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बचपन व बुढ़ापे का अघोरपन हमारा सहज स्वरुप-संस्मरण

सद्गुरुजी
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बचपन व बुढ़ापे का अघोरपन हमारा सहज स्वरुप-संस्मरण
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त्वमेव माता च पिता त्वमेव
त्वमेव बन्धुश्चा सखा त्वमेव
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव
त्वमेव सर्वं मम देव देव

मेरी बीमार माताजी बार बार अपने भाई और भाभी का नाम ले रही थीं, संसार से जाने से पहले उन्हें एक बार देख लेना चाह रही थीं. मैंने कई रोज पहले ही माताजी की बीमारी की सूचना उन्हें दे दी थी. रामनवमी से एक दिन पहले माताजी बहुत बेचैन थीं. कभी अपने स्वर्गीय पिताजी को याद कर रही थीं तो कभी माताजी को. अपने नैहर से उन्हें आज भी सबसे ज्यादा लगाव है. मैं उन्हें समझाने की कोशिश कर रहा था कि अब आप सिर्फ भगवान् को याद करें. वो न सिर्फ आपके बल्कि आपके माता-पिता, भाई-भौजाई के भी वास्तविक पिता हैं. अब वही आपके असली रिश्तेदार और मित्र हैं. जिस आत्मज्ञान से शांति मिलेगी और जिस आध्यात्मिक दौलत से आवागमन के बंधन से मुक्ति मिलेगी, उसके प्रदाता भी भगवान् ही हैं. वो सर्वव्यापी प्रभु आपसे दूर नहीं, बल्कि आपके अत्यंत समीप हैं. वो आपके ह्रदय में विराजमान हैं. अतः जीवन के इस आखिरी पड़ाव में अब आप उन्हें निरंतर याद करें. माताजी मेरी बातों को अनसुना कर दीं. उन्हें मेरी बातों को सुनने में कोई दिलचस्पी नहीं थी. नैहर वालों ने उनके मन के भीतर के सारे नेह को हर लिया था. वो इस मामले में एकदम से निर्धन हो चुकी थीं. भगवान से प्रेम करने के लिए नेह रूपी दौलत जरुरी है, जिसे हमलोग रिश्तेदारों, मिलने-जुलने वाले मित्रों और सांसारिक पदार्थों के प्रति लुटाकर जीवन की अंतिम बेला में बिलकुल कंगाल हो जाते हैं. जीवन के शेष बचे समय में अब सिर्फ भगवान से नेह लगाने के लिए मैं माताजी को कुछ और समझाना चाह रहा था, परन्तु तभी अचानक माताजी के गले से अजीब सी आवाज आई, उनका मुंह टेढ़ा हो गया, गर्दन के साथ साथ पूरा शरीर अकड़ गया. वो झटपटाते हुए देह छोड़ने के लिए व्याकुल हो गईं. मेरी पत्नी और मासूम बेटी रोने लगीं. मैं घबराते हुए तुरंत उनका बीपी चेक किया, जो बहुत अधिक बढ़ा हुआ था. उन्हें फ़ौरन बीपी की दवा दिया और उन्हें देखने वाले डॉक्टर साहब को फोन कर बुलाया. मैं माताजी को बार बार यही समझाता रहा कि आप घबराएं और डरे मत..मन ही मन राम नाम का जाप करती रहें. आसपास के हमारे पडोसी लोग जुटने शुरू हो गए. अधिकतर लोग गंगाजल और तुलसी-पत्र माताजी के मुख में डालने का सुझाव देने लगे. हम सभी लोग बहुत घबराये हुए थे और यही सोच रहे थे कि माताजी के जीवन की अंतिम घडी अब नजदीक आ गई है, परन्तु सौभाग्य से ऐसा कुछ हुआ नहीं. डॉक्टर साहब के आने तक माताजी सामान्य हो गईं. हम सबने रहत की साँस ली और भगवान को धन्यवाद दिया.
