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सोचता हूँ मैं भी कोई कविता लिखूं
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सोचता हूँ मैं भी कोई कविता लिखूं
पर देखता हूँ जब यथार्थ
समझ नहीं पाता हूँ क्या लिंखूं
सोचता हूँ मैं भी कोई कविता लिखूं..
बैठ गया गंगा किनारे
कागज कलम हाथ में लेकर
ठिठक गई कलम मेरी
गंदे गंगाजल को देखकर
गंगाजल को निर्मल कर दे कोई
तो मैं उसपे कोई कविता लिखूं ..
पढता हूँ मैं रोजाना अख़बार
सोचता हूँ कोई ऐसा मिले समाचार
कि उसपे कोई कविता लिखूं
बलात्कार के समाचार पढ़कर
ठिठक गई कलम मेरी
भरी भीड़ के बीच चौराहे पर
बलात्कारियों को फांसी मिले
तो मैं उसपे कोई कविता लिखूं..
सोचता हूँ दोस्तों पर कुछ लिखूं
दोस्ती के मैसेज आते हैं मोबाइल पर
रूपये दे रंगीन बातें करने का ऑफर
ऐसे जेबकतरों के बारे में जानकर
ठिठक गई कलम मेरी
कोई दोस्त सामने आके आवाज दे
तो मैं उसपे कोई कविता लिखूं..
सोचता हूँ देश पर मैं कोई कविता लिखूं
पर देश का खजाना खाली है ये जानकर
ठिठक गई कलम मेरी
कोई भर दे देश का खजाना
सोने की चिड़िया हमें सारी दुनिया कहे
तो खुश होकर मैं कोई कविता लिखूं ..
चले जाता हूँ मैं छत पर
कविता लिखने के लिए
भूखे नंगे बच्चों को जब देखा
कूड़ा बीनते हुए पेट पालने के लिए
ठिठक गई कलम मेरी
कोई इन्हे रोटी और कपडा दे
भेजे स्कूल पढ़ने के लिए
तो मैं उसपे कोई कविता लिखूं..
साथ देता कोई नहीं
सच बोलने पर यहाँ
झूठ ही झूठ देखता हूँ
जाता हूँ मैं जहाँ
ढूंढता हूँ एक तो कोई हरिश्चंद्र मिले
जिसपे मैं कोई कविता लिखूं ..
थक जाता हूँ और हार जाता हूँ
जब झूठ फरेब से भरे इस संसार में
आँखे बंदकर देखता हूँ आसमान में
और चिल्लाता हूँ-
ऐ पिता..अपना नूर दिखा
एक तू ही सच्चा है..सामने आ
तुझपे मैं एक शाश्वत कविता लिखूं..
सोचता हूँ मैं भी कोई कविता लिखूं
पर देखता हूँ जब यथार्थ
समझ नहीं पाता हूँ क्या लिंखूं
सोचता हूँ मैं भी कोई कविता लिखूं..
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कविता और प्रस्तुति=सद्गुरु श्री राजेंद्र ऋषि जी,प्रकृति पुरुष सिद्धपीठ आश्रम,ग्राम-घमहापुर,पोस्ट-कन्द्वा,जिला-वाराणसी.पिन-२२११०६.
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