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जाति, रंग और भेदभाव के चक्रव्यूह में फंसा हुआ भारत

सद्गुरुजी
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जाति, रंग और भेदभाव के चक्रव्यूह में फंसा हुआ भारत
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आज बहुत दिनों के बाद मेरे बचपन के मित्र महेश का फोन आया था. उसने फोन पर मुझे खुशखबरी सुनाई कि अब वो आपरेटर से जूनियर इंजीनियर बन गया है. मुझे बहुत ख़ुशी हुई और गर्व भी. ये प्रोमोशन उसने अपने संघर्ष और ईमानदारी से पाई है. उसे याद करते ही उसका सांवला सलोना चेहरा मुझे याद आ गया. उससे मेरी दोस्ती अपने गांव के प्राइमरी स्कूल में हुई थी. पिताजी का ट्रांसफर लेह हो गया था. वहांपर फैमिली रखने की व्यबस्था नहीं होने के कारण हमलोग उनके साथ नहीं जा सकते थे, इसलिए गांव के प्राइमरी स्कूल में दाखिला लेना पड़ा. जाति और रंगभेद का मजाकिया, किन्तु बहुतों के दिलों में कांटे की तरह चुभने वाला नजारा मुझे गांव के स्कूल में देखने को मिला, जहांपर बच्चे ये गाना गाकर एक दुसरे को चिढ़ाते थे, ‘एक वाला एक्का, दो वाला दुल्हिन, तीन वाला तेली, चार वाला चमार और पांच वाला पंडित.’ सबसे ज्यादा कक्षा चार में पढ़ने वालों को सब चिढ़ाते थे. कक्षा पांचवाले पंडित उन्हें इस अंदाज में बुलाते थे कि वो सब देख सुनकर मुझे बहुत दुःख और हैरानी होती थी. स्कुल के मास्टरों द्वारा इस ओर ध्यान न देने से जातिवाद का जहर बचपन में ही बच्चों के कोमल मन में पनप ओर फलफूल रहा था. शहर में जातिवाद का ऐसा जहर मैंने नहीं देखा था.
उस समय मैं और महेश कक्षा पांच में पढ़ रहे थे. वो अकेला, अपने में ही गुमसुम और डरा सहमा सा रहता था. उसका कोई मित्र नहीं था, क्योंकि एक तो वो काले रंग का था और दूसरे दलित जाति का था. वो पढ़ने लिखने में बहुत होशियार था, परन्तु सहपाठी और अध्यापक दोनों उससे नफरत करते थे. एक ओर जहाँ सहपाठी उसके काले होने की और दलित जाति में जन्म लेने की खिल्ली उड़ाते थे, उससे दूर बैठते थे और यहाँ तक कि उसे देखते ही थूकने ओर उबकाई लेने लगते थे, वहीँ दूसरी तरफ अध्यापक भी उसकी जाति का नाम लेकर अपशब्द बोलते हुए उसे ओरों से ज्यादा ही पीटते थे. ऊँची जाति के एक अध्यापक ने तो एक दिन उसे मारते और गरियाते हुए कह ही दिया, इसकी जाति का ही अर्थ है और मार.. उन्होंने छात्रों के सामान्य ज्ञान में बढ़ोतरी करते हुए उस गरीब और दलित छात्र को सताने का एक बहुत बड़ा हथियार छत्रों को दे दिया. इसी शब्द को लेकर छात्र उसे चिढ़ाते और मारते थे. मॉनिटर होने के नाते मैं अध्यापकों से उसे सताने वाले छात्रों की शिकायत करता तो वो हंस के टाल देते थे. बड़ी बेशर्मी से पान कचरते और दांत निपोरते हुए कहते थे, ‘बबुआ..देहात में ईसब चलता है..हम केके केके डांटें और मारें..शहर में पढ़े हो न..इसलिए तुम्हे बुरा लगता होगा..कुछ दिन देहात में रहोगे तो ईसब देखने सुनने के आदि हो जाओगे.’ मास्टरों के मुंह से ये सब सुनकर मैं अवाक् रह जाता था. मैं अपने को उस रंगभेदी और जातिभेदी माहौल में कभी ढाल नहीं पाया. मुझे तो समझ में ही नहीं आता था कि ये भेदभाव क्यों हो रहा है?