जिन के हृदय श्री राम बसे, उन और को नाम लियो न लियो
कोई मांगे कंचन सी काया. कोई मांग रहा प्रभु से माया
कोई पुण्य करे, कोई दान करे. कोई दान का रोज़ बखान करे
जिन कन्या धन को दान दियो. उन और को दान दियो न दियो
जिन के हृदय श्री राम बसे, उन और को नाम लियो न लियो

रामनवमी के दिन प्रातःकाल मुकेश जी की मधुर आवाज में अपना ये प्रिय भजन सुन रहा था, तभी एक शिष्य ने आकर कहा-गुरुदेव! यज्ञ के लिए हवन सामग्री और अग्नि तैयार है. चलिए यज्ञ कीजिये. आश्रम के कमरे में गया तो देखा कि कई थालियों में विभिन्न तरह की हवन सामग्री रखी हुई है और हवनकुंड में अग्नि धधक रही है. मैं हवनकुंड के पास बिछे हुए आसन पर बैठ गया. मेरी नन्ही बिटिया पहले से ही वहां विराजमान थी और आसन पर बैठकर भगवान को भोग लगाने के लिए बड़ी थाली में रखी पूड़ी, सब्जी, हलुआ, और चने की घुघुरी को एकटक निहारे जा रही थी. आँगन में खड़ी मेरी धर्मपत्नी परदे की ओट से उसे घूरते हुए आवाज दे रही थीं-चल आ! तुझे नहला दूँ. थोड़ी देर बाद सब बच्चे आएंगे. उनके साथ बैठ के प्रसाद ग्रहण करना. बिना नहाये धोये हवन के पास बैठी है. कोई चीज छुई तो बहुत मारूंगी..
मुझे देख बिटिया खुश होते हुए बोली- पापा! मैं अच्छी लड़की हूँ. मैंने कोई चीज छुआ नहीं, पर वो चूहा गन्दा है, जो बार बार आके कुछ न कुछ खा जाता है. वो नहाया भी नहीं है, पर मम्मी उसे रोकती नहीं है. उसे देख के मम्मी हाथ जोड़ के कहती है-गणेशजी की सवारी आई है..उसे भगाना मत! बिटिया मेरी तरफ देख मुझसे सवाल पूछती है-पापा! चूहा तो बहुत गन्दा है. वो नहाता नहीं है और लैटरिंग में भी घुस जाता है. मैं तो रोज नहाती हूँ और बहुत अच्छी लड़की हूँ..
अच्छा ठीक है..अब तुम जाओ और मुझे हवन करने दो-उसे गोद में लेते हुए मैं बोला.
नहीं..मैं नहीं जाउंगी..मैं यहाँ बैठूंगी और हाथ जोड़ के प्रार्थना करूंगी-वो हाथ जोड़ते हुए बोली.
मैं हँसते हुए पूछा- बिटिया तुम भगवान से क्या मांगोगी?
बिटिया डरते हुए आँगन की ओर देखी, जहाँपर अब उसकी मम्मी नहीं थीं. वो अपने कामकाज में व्यस्त हो गईं थीं. मेरी तरफ मुंह कर वो हँसते हुए बोली- भगवान से हलुआ और चने मांगूगी.
बस इतनी छोटी सी चाह..बिटिया तुम तो इस समय साक्षात माँ दुर्गा हो..चलो पहले तुम्हे मैं हलुआ और चने खिलाऊंगा, फिर हवन करूँगा..-यह कहकर मैं अपने हाथ में थोड़ा हलुआ और थोड़े से चने ले लिया और बिटिया को गोद में लेकर आश्रम के कमरे से बाहर निकल आया. बाहर कई शिष्य बैठे थे. बिटिया को जमीन पर खड़ा कर दिया और हलुआ व चने से भरा अपना दाहिना हाथ उसके मुंह के सामने खोलते हुए धीमे स्वर में बोला- ले जल्दी से खा ले..ख़ुशी से चहकते हुए वो अपने नन्हे हाथों से हलुआ चने उठाकर खा गई.
