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आज के स्वार्थी और महंगाई वाले युग में अतिथि देवो भव:

सद्गुरुजी
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आज के स्वार्थी और महंगाई वाले युग में अतिथि देवो भव:
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रहिमन निज मन की व्यथा,
मन में राखो गोय।
सुनि इठलैहैं लोग सब,
बाटि न लैहै कोय॥

इस दोहे में रहीम साहब ने अपने मन की व्यथा को किसी से नहीं कहने की सलाह दिया है. उन्होंने ऐसी गोपनीय सलाह देने का कारण भी बताया है कि लोग आपकी व्यथा को सुनकर उसका मजाक उड़ाएंगे और आपका दुःख कोई नहीं बांटेगा. उनकी सलाह सही लगती है, परन्तु आज सोशल मिडिया और ब्लॉगिंग के युग में लोग अपने मन की व्यथा निसंकोच होकर अपने मित्रों, परिचितों और यहांतक कि अपरिचितों तक से कह रहे हैं. मन की व्यथा कह देने से आपके मन का बोझ हल्का हो जाता है, परन्तु कभी कभी किसी चालाक और शातिर व्यक्ति को अपनी रामकहानी सुनाने का नुकसान भी उठाना पड़ता है, चाहे वो भावनात्मक शोषण के रूप में हो या फिर शारीरिक या आर्थिक ठगी के रूप में. अतः अपने मन की व्यथा दूसरों से कहिये, परन्तु सोच समझकर और अपनी निजता की सीमारेखा सुरक्षित ढंग से स्वयं तय करते हुए, ताकि बाद में पछताना न पड़े. प्रिय मित्रों, अब मैं सोच रहा हूँ कि इन दिनों जारी ‘अतिथि देवो भव:’ वाली अपनी व्यथा आप सबसे साँझा करूँ. शायद मन का बोझ कुछ हल्का हो जाये.
अपने सभी सम्मानित अतिथियों से मेरा विनम्र अनुरोध है कि मेरे कोई प्रिय और पूज्यनीय अतिथिगण जाने-अनजाने या भूले-भटके से इस ब्लॉग को पढ़ें तो कृपया इसे अन्यथा न लें और बुरा न मानें, बल्कि लेख की सच्चाई पर विचार करें. वो अपने भीतर थोड़ासा भी सुधार करेंगे तो मुझे बहुत ख़ुशी होगी. मैं जानता हूँ कि अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप। अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।। कबीर साहब सच कहे हैं कि अति हर चीज की बुरी है. खासकर ‘अति की भली न चूप.’ हालाँकि मैं संत तुलसी साहिब की इस बात का समर्थक हूँ कि- तुलसी इस संसार में सबसे मिलिए धाय। ना जाने किस भेष में नारायण मिल जाय।। मेहमाननवाजी का शौक मुझे भी है, परन्तु उनके आने से मुझे और मेरे परिवार को जो परेशानियां होती हैं, उसका जिक्र इस लेख में कर रहा हूँ. आप लोगों से अपने मन की बात आज मैं भी खुलके बोल लेना चाहता हूँ. अच्छा लगे तो राम राम और बुरा लगे तो क्षमा कीजियेगा.
साई इतना दीजिए
जामें कुटुंब समाय।
मैं भी भूखा ना रहूं
साधु न भूखा जाय॥

आज के महंगाई वाले युग में कबीर साहब ने कितनी सही बात कहें हैं कि हे प्रभु! कम से कम इतना तो दीजिये कि मेरे परिवार का भरण पोषण हो जाये. मैं और मेरा परिवार भूखा ना रहे तथा मेरे द्वार पर आने वाले साधु, भिखारी और अतिथि भूखे न जाएँ. खासकर अतिथि की महिमा तो अपरम्पार है. हमारी भारतीय संस्कृति की तो पहचान ही ‘अतिथि देवो भव:’ है. प्राचीन समय में अतिथियों के आने की कोई तिथि निश्चित नहीं होती थी, परन्तु नाना प्रकार के संचार माध्यमों वाले वर्तमान युग में अतिथियों के आने की तिथियाँ भी निश्चित होती हैं और उनकी फरमाइशें भी. समर्थ होकर भी असमर्थ को गले लगाने का करुणा भाव ‘अतिथि देवो भव:’ का मूलमंत्र है. इसके कई ऐतिहासिक उदहारण हैं, जैसे- भगवान श्रीकृष्ण कितनी आत्मीयता से अपने महल में अपने मित्र सुदामा का न सिर्फ सेवा-सत्कार किये, बल्कि उसकी व्यथा भी हर हिये. दुर्योधन के घर जाकर मेवा खाने की बजाय महात्मा विदुर के घर जाकर भगवान साग खाना पसंद किये.