मेरी गहरी दोस्ती महेश से उस दिन हुई, जिस दिन उसे गरियाते हुए एक अध्यापक ने उसकी पीठ पर कस के दो बेंत जमा दिया. वो जमीन पर गिरकर बुरी तरह से छटपटाने लगा. सब छात्र और अध्यापक तमाशा देख रहे थे. कोई उसे उठा नहीं रहा था. ये अन्याय देखकर मेरा जमीर और खून दोनों खौल रहा था. वो निर्दोष था. उसका दोष केवल इतना था कि वो प्यासा था और स्कूल के बिगड़े हुए हैंडपाइप को चलाने की कोशिश किया था. मैं जमीन पर छटपटाकर लोटते पोटते महेश के पास गया और उसकी जख्मी पीठ सहलाते हुए उसे उठाया. वो दर्द के मारे चिल्ला रहा था. उसका फूटफूटकर रोना, चिल्लाना और उसकी आँखों से अविरल बहते आंसू देख मैं बहुत सहम गया था. मेरा एक मित्र मेरे पास आ धीरे से बोला, ‘उसे क्यों छुए? अब घर जाके नहाना पड़ेगा और कोई आपके घर में जाके कह दिया तो डांट भी खानी पड़ेगी. मैं गुस्से के मारे जोर से चिल्लाया, ‘चुप..तुझे उसका दर्द नहीं दिखता है? तुझे इतनी मार पड़ी होती तो समझ में आती. अपने मित्र को डांट मैं महेश की तरफ मुड़ा, परन्तु वो जोर जोर से रोते और आँख मलते हुए अपने घर की तरफ चल दिया. उसदिन मैं बहुत दुखी हुआ था और महेश को मारने वाले मास्टर पर गुस्सा भी बहुत आया था.
धीरे धीरे मेरी दोस्ती महेश से गहरी होती चली गई. वो मेरे लिए पेड़ों से आम तोड़ता तो कभी अपने बगीचे से अमरुद लाता. उसकी लाई चींजें जब मैं खाता था तो मेरे दोस्त थू थू करने लगते थे. वो ये सोचते थे कि मैंने खाने के लालच में महेश से दोस्ती की है. मैंने महेश के अंदर साहस भरा और उसे प्रतिकार करना सिखाया. धीरे धीरे उसका दब्बूपना जाता रहा. पांचवी पास करने के बाद हमलोग एक अन्य स्कूल में छठी कक्षा में नाम लिखाये. वहांपर भी जातिवाद और रंगभेद का बोलबाला था. पढ़ने लिखने में बहुत अच्छा होने के कारण मै छठी क्लास में भी मॉनिटर चुना गया. महेश मेरे मॉनिटर चुने जाने से बहुत खुश था, परन्तु मैं चाहकर भी उसकी हर जगह मदद नहीं कर पाता था. अध्यापक भरी कक्षा में महेश को अक्सर उसके नाम से न बुलाकर करियाराम और कालू कहकर बुलाते थे. वो झेंपकर सिर नीचे कर लेता था. मुझे बहुत बुरा लगता था. लम्बी लम्बी बेंत ले के स्कूल आने वाले मरकहा मास्टरों से कुछ कहने की हिम्मत जुटाना भी मुश्किल काम था, फिर भी मॉनिटर होने के नाते मैंने हिम्मत कर एक दो अध्यापकों को टोका भी, परन्तु वो हंस के टाल दिए. मुझे स्कूल के जातिवादी और रंगभेदी मास्टरों से नफरत सी हो गई थी.
उन्ही दिनों एक नई फिल्म ‘शोले’ शहर में लगी हुई थी. स्कूल के कुछ लड़के शहर जाकर ये फिल्म देखकर आये थे. उसका एक डायलॉग था, ” अब तेरा क्या होगा कालिया..” ये घोर आपत्तिजनक और रंगभेदी डायलॉग भारत सरकार, भारतीय समाज और सेंसर बोर्ड कैसे हँसते और मजा लेते हुए पचा गई, ये आश्चर्य की बात है. इस रंगभेदी डायलॉग ने करोड़ों भारतियों का उनके रंग के आधार पर मजाक उड़ाया है. जो ये फिल्म देख के आये थे, वो लड़के यही डायलॉग महेश को देखकर बोलते थे. एक दिन वो लड़के स्कूल के पास वाली बड़ी नहर में नहा रहे थे. मैं और महेश भी वहां नहाने पहुँच गए. उन लड़कों ने मेरा स्वागत किया और महेश का रंग और जाति के आधार पर उपहास उड़ाते हुए विरोध किया. मैं अपने कपडे और बस्ता एक जगह रख नहर में उतर गया और महेश का हाथ पकड़ उसे भी पानी में खिंच लिया. चारो उज्जड लड़के महेश को घेरकर फ़िल्मी डायलॉग मारने लगे, ‘अब तेरा क्या होगा कालिया..’ वो देरतक यही डायलॉग कभी उसके काले रंग तो कभी उसकी दलित जाति से जोड़कर हँसते हुए मारते रहे.
