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सदा आनन्द रहे एही द्वारे, मोहन खेले होरी हो… होली पर्व

सद्गुरुजी
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सदा आनन्द रहे एही द्वारे, मोहन खेले होरी हो… होली पर्व
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सदा आनन्द रहे एही द्वारे,
मोहन खेले होरी हो.
एक ओरि खेले कुँवर कन्हईआ,
एक ओरि राधा गोरी हो.
सदा आन्नद रहे एही द्वारे,
मोहन खेले होरी हो..

होली का ये पारम्परिक गीत मुझे बचपन में बहुत पसंद था. गांव के युवकों का झुण्ड ढोलक झाल लेके ये सुहावना गीत गाते हुए और आसमान में रंग अबीर उड़ाते हुए जब किसी घर के द्वार पर पहुँचता था तो बहुएं झट से घूँघट काढ़ घर के भीतर भाग जाती थीं. घर का दरवाजा बंद हो जाता था और घर की बहुएं बंद दरवाजे की ओट में छुपकर हँसते मुस्कुराते हुए ये होरी गीत सुनती थीं और होली के आनंद में मस्त नाचते गाते बजाते युवकों को दरवाजे के फाँफर से चोरी छुपे निहारती थीं. राधा कृष्ण की वंदना से होली की हुड़दंग का शुभारम्भ होता था और फिर जल्द ही ये खुलेपन और छेड़छाड़ में तब्दील हो जाता था, परन्तु उसमे आज की तरह से नंगई, फूहड़पन और अश्लीलता नहीं होती थी. गांव की नई नवेली भाभियों से होली के बहाने छेड़छाड़ करने की चाह युवकों में होती थी, परन्तु कोई किसी के साथ अभद्रता और जबरदस्ती नहीं करता था, जैसा कि आजकल गांव और शहर दोनों ही जगह देखने को मिलता है. होली के हुड़दंगी बंद द्वार खटकाते हुए गाते थे..
भउजी खोलऽ ना केंवाड़,
भउजी खोलऽ ना केंवाड़.
दुअरा पे अईले देवरवा,
भउजी खोलऽ ना केंवाड़.

नै नवेली दुल्हनें बंद किवार नहीं खोलती थीं. उन्हें भय रहता था कि कहीं गांव के युवक रंग गुलाल से सराबोर न कर दें. घर के बुजुर्ग भी उन्हें पहले ही दरवाजा न खोलने कि ताकीद कर देते थे. होली के हुड़दंगियों का सामना घर के बाहर बुजुर्ग ही रंग गुलाल लगवाकर करते थे. उस समय गांव के अधिकतर मकान कच्चे होते थे. पक्के मकान इक्का दुक्का ही थे. उसकी छत से महिलाएं बाल्टी में रंग घोल होली के गवैयों पर चोरी चुपके से उड़ेलती थीं. मेरे जैसे छोटे बच्चों के ऊपर रंग के छींटे पड़ते थे तो हमलोग हँसते खिलखिलाते हुए इधर उधर भागते थे. उम्रदराज भाभियाँ घर के भीतर भागने की बजाय होलियारों का सामना करतीं थीं और उनके अपशब्दों और गाली-गलौज का एक से बढ़कर एक जबाब भी देती थीं, जिसे सुनकर हमें शर्म तो आती थी, परन्तु देवर भाभियों की नोकझोंक अच्छी भी लगती थी. पशुओं की सानी-पानी करने में या खेत के कामकाज करने में व्यस्त प्रौढ़ उम्र की भाभियाँ फगुआ गीत गाते हुए होलियारों के पास आने पर हंसी-मजाक व गाली-गलौंज करते हुए गोबर और कीचड़ से भी होली खेल लेती थीं. उस समय का ये फगुआ गीत मुझे याद है.
धनि-धनि ए सिया रउरी भाग, राम वर पायो.
लिखि लिखि चिठिया नारद मुनि भेजे, विश्वामित्र पिठायो.
साजि बरात चले राजा दशरथ,
जनकपुरी चलि आयो, राम वर पायो.
वनविरदा से बांस मंगायो, आनन माड़ो छवायो.
कंचन कलस धरतऽ बेदिअन परऽ,
जहाँ मानिक दीप जराए, राम वर पाए.
भए व्याह देव सब हरषत, सखि सब मंगल गाए,
राजा दशरथ द्रव्य लुटाए, राम वर पाए.
धनि -धनि ए सिया रउरी भाग, राम वर पायो.