भगवान राम शबरी का आतिथ्य स्वीकारकर उसके जूठे बेर इतने प्रेम भाव से खाए कि वो प्रसंग इतिहास का एक अमर हिस्सा बन गया. ये पुराने समय की बाते हैं. आज के विशिष्ट अतिथिगण अपने किसी गरीब रिश्तेदार के घर नहीं बल्कि उसके घर जाना पसंद करते हैं, जो उनके समकक्ष या फिर उनसे श्रेष्ठ हो. वो महात्मा विधुर के घर का साग नहीं, बल्कि दुर्योधन के घर जाकर मेवा खाना ज्यादा पसंद करते हैं. कभी इस धरती पर राम और कृष्ण ने खाएं होंगे भक्तों के जूठे चावल और बेर, परन्तु आज तो बड़े बड़े आश्रम रूपी महलों में मठाधीश और धर्मगुरु के रूप में रहने वाले राम और कृष्ण के परम भक्त गरीबों की झोपड़ियों में नहीं बल्कि बड़े बड़े नेताओं और अमीर चाटुकारों के घर जाना पसंद करते हैं, जहांपर उनकी झूठी स्तुति हो, उनका चरणामृत लेने वाले बहुत से हैसियत और पैसेवाले भक्त हों, बैठने को भव्य सिंहासन हो, खाने को कीमती पकवान हों और विदाई के समय मुंहमांगी मोटी दक्षिणा मिले.
रहिमन धागा प्रेम का,
मत तोड़ो चटकाय।
टूटे से फिर ना जुड़े,
जुड़े गाँठ परि जाय॥

मेहमानों को मेजबानों का और मेजबानों को मेहमानों का दिल कभी नहीं तोडना चाहिए. उन्हें हर छोटी बड़ी बात का ख्याल रखना चाहिए. सभी रिश्तेदार और मित्र प्रेम के धागे से ही तो आपस में बंधे हैं, तभी तो रहीम जी कहते हैं कि प्रेम के धागे को कभी तोड़ना नहीं चाहिए, क्योंकि यह यदि एक बार टूट जाता है तो फिर दुबारा नहीं जुड़ता है और यदि जुड़ता भी है तो गांठ तो पड़ ही जाती है. बेशक मंदिर मस्जिद तोड़े, बुल्लेशा ये कहता। पर प्यार भरा दिल कभी न तोड़ो इस दिल में दिलबर रहता॥ बुल्लेशा की इस बात से मैं भी सहमत हूँ. मेरी बीमार माताजी को देखने के लिए पिछले एक महीने के दौरान अबतक बीसों रिश्तेदार आ चुके होंगे. उनमे से हरेक की यथासंभव सेवा करते हुए उनके ख़राब आचरण को नजदीक से मैंने देखा. सब देखसुनकर मन तो ख़राब हुआ ही, मेरा दिल भी उनके प्रति टूटसा गया. आते ही सबसे पहले मेरी अधबनी कुटिया को घूम टहलके देखना और मेरी लाचारी पर व्यंग्य कसना. जरा भी मदद करने की बजाय बस घूमना फिरना और मेरी पत्नी से मनपसंद भोजन बनवाकर ग्रहण करना. गठिये के दर्द से परेशान अपनी पत्नी को पसीने से लथपथ हो घंटो रसोई में अकेले ही हाड़तोड़ मेहनत करते हुए देखता हूँ तो बहुत बुरा लगता है.
