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ले लो-२ दुआएं माँ बाप की, सर से उतरेगी गठरी पाप की

सद्गुरुजी
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ले लो-२ दुआएं माँ बाप की,सर से उतरेगी गठरी पाप की
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गोद में माँ की आँख खुली
जग देखा बाप के कंधे चढ़ के
सेवा बड़ी न होगी कोई
इन दोनों की सेवा से बढ़के
ले लो ले लो दुआएं माँ बाप की
सर से उतरेगी गठरी पाप की

गीतकार राजेंद्र कृष्ण का लिखा हुआ ये गीत फिल्म ‘माँ बाप’ का है.रफ़ी साहब ने इसे अपनी मधुर आवाज में गाया हुआ है.रेडियो पर ये गीत सुना तो माता-पिता पर कुछ लिखने की इच्छा मन में पैदा हुई.संयोग से इन दिनों पितृ पक्ष भी जारी है.अपने माता-पिता तथा इस धरती के सभी पूर्वजों,सदात्माओं और ऋषि मुनियों को सादर नमन करते हुए यह भावपूर्ण रचना उन्हें समर्पित करता हूँ.
दुनिया के सभी माँ बाप अपने बच्चों को फलने फूलने और हमेशा खुश रहने का आशीर्वाद देना चाहते हैं.वो अपना पूरा जीवन बच्चों की सेवा में खपा देते हैं.इस उम्मीद में माँ बाप बच्चे का हाथ हाथ पकड़ के चलना सिखातें है कि एक दिन बुढ़ापे में ये मेरा हाथ पकड़कर सहारा देगा,परन्तु आज के बच्चे बुढ़ापे में माँ बाप का हाथ छुड़ाकर उन्हें कहींपर घर से बेघर कर रहे हैं तो कहींपर उन्हें किसी आश्रम या वृद्धाश्रम में भेज रहे हैं.बहुत से लोग बचपन में माँ बाप के द्वारा की गई त्याग और सेवा को भूल चुके हैं.उन्हें तो बस बूढे मां बाप का चिड़चिड़ाना,उनकी झिड़कियां और उनकी ख़राब लगने वाली सलाह.याद रहती है.कोई अपने बूढ़े माँ बाप की खांसी से तो कोई उनके दवाईयों के खर्च से परेशान है.
बचपन से लेकर जवानी तक जिस माँ बाप से पैसा लेता रहा,उन्हें अब बुढ़पे में वो कुछ देना नहीं चाहता है.शराब पीने के लिए और पत्नी बच्चों के साथ घूमने फिरने के लिए पैसा है,परन्तु माँ बाप का टूटा चश्मा बनवाने के लिए और उन्हें तीर्थाटन कराने के लिए पैसे नहीं हैं.कहते हैं कि माँ बाप को दो बार बहुत कष्ट होता है,जब लड़की घर छोड़ती है तब और जब लड़का मुंह मोड़ता है तब.माँ बाप को बोझ समझने वालों को ये नहीं भूलना चाहिए कि एकदिन वो भी माँ बाप बनेगे और बूढ़े भी होँगे.उनके बच्चे भी उनके साथ वही बुरा बर्ताव करेंगे,जो उन्होंने अपने माँ बाप के साथ किया है.जिसने अपने माँ बाप की उनके जीते जी सेवा नहीं की,वो उनके मरने के बाद चाहे कितना भी श्राद्ध और तर्पण कर ले,वो सब महज ढोंग और पाखंड ही है,उससे उसका कोई भला नहीं होने वाला है.माता पिताजी से संबंधित मेरे कई सुखद निजी अनुभव हैं.
इस समय शारीरिक रूप से पिताजी का तो नहीं,परन्तु माताजी का सम्पूर्ण आशीर्वाद मुझे और मेरे परिवार को प्राप्त है.माँ की गोद में खेलते खाते हुए बड़ा होना अच्छी तरह से याद है.बचपन में माँ मुझे बहला फुसलाकर खिलाती थीं और रुठने पर तरह तरह से मनातीं थीं.मैं खेलते कूदते हुए एक रोटी खाने में एक घंटा लगा देता था,पर माँ मुझे कहानी सुनकर बहलाते हुए और हँसते मुस्कुराते हुए खिलाकर ही मेरे पास से हटती थीं.मुझे अब भी याद है गिलास में दूध लेकर मेरे पीछे वो भागती थीं.कितना चिरौरी मिनती करती थीं और खिलौने दिलाने के ढेर से वादे भी.मैं पूरे घर के कई चक्कर उन्हें दौड़ाता था.वो दौड़ते दौड़ते हांफने लगती थीं,लेकिन दूध पिलाकर ही मेरा पीछा छोड़ती थीं.
