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कल के गुरु व आज के शिक्षक में फर्क-शिक्षक दिवस पर
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गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुर्साक्षात् परब्रह्म, तस्मै श्रीगुरवे नमः।।
संस्कृत के इस श्लोक में गुरु को प्रणाम किया गया है,परन्तु किस गुरु को ?इस प्रश्न का उत्तर भी इसी श्लोक में है,वो गुरु ब्रह्मा के सदृश हो अर्थात जैसे ब्रह्मा का कार्य सृष्टि करना है,ठीक वैसे ही गुरु का कार्य भी शिष्य का निर्माण करना है.संत कबीर साहब ने गुरु के इसी कार्य के बारे में कहा है कि-गुरु कुम्हार सिष कुम्भ है गढ़-गढ़ काढ़े खोट । अन्तर हाथ सहार दे बाहर मारै चोट ।।ज्ञान रूपी अन्न खिलाकर शिष्य का पालन-पोषण करना और उसका चरित्र निर्माण करना गुरु का दूसरा कार्य है,इसीलिए गुरु को विष्णु के सदृश कहा गया है.शिष्य की बुराइयों का संहार करने के कारण गुरु को महेश्वर या शंकर का रूप माना गया है.गुरु साक्षात् परब्रह्म के समान हैं,क्योंकि परब्रह्म का वो अनुभव कराने में समर्थ हैं.ऐसे गुरु के लिए कबीर साहब कहते हैं कि-गुरु गोविंद दोउं खड़ें, काको लागू पाय ।बलिहारी गुरु आपनो, जो गोविंद दियो बताय ।।
ऐसे ही गुरु को सद्गुरु की संज्ञा दी गई है.कबीर साहब कहते हैं कि जबतक सद्गुरु न मिल जाएँ,तबतक जीवन में गुरु की खोज जारी रखनी चाहिए- गुरु करो एक सौ पांचा, जब तक गुरु मिलें नहीं सांचा ।विद्या और अपने अनुभव का दान देकर शिष्य के चरित्र व योग्यता का निर्माण करने वाले को गुरु कहा गया है.प्राचीन काल में गुरु सांसारिक विद्या के ज्ञान के साथ साथ आध्यात्मिक अनुभव भी प्रदान करते थे,ताकि शिष्य अपने जीवन में पूर्णता को प्राप्त कर सके.महर्षि विश्वामित्र ने राम व लक्ष्मण का,सांदीपनी ऋषि ने कृष्ण का,महर्षि धौम्य ने आरुणि का.द्रोणाचार्य ने अर्जुन का और आचार्य चाणक्य ने चन्द्रगुप्त का ऐसा उत्कृष्ट चरित्र निर्माण किया कि उन्होंने अपने महान कार्यों से इतिहास रच दिया.आजकल तो विद्या दान देने वाले सर कहें जाते हैं.वो दक्षिणा के रूप में एक बड़ी रकम लेकर शिष्यों के सर में किताबी ज्ञान भर देने भर से ही मतलब रखते हैं.
प्राचीन काल के तपस्वी गुरु और आज के रुपए के पीछे भागने वाले सर या मैडम में जमीन आकाश का अंतर हैं.इन्हे ब्रह्मा,विष्णु,महेश और परब्रह्म के सदृश नहीं कहा जा सकता है,और इनके लिए ये भी नहीं कहा जा सकता है कि-गुरु गोविंद दोउं खड़ें, काको लागू पाय।बलिहारी गुरु आपनो, जो गोविंद दियो बताय।।केवल सांसारिकता भर से ही मतलब रखने वाले आधुनिक शिक्षकों के बारे में संत कबीर साहब कहते हैं कि-जग गुरुआ गति कही न जावे ।जो कछु कहूँ तो मारन धावे ।।आज के शिक्षकों की कर्तव्यनिष्ठां पर आइये जरा विचार करें.सरकारी स्कूलों के अधिकतर शिक्षक अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में न पढ़ाकर प्राइवेट अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ाते हैं,क्योंकि इन्हे खुद सरकारी स्कूलों की पढ़ाई पर विश्वास नहीं है.पढ़ाने के मामले में ये स्वयं कर्तव्यनिष्ठ नहीं है,इसीलिए इन्हे अच्छी तरह से मालूम है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ाई कैसी होती है ?
गली गली में निजी स्कूलों का खुलना,उनमे दाखिले के लिए आम जनता की भागदौड़ और उनका बड़ी सफलता से चलना इस बात का सूचक है कि सरकारी स्कूलों की हालत भवन से लेकर पढ़ाई तक हर मामले में कितनी जर्जर हो चुकी है.सरकारी स्कूलों में वेतन के रूप में हर माह एक बड़ी रकम लेने वाले और ताल तिकड़म से सर्वश्रेष्ठ शिक्षक का मेडल तक पा लेने वाले शिक्षक और शिक्षा को महज कमाई का जरिया बना आमजनता को लूटने वाले नीजि स्कूल आज कितने राम,लक्ष्मण,कृष्ण,आरुणि,अर्जुन,चन्द्रगुप्त,भगत सिंह और गांधी जैसे महापुरुष पैदा कर रहे हैं ?ये तो बच्चों को स्वार्थी और संस्कारहीन बना रहे हैं.आज के बच्चे न तो अपने माता-पिता का और न ही सामाजिक कायदे कानून का आदर कर रहे हैं.अपनी संस्कारहीनता से वो परिवार से लेकर समाज तक के लिए सिरदर्द बनते जा रहे हैं.आज के शिक्षक गुरु कैसे बनें,अब इस बात पर चिंतन होना चाहिए.
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आलेख और प्रस्तुति=सद्गुरु श्री राजेंद्र ऋषि जी,प्रकृति पुरुष सिद्धपीठ आश्रम,ग्राम-घमहापुर,पोस्ट-कन्द्वा,जिला-वाराणसी.पिन-२२११०६.
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