अपने घर में साफसफाई रखने वाले लोग जब मेरे घर में गंदगी करके भाग जाते हैं और पूरे घर में चप्पल पहनकर घूमते हैं तो बहुत ख़राब लगता है. अपने एक रिश्तेदार को पूजाघर में चप्पल पहने देख मैंने टोक ही दिया. उन्होंने बुरा सा मुंह बनाया और जानेतक मुझसे बात ही नहीं किये. मेरे और मेरी पत्नी के मन को बहुत पीड़ा पहुँचती है जब कोई रिश्तेदार माताजी की बेहतर सेवा और समुचित इलाज करने का सुझाव देता है. तन, मन या धन से कोई मदद न कर महज फ़ोकट में घंटों समझने-बुझाने वाले और ढेरों सुझाव देनेवाले अधिकतर वो लोग होते हैं, जो अपने जीवन में कभी अपने माता-पिता की सेवा नहीं किये. जीवनभर साफ-सफाई और नियम-संयम से रहने वाली मेरी माँ आज बुढ़ापे और बीमारी के कारण पूरी तरह से अपने होशोहवास में नहीं हैं, तभी तो अक्सर ही लैटरिंग जाती हैं तो कमोड के पायदान के ऊपर ही शौच कर देती हैं. लैटरिंग गन्दा देखकर मेरे कई रिश्तेदार नाक बंद कर घिनियाते हुए तुरंत बाहर निकल आते हैं, जबकि इनमे से कई लोग लैटरिंग जाने के बाद उसे गन्दा ही छोड़ आते हैं और कई तो खड़े खड़े ही पिशाब करते हैं, जिससे पूरा शौचालय ही गन्दा और प्रदूषित हो जाता है.
मैं और मेरी पत्नी जबभी शौचालय गन्दा देखते हैं, तुरंत जाकर साफ कर देते हैं. माँ की लाचारी देखकर उनसे कोई कुछ नहीं कहता है और मेहमानों से नजदीकी रिश्तेदारी देखकर उनसे भी कोई कुछ नहीं कहता है. मैं जानता हूँ कि माँ और मेहमानों की सेवा के बोझ तले दबकर बहुत चिड़चिड़ी हो चुकी मेरी पत्नी भीतर से कुढ़ती रहती है, मुंह से कुछ नहीं कहती है, परन्तु रसोई में कई बार आँचल से आंसू पोंछते हुए मैंने उसे देखा है. मैंने उससे कई बार पूछा भी कि क्या हुआ? वो हर बार झूठ बोल देती है कि आँख में कुछ पड़ गया था. सच बात मैं जानता हूँ कि नजदीकी रिश्तेदारों का माँ की सेवा या रसोई में कोई सहयोग न देना उसके दिल में नश्तर की तरह चुभ रहा है और नजदीकी रिश्तों के प्रति उसके मन में खटास पैदा कर रहा है. जिसदिन कोई मेहमान घर में नहीं होते हैं, वो मन की बात मुझसे कह ही देती हैं- मनपसंद भोजन बनवाकर खाने वाले और बस घूमने व सोने से मतलब रखने वाले ये मेहमान न ही आएं तो अच्छा है. मैं अकेले ही माँ और अपने परिवार की सेवा कर लूंगी.
मेहमानो के आने से सबसे ज्यादा परेशान मेरी बिटिया हो जाती है. कोई बच्चा उसके खिलौने छू दे या फिर उसके बिस्तर पर लेट जाये तो रोने लगती है. मेहमान अपने साथ लाई साधारण सी चींजें भी जब उससे छुपाकर खाते हैं तो मांगने लगती है. एकदिन तो मेरे लिए बहुत ही कारुणिक और लाचारी भरा दृश्य उपस्थित हो गया था. अपनी पत्नी और लड़की के साथ चोरी छुपे बिस्कुट खा रहे मेरे एक रिश्तेदार के सामने मेरी बिटिया बार बार गिड़गिड़ाते हुए एक बिस्कुट मांग रही थी, पर उन्होंने नहीं दिया. मैं जड़वत और हतप्रभ सा होकर सबकुछ देख रहा था. मेरी बिटिया रसोई में जाकर अपनी माँ से शिकायत की और फिर उनसे मार खाकर रोते हुए मेरे पास आ गई. मैं उसे गोद में लेकर रसोईघर में गया और आलमारी खोलकर महंगे से महंगे बिस्कुट और चॉकलेट उसे दिए, परन्तु वो नहीं ली और साधारण से बिस्कुट के लिए कुछ देरतक रोते-सुबकते हुए मेरी गोद में सो गई. उसे लेकर मैं अपने कमरे में सुलाने चला गया. बिटिया को बिस्तर पर सुला मैंने अपना रुँधा हुआ गला साफ किया और तौलिया से आँखे पोंछी. मेहमानों के सामने सेवा-सत्कार के लिए जाने से पहले मुझे सामान्य होना था, जैसे कुछ हुआ ही न हो. ऊपर से सामान्य रहने पर भी मैं जानता था कि मेरे भीतर रिश्तों का ताना बाना बहुत हदतक टूट के बिखर गया है. सालभर पहले मेरी पत्नी का अपनी छोटी ननद से झगड़ा हो गया था. उसके आने से रहीम खानखाना याद आ गए-