उन मधुर और अमिट स्मृतियों को मन में सहेजे हुए मैं रोज माँ से पूछता हूँ-माँ आपने खाना खा लिया.ये पूछकर मन को बहुत ख़ुशी होती है.परन्तु जब मेरी पत्नी से उनकी कहा सुनी हो जाती है और वो नाराज होकर खाना नहीं खाती हैं तो मैं उन्हें लाख कोशिश करके भी मना नहीं पाता हूँ.अपनी बेबशी पर आँखों में आंसू आ जाते हैं.उस समय मैं अकेले में बैठकर देरतक यही सोचता हूँ कि काश मैं माँ होता तो माँ को आसानी से रुठने से मना लेता.मुझे उस वक्त बेहद अफ़सोस होता है कि मैं माँ नहीं हूँ..
पिताजी से बहुत डर लगता था.वो बहुत अनुशासनप्रिय,कर्मठ और बहुत ईमानदार सैनिक अधिकारी थे.सन १९६२,१९६५ और १९७१ की लड़ाई में वो अपना सर्वोत्तम योगदान दिए थे.वो बाहर से बहुत कठोर लगते थे,परन्तु भीतर से हम सबसे बहुत प्रेम करते थे.एक तरफ उनका मिलेट्री का रुल याद आता है तो दूसरी तरफ जवान और परेशान बेटे के लिए उनका बहुत बेचैनी से रातभर कमरे के बाहर टहलना भी याद आता है.वो जबतक जीवित रहे अपने देश और परिवार की पूरी मेहनत और ईमानदारी से सेवा करते रहे.मेरे भीतर आज जो अनुशासन है,ये उन्ही की देन है.
उनके समझाने का तरीका बहुत कठोर और अनूठा था.मुझे याद है कि जंगल वाली एक जगह पर मिलेट्री क्वाटर में टॉयलेट जाते समय उसमे पानी टंकी में पानी भरना पड़ता था.मैं पानी भरने से बचता था.उन्होंने एक दिन मुझे बुलाकर पूछा-जब टॉयलेट जाते हो तो पानी से भरी हुई टंकी कैसी लगती है ? मैंने कहा-बहुत अच्छी.उन्होंने फिर पूछा-और खाली टंकी कैसी लगती है ? मैंने कहा-बहुत बुरी.उन्होंने मुझे आदेश दिया-आज से जो तुम्हे जो चीज बहुत अच्छी लगती है,वही सबको प्रदान करोगे.इस नियम के पालन में कोई कोताही नहीं होनी चाहिए.उस दिन के बाद टॉयलेट की टंकी में पानी भरने की आदत पड़ गई.इस समय चल रहे श्राद्ध पक्ष में अपने स्वर्गीय पिताजी को याद करते हुए पूरी श्रद्धा के साथ बस यही कहूँगा कि-
सबकुछ दीन्हा आपने,भेंट करूँ क्या नाथ !
नमस्कार की भेंट लो,जोडूं मैं दोनों हाथ !!

मुझे ये सोचकर बहुत ख़ुशी होती है कि मुझे अपने माता पिताजी की सेवा करने का खूब अवसर मिला.मैंने उनका आशीर्वाद लिया.एक बार अपने जीवन के बहुत खराब पीरियड में मैं सालभर तक प्रतिदिन नियमित रूप से अपने माता पिताजी के चरण छूता रहा.उनके दुआ और आशीर्वाद से मेरा जीवन ही बदल गया और संघर्ष का समय सफलता और प्रसिद्धि में बदल गया.अपने जीवन की सुखद अनुभूति के आधार पर मैं सभी पाठकों को यही सन्देश दूंगा कि-
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मात-पिता के चरण छुए जो
चार धाम तीरथ फल पाए
जो आशीष वो दिल से दें
भगवान से भी टाली ना जाए
ले लो ले लो दुआएं माँ बाप की
सर से उतरेगी गठरी पाप की

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आलेख और प्रस्तुति=सद्गुरु श्री राजेंद्र ऋषि जी,प्रकृति पुरुष सिद्धपीठ आश्रम,ग्राम-घमहापुर,पोस्ट-कन्द्वा,जिला-वाराणसी.पिन-२२११०६.
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