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एक दिया जले साधु के भीतर ‘बिन बाती बीन तेल’-कविता

सद्गुरुजी
सद्गुरुजी
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एक दिया जले साधु के भीतर ‘बिन बाती बीन तेल’……
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चिरागो के लगे है मेले,
ले दूसरों की बाती और तेल
एक दिया जले साधु के भीतर
‘बिन बाती बीन तेल’
बिन बाती बिन तेल जलता,
साधुता ऐसा एक दीया
दूसरों की तेल और बाती का,
जिसने सहारा लिया
असत्‍य है और माया के सिवा,
क्या उसे कुछ मिला
एकांत खोजता साधु,
असंगता में जिसे सत्य मिला
सामाजिक संबंध सारे क्या हैं,
असाधुता का संसार
भीड़ में खोज रहा जहाँ,
हर आदमी जीवन का सार
संसारी के साथ कल्‍पना की भीड़,
एकांत में रह कर
आई और गई हैं हमेशा से ही,
कुछ न कुछ ठग कर
असंग साधु की साधुता का,
किसी से भी संबंध नहीं
अकेले होने का ले रहा मजा,
उसकी हैं सम्पदा यही
सत्‍य दिख गया उसे,
अब क्या भीड़ क्या अकेलापन
सुरति निरति जग गई,
बाहर से गूंगा और बहरापन
सपने देखता हुआ
स्वर्ग और नरक के,संसारी गया
साधु कहीं गया नहीं,
न ही पहना उसने चोला नया
साधुता है आत्मा
और असाधुता ये दिख रहा धाम
साधुता है शांति-विश्राम,
असाधुता है चलने का नाम
(दिवाली की सभी ब्लॉगर मित्रों और पाठकों को बधाई)
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कविता की रचना और प्रस्तुति=सद्गुरु श्री राजेंद्र ऋषि जी,प्रकृति पुरुष सिद्धपीठ आश्रम,ग्राम-घमहापुर,पोस्ट-कन्द्वा,जिला-वाराणसी.पिन-२२११०६.
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