मैंने पूछा- और खायेगी..
उसने सिर हिलाते हुए कहा- नहीं..अब नहाने जाउंगी..फिर सब बच्चों के साथ बैठ के खाऊँगी न..
वो हँसते खिलखिलाते हुए घर के भीतर की ओर भाग गई और मैं नलके पर हाथ धोते हुए सोचने लगा- क्या एकदिन कन्यादान करना ही सबसे बड़ा दान है? फिर मैंने ही उत्तर दिया- नहीं..बिटिया की जरुरी इच्छाओं को उसके बचपन से ही पूरी करना कन्यादान से भी बड़ा दान है, जिसके प्रति आज भी हमारे समाज के लोग जागरूक नहीं हैं..बिटिया कोई बोझा नहीं, जिसे एकदिन व्याहने के बाद उस बोझा से मुक्ति पा ली. बिटिया तो देह के भीतर ली जाने वाली श्वांस की तरह है..रोम रोम में बसी हुई..जीवन का अभिन्न हिस्सा और एक अहम जरुरत..उसके लिए मैं सारे कर्मकांडों को त्याग अक्सर अघोर भी हो जाता हूँ..हाथ धोकर मैं हवन करने के लिए चल देता हूँ.
कोई घर में बैठा नमन करे. कोई हरी मंदिर में भजन करे
कोई गंगा जमुना स्नान करे. कोई काशी जा के ध्यान धरे
जिन मात पिता की सेवा की . उन तीर्थ स्नान कियो न कियो
जिन के हृदय श्री राम बसे, उन और को नाम लियो न लियो

हवन करने के बाद मैं माँ के कमरे में गया. माँ की आँखों में आंसू थे. मैंने कारण पूछा तो बोलीं- मुझे भूख लगी है. बहू खाना नहीं देती है. कहती है कि पहले बच्चों को खिला लूंगी फिर आप को दूंगी.
आँगन में बच्चों के आने का इन्तजार कर रही अपनी पत्नी को बुलाकर मैं डांटा- माँ को खाना क्यों नहीं दी? मैंने आपको कितनी बार समझाया है कि भोजन बनते ही माँ और बिटिया को सबसे पहले दे दिया करो. आप हैं कि मेरी बात सुनतीं ही नहीं!
मेरी श्रीमतीजी ऊँचे स्वर में बोलीं- रोज तो ऐसा ही करती हूँ, परन्तु आज मुझसे ये अधर्म और पाप नहीं होगा. आज नवमी के दिन पहले बच्चों को खाना खिलाऊँगी, फिर उन्हें विदाकर अम्माजी को नहलाऊंगी, तभी उन्हें कुछ खाने को दूंगी..
उनसे आगे कुछ न कह मैं सीधे रसोईघर में चला गया. एक थाली में पूड़ी, सब्जी, हलुआ और भुने हुए चने रख रसोईघर से बाहर निकला और माँ के सामने थाली रख दिया. माँ बहुत भूखी थीं. वो खाने पर टूट पड़ीं. जीवनभर बेटे को खिलाकर खाने वाली माँ आज पूछी भी नहीं कि बेटा तुम खाए हो कि नहीं? माँ अब पूरी तरह से अपने होशोहवास में ही नहीं हैं तो भला पूछेंगी कैसे? बचपन से लेकर अबतक पाया माँ का प्यार-दुलार हमेशा ही मुझे अच्छा लगा था, परन्तु उम्र के इस पड़ाव पर माँ का ये अघोरपन भी मुझे अच्छा लगा. जीवनभर व्रत-उपवास और नियम संयम का बहुत कड़ाई से पालन करने वाली मेरी माँ पहलीबार नवरात्र के व्रत नहीं रखीं. बिना नहाये अन्नजल न ग्रहण करने वाली मेरी माँ अब बिना नहाये खा लेती हैं. मैं बार बार यही सोचता हूँ कि क्या बुढ़ापे की मज़बूरी इंसान से सब कर्मकांड छुड़वा देती है या फिर ये अघोरपन ही हमारा सहज स्वरुप है. पुनर्जन्म और बचपन की ओर बढ़ता बुढ़ापा उम्र के अंतिम पड़ाव पर चैन से एक श्वांस लेना तक दूभर कर देता है. श्वांसों का बोझ तक तो उठाना भारी लगता है, फिर वो भला नियम संयम से परिपूर्ण कठिन कर्मकांडों का बोझ क्या उठा पायेगा? इस ढलती उम्र में तो अपनी श्वांस के साथ प्रभु का कोई छोटा सा नाम जोड़ श्वांस का भजन कर ले वही अहोभाग्य है.