गांव के मानिंद और पैसे वाले लोग अपने घर पर आने वाले होलियारों का स्वागत मीठा, भांग और पान से करते थे. उनके घर के आगे कुछ ज्यादा ही जोश से ढोलक और झाल बजते थे और देरतक गाना बजाना चलता था. दोपहर के समय गोबर, कीचड़ और रंग का प्रयोग बन्द करके सभी लोग नहा-धोकर अपने घर पर गुझिया, नमकीन, मालपूआ, पूड़ी-सब्जी और खीर भरपेट खाते थे. उसके बाद गांव के ज्यादारतर लोग जोगीरा सुनने के लिए ग्राम प्रधान के घर जा पहुँचते थे. मुझे बचपन में जोगीरा बहुत पसंद था. गांव के गवैये युवकों द्वारा होली पर्व पर किया जाने वाला नाच गाने का यह एक विशेष प्रोग्राम हुआ करता था. एक लड़के को साड़ी पहनाकर और खूब सजाधजा कर सुन्दर स्त्री का वेश धारण करा नचाया जाता था. एक व्यक्ति जोगीरा यानि एक तरह का दोहा बोलता था और उसके साथी कूद-कूद कर नाचते गाते हुए जोर जोर से जोगीरा सर रर… रर… रर…बोलते थे. बीच बीच में वो वाह भाई वाह… वाह खेलाड़ी वाह… का ठेका लगता रहते थे. कुछ दोहे मुझे याद हैं.
जोगीरा सर रर… रर… रर…
फागुन के महीना आइल ऊड़े रंग गुलाल,
एक ही रंग में सभै रंगाइल लोगवा भइल बेहाल.
जोगीरा सर रर… रर… रर…
एक त चीकन पुरइन पतई, दूसर चीकन घीव,
तीसर चीकन गोरी के जोबना, देखि के ललचे जीव.
जोगीरा सर रर… रर… रर…
बनवा बीच कोइलिया बोले, पपिहा नदी के तीर,
अंगना में भ‍उज‍इया डोले, ज‍इसे झलके नीर.
जोगीरा सर रर… रर… रर…
कै हाथ के धोती पहना कै हाथ लपेटा,
कै घाट का पानी पीता, कै बाप का बेटा?
जोगीरा सर रर… रर… रर…
सात हाथ का धोती पेन्हा, पाँच हाथ लपेटा,
चार पान का बीड़ा खाया, एक बाप का बेटा.
जोगीरा सर रर… रर… रर…
कहवाँ से आवेला सिलिया,
कहवाँ के लोढ़ा पुरान हो?
जोगीरा सर रर… रर… रर…
सीतापुर से आवेला सिलिया,
रामपुर के लोढ़ा पुरान हो.
जोगीरा सर रर… रर… रर…

जोगीरा के अंतिम दोहे में सीतापुर की जगह गांव के किसी मानिंद व्यक्ति की पत्नी के मायके का नाम लिया जाता था और रामपुर की जगह अपने गांव का नाम लिया जाता था. सबलोग हंसी ठहाकों के बीच अंदाजा लगाते थे कि किसका मजाक उड़ाया जा रहा है. सालभर भले ही गांव के लोग एक दूसरे से बैर भाव रखते थे और दुश्मनी निभाते थे, परन्तु होली के दिन जब एक दूसरे से गले मिलते थे तो सब भूल जाते थे. गांव का कोई भी बुजुर्ग हमारे घर आता था तो घर के लोग अपनों से बड़ों का पैर छूकर आशीर्वाद लेने को तुरंत कहते थे और सबका आशीर्वाद लेना बहुत अच्छा लगता था. गांवों में हुई चकबंदी ने जहाँ एक ओर किसान की इधर उधर विखरी जमीन एक जगह कर उसे लाभ पहुँचाया, वहीँ दूसरी तरफ किसानों के बीच आपस में नफरत और मुकदमे का बीज भी बोया. यही वजह है कि आज गाँवो की होली अब पहले जैसी नहीं रही. आज गाँवो और शहरों में अश्लील और फूहड़ होली गीत बजते हैं. परिवार के साथ जिन्हे आप देख सुन भी नहीं सकते हैं. भोजपुरी लोकगीतों के प्रसिद्द गायक भरत शर्मा ब्यास जी का गाया गया एक होलीगीत मुझे बहुत पसंद है.
लगवालऽ अबीर मलवालऽ गुलाल
फागुन में गोरिया फायदा करी.
बजवालऽ ढोलक पिटवालऽ तू झाल
फागुन में गोरिया फायदा करी.
लगवालऽ अबीर मलवालऽ गुलाल
फागुन में गोरिया फायदा करी..

शहरों में तो होली के मौके पर अभद्रता और नंगई अब इतनी अधिक बढ़ गई है कि अधिकतर लोग अपने घरों के खिड़की दरवाजे उस दिन बंद कर लेते हैं और अपने घरों में ही होली खेलते हैं. सड़कों पर सुबह से लेकर दोपहर तक कर्फ्यू सा लग जाता है. लिपे-पुते चेहरों वाले..नशे में धुत..एक दूसरे के कपडे फाडे हुए और किसी जरुरी काम से निकले राहगीरों को परेशान करते..अश्लीलता और अभद्रता का भौंडा प्रदर्शन करते कुछ युवकों का झुण्ड भर ही दीखता है, जिन्हे देखते ही घर की बहू बेटियां सहमकर छिप जाती हैं. त्यौहार के नाम पर विवश पुलिस और प्रशासन भी इस दिन मूकदर्शक मात्र बना रहता है. सभी ब्लॉगर मित्रों और पाठक मित्रों को होली की बहुत बहुत बधाई.आदरणीय जागरण जंक्शन परिवार के सभी सदयों को होली की बधाई.आपके और आपके समस्त परिवार के लिए होली मंगलमय हो.होली के रंगारंग पावन-पर्व पर सभी को हार्दिक बधाई. मित्रों..होली का मतलब है प्रेम..और ये प्रेम यदि ईश्वर से हो जाये तो कहना ही क्या..इसी ईश्वरीय प्रेम को दर्शाते संत मीराबाई के इस आध्यात्मिक होली गीत से लेख का समापन कर रहा हूँ.
फागुन के दिन चार होली खेल मना रे.
बिन करताल पखावज बाजै अणहदकी झणकार रे.
बिन सुर राग छतीसूं गावै रोम रोम रणकार रे.
सील संतोखकी केसर घोली प्रेम प्रीत पिचकार रे,
उड़त गुलाल लाल भयो अंबर, बरसत रंग अपार रे.
घटके सब पट खोल दिये हैं लोकलाज सब डार रे,
मीराके प्रभु गिरधर नागर चरणकंवल बलिहार रे.

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आलेख और प्रस्तुति=सद्गुरु श्री राजेंद्र ऋषि जी,प्रकृति पुरुष सिद्धपीठ आश्रम,ग्राम-घमहापुर,पोस्ट-कन्द्वा,जिला-वाराणसी.पिन-२२११०६.
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