कह रहीम कैसे निभे,
बेर केर का संग।
यै डोलत रस आपने,
उनके फाटत अंग।।

सौभाग्य से इस बार दोनों के बीच कोई झगड़ा नहीं हुआ नहीं तो नजदीकी रिश्तों के दो पाटों के बीच मैं पीस जाता. मैं अपनी पत्नी को पहले से ही समझा रखा था कि वो अपनी मनमर्जी का कुछ भी करें और बोलें, परन्तु आप चुप रहिएगा. मेरी पत्नी पहले तो मेरी बात मानने के लिए तैयार नहीं हुईं और कहने लगीं- इस बार आने दीजिये उन्हें. ईंट का जबाब पत्थर से दूंगी. मैं कुछ बोलती नहीं हूँ तो वो मुझे मूर्ख समझतीं हैं. इस बार उन्हें ऐसा सबक सिखाउंगी कि दुबारा जल्दी आने का नाम नहीं लेंगी. मैं मुस्कुराते हुए उनकी बात सुनता रहा फिर बोला- यदि आप ऐसा करेंगी तो उनमे और आपमें अंतर ही क्या रह जायेगा? एक तरफ तो आपलोग पूरी दुनियाभर में अपने अधिकारों के लिए लड़ रही हैं, दूसरी तरफ एक महिला ही दूसरी महिला की दुश्मन बनी बैठी है. ये अपना हक़ हासिल करने की कैसी लड़ाई है? काफी समझाने-बुझाने पर वो मेरी बात मानीं और उसकी लाज भी रखीं. अंत में अपने देव अतिथियों और कृपालु पाठक मित्रों से बस यही कहूँगा कि-
रहिमन पानी राखिये,
बिन पानी सब सून।
पानी गये न ऊबरे,
मोती, मानुष, चून॥

इस दोहे में रहीम साहब ने पानी के विभिन्न अर्थ और उसकी महत्ता बताये हैं. सबसे पहले तो वो हर मनुष्य को ये सलाह देते हैं कि ‘रहिमन पानी राखिये’ अर्थात जीवन में हमेशा विनम्र भाव से रहिये. आपकी तेजोमय और प्रभावी आभा सदैव बरकरार रहेगी. जीवन में विनम्रता छोड़ी नहीं कि बेशर्मी और अहंकार ने कब दामन थाम लिया, ये आपको पता भी नहीं चलेगा. कहते हैं न कि अरे इसका तो पानी ही मर गया है. अब ये किसी काम का नहीं. पानी का दूसरा अर्थ उन्होंने मोती से जोड़कर उसकी आभा या तेज को महत्वपूर्ण बताया है. मोती ही नहीं बल्कि सभी रत्नों का मूल्य उसकी आभा से लगाया जाता है. किसी व्यक्ति के हाथ की अंगुली में पहनी गई अंगूठी में जड़े पुराने पत्थर को देखकर जौहरी अक्सर कहते है कि इस पत्थर का तो पानी ही मर गया है, इसे बदलवा दीजिये. पानी का तीसरा अर्थ जल से है, जिसे कवि रहीम ने चून यानि आटें से जोड़ा है. वो कहते हैं कि पानी के बिना आटें का अस्तित्व गिला और उपयोगी कैसे होगा. जल यानि पानी के बिना तो वाकई सारा जगत सून है. जल न हो तो संसार पलभर में मरघट में बदल जाये. सही कहा गया गया है कि जल ही जीवन है. इसका उपयोग हमें सोचसमझकर और भावी पीढ़ी को ध्यान में रखते हुए करना चाहिए, ताकि भविष्य में कभी पानी की कमी न हो. विनम्रता, आभा और जल रूपी पानी के विभिन्न रूपों का उपयोग और महत्व संसार की समस्त मानव जाति के लिए एक समान रूप से है.
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संस्मरण, आलेख और प्रस्तुति=सद्गुरु श्री राजेंद्र ऋषि जी,प्रकृति पुरुष सिद्धपीठ आश्रम,ग्राम-घमहापुर,पोस्ट-कन्द्वा,जिला-वाराणसी.पिन-२२११०६.
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