माँ ओर कुछ लोगी? – भोजन कर चुकीं माँ से मैंने पूछा.
नहीं..-ये कहकर वो अपना हाथ हिला दीं. मैं आँगन की तरफ बढ़ गया. मुझसे नाराज मेरी धर्मपत्नी आँगन में आने वाले बच्चों के पैर धोकर उन्हें बिछी हुई दरी पर बैठाने लगीं. मेरी बिटिया और एक बुजुर्ग स्त्री समेत कुल सोलह बच्चे थे. नौ से ज्यादा ही लड़कियां रहीं होंगी. नए फ्रॉक में सजीधजी मेरी बिटिया मुझे देखते ही रोते हुए मेरे पास आ पहुंची.
क्या बात है बिटिया? रो क्यों रही हो? -उसे उठाकर गोद में लेते हुए मैं पूछा.
वो रोते हुए बोली- मम्मी मेरे पैर नहीं धो रही है! मुझे भी सब बच्चों के साथ बैठना है.
मैं हँसते हुए बोला- चल मैं तेरे पैर धो देता हूँ और बच्चों की पंगत में तुझे बिठा भी देता हूँ.
मैं उसे लेकर आँगन में रखी पानी वाली बाल्टी के पास पहुंचा. मैं अभी मग उठाया ही था कि श्रीमतीजी दौड़ते हुए हमारे पास आ पहुंचीं. मेरे हाथ से मग लेकर बाल्टी से पानी निकालीं और बिटिया का पैर धोते हुए बोलीं- बिटिया के पैर धोकर क्यों मेरे ऊपर पाप चढ़ाते हैं? ये सब मेरा काम है. मुझे करने दीजिये.
मुझे भी इस यज्ञ में कुछ सेवा करने दो- मैं पानी से भरा जग और प्लास्टिक के गिलास उठाते हुए बोला.
वो कुछ बोलीं नहीं, बस मेरी तरफ देखते हुए मुस्कुराने लगीं. कुछ ही देर में बच्चों को पत्तल पर पूड़ी, सब्जी, हलुआ और चने परोस दिया गया. बच्चे आज यज्ञ के सबसे बड़े देवी-देवता बन भोजन ग्रहण करने लगे. आज भोर से ही हाड़तोड़ मेहनत करने वाली मेरी श्रीमतीजी यज्ञ की सफलता से प्रसन्न होकर मेरी तरफ मुस्कुराते देखने लगीं. कभी अपनी प्रसन्नचित्त पत्नी तो कभी हँसते खिलखिलाते हुए भोजन करते बच्चों की ओर मैं देखने लगा. साहिर लुधियानवी साहब की लिखीं कुछ पंक्तियाँ याद आ गईं-
तुझको मुझको जीवन अमृत, अब इन हाथों से पीना है
इनकी धड़कन में बसना है, इनकी साँसों में जीना है
तू अपनी अदाएं बक्श इन्हें में अपनी वफ़ायें देता हूँ
जो अपने लिए सोची थी कभी, वो सारी दुआएँ देता हूँ

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संस्मरण, आलेख और प्रस्तुति=सद्गुरु श्री राजेंद्र ऋषि जी,प्रकृति पुरुष सिद्धपीठ आश्रम,ग्राम-घमहापुर,पोस्ट-कन्द्वा,जिला-वाराणसी.पिन-२२११०६.
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