और उनका मानसिक विकास बाधित होता है.मेरे विचार से जो टीचर बच्चों को बिना मारे न पढ़ा सके वो टीचर कहलाने के लायक नहीं है.ऐसे टीचरों की जगह स्कूल नहीं बल्कि जेल होनी चाहिए.जब हम छोटे थे उस समय के टीचर बड़े खूंखार होते थे और अपने साथ ले के चलने वाले तरह तरह के बेंतो के लिए जाने जाते थे.उनके खूंखार स्वाभाव के अनुकूल ही उनका नामकरण बच्चे करते थे.जैसे-महिसासुर,कंस,बकासुर और लाल परी.लाल परी हमें मिडिल स्कूल में गठित पढ़ाने वाली मैडम थीं,जिस दिन वो लाल कपडे पहन के आतीं थीं,उस दिन बच्चों की खैर नहीं.कुछ बच्चे तो उन्हें लाल साडी या लाल सलवार कमीज में देख क्लास ही नहीं अटैंड करते थे.मुझे किसी भी टीचर से डर नहीं लगता था क्योंकि मैं पढ़ने में बहुत तेज था और होमवर्क करके घर से चलता था,परन्तु मेरे दोस्त जब मार खाते थे तो मुझे बहुत बुरा लगता था.
कभी रोये तो आप ही हँस दिये हम
छोटी छोटी ख़ुशी छोटे छोटे वो ग़म
हाय क्या दिन थे वो भी क्या दिन थे
बचपन के दिन भी क्या दिन थे

बचपन में गर्मी की छुट्टियां हमें बहुत पसंद थी,क्योंकि खूब घूमने और खाने को मिलता था.परन्तु इन छुट्टियों पर ग्रहण लगा देते थे स्कूल के टीचर,जो इतना होमवर्क दे देते थे कि पूरी छुट्टियों भर पूरा न हो.मुझे याद है कि जब पंजाब में सातवीं में मैं पढ़ रहा था तो गर्मी की छुटियों से पहले जो टीचर क्लास में आता था वो कोर्स की आधी किताब कापी में लिख लाने का हुक्म देता था.बच्चे टीचर के जाने के बाद कहते थे-ओए..आधी किताब लिखेगा कौन..इनका पयो..खुद तो अपने परिवार के संग इधर उधर घूम के ऐस करेंगे और हम पूरी छुट्टियां लिखने में बिता दें..स्कूल खुलने के पंद्रह दिन बाद आओ..कौन पूछेगा कि होमवर्क किये की नहीं..बचपन की यूँ तो बहुत सी यादें हैं.अपने मामा जी या पिताजी के गांव जाकर शरारतें करना और खूब धमाचौकड़ी मचाना.नीम और आम के पेड़ पर चढ़कर खेलना..एकांत स्थान और शमशान में जाकर भूत प्रेतों की खोज करना..जीवन के रहस्य और सत्यं की खोज में लगे रहना सब याद आता है.
मामा जी के गांव में नीम के पेड़ पर चढ़ाकर एक दोस्त से तरह तरह के मन्त्र सीखना और इंतजार करना कि गांव में किसी को बिच्छु काटे.जब एक हमउम्र किशोरी को बिच्छु ने कांटा तो उसके सामने जाकर मंत्र ही भूल गया.उस दिन ईश्वर ने लाज राखी.मेरी प्रार्थना से वो ठीक हो गई.इस मंच को धन्यवाद,जिसने बचपन की यादें ताजा करने का मौका दिया.बचपन के वो दिन अब वापस तो नहीं लौट सकते हैं,परन्तु हम उन्हें याद तो कर सकते हैं.
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आलेख और प्रस्तुति=सद्गुरु श्री राजेंद्र ऋषि जी,प्रकृति पुरुष सिद्धपीठ आश्रम,ग्राम-घमहापुर,पोस्ट-कन्द्वा,जिला-वाराणसी.पिन-२२११०६.
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