अपमान झेलते झेलते अंत में बुरी तरह से बौखला उठे महेश का खून खौल उठा. उसने उन चारों लड़कों की जमकर धुनाई कर दी. मैं मुस्कुराते हुए पूरा तमाशा देखता रहा. ये महेश की बहुत बड़ी विजय थी. इस विजय ने उसके अंदर साहस का संचार कर दिया था. वो अब अपना मखौल उड़ाने वालों का उचित प्रतिकार करने लगा था. उसका ये इंकलाबी रूप देखकर मुझे बहुत ख़ुशी होती थी. छठी कक्षा की जब वार्षिक परीक्षा हो रही थी. तब महेश मेरे आगे बैठा था. मास्टर साहब ने गणित का प्रश्नपत्र उसे देने के साथ ही उसके गाल पर कस के दो थप्पड़ भी जड़ दिए और मुंह बनाते हुए बोले, ‘अबे करियाराम..खड़ा क्यों नहीं होता है बे..’ मुझे बहुत बुरा लगा. मैं तुरंत उठकर खड़ा और बोला, ‘मास्टर साहब..खड़ा तो अबतक कोई नहीं हुआ है..फिर आप इसे क्यों मारे..’ मास्टर साहब मुझे प्रश्नपत्र देते हुए बोले, ‘इसका पक्ष मत लो नहीं तो गठित में फेल कर दूंगा..’ मैं समझ गया कि ये आधुनिक गुरु द्रोणाचार्य इसलिए महेश को थप्पड़ मारे थे ताकि उसका पेपर बिगड़ जाये. मैंने महेश के कंधे पर हाथ रखा और अपना पेपर हल करने में जुट गया. रिजल्ट निकलने के बाद मैं और महेश कक्षा पहले और दूसरे स्थान पर रहे. सातवीं क्लास में मेरा सम्मान तो बढ़ा ही अब महेश की भी कुछ इज्जत होने लगी. यह मेरे और महेश के लिए बहुत ख़ुशी की बात थी.
गांव के उस स्कूल में पढ़ने लिखने में होशियार छात्रों की कुछ इज्जत होती थी, लेकिन ये भी कटु सत्य था कि जाति के आधार पर मास्टर लोग छात्रों से व्यवहार और भेदभाव करते थे. मास्टर लोग भी ऐसा व्यवहार करने के लिए कुछ हद तक मजबूर थे. गांव के ही एक स्कूल में जाति से दलित एक मास्टर साहब ने ऊँची जाति के एक छात्र को मार दिया. छात्र घर जाकर ये बात बताया. शाम को मास्टर साहब घर जाने लगे तो रास्ते में लाठी डंडे से लैस दस बारह लोंगो ने उन्हें घेर लिया. ऊँची जाति के छात्र को पीटने को लेकर खूब कहा सुनी हुई और अंत में मास्टर साहब को अपनी जान बचाने के लिए थूककर चाटना पड़ा. ऊँची जाति के छात्रों को न मारने की कसम खानी पड़ी और उन्हें डराने वाली अपनी नोंकदार पनहीं और तेल पिलाये हुए बेत को अपने घर में फेंकना पड़ा. सातवीं पास करने बाद मैं अपने पिताजी के पास जबलपुर चला गया. बहुत समय के बाद सन १९९५ में महेश से मेरी भेंट हुई. वो देरतक मेरे गले लगकर रोता रहा और मैं नम आखों से बचपन के दिन याद करता रहा. अब वो सरकारी नौकरी में आपरेटर था. उसके साथ एक सुन्दर बीबी और दो प्यारे प्यारे बच्चे थे. नौकरी में भी उसने अपने रंग और जाति को लेकर बहुत कुछ झेला था.
हमारे संविधान ने हमें भले ही एक समान अधिकार दिया हो, परन्तु ये कटु सत्य है कि भारत में अब भी जाति और रंग के आधार पर भेदभाव जारी है. देश को आजादी मिलने के बाद गोरी चमडी वाले अंग्रेज चले गए, जो काले भारतियों से नफरत करते थे, परन्तु वो भूरि चमड़ी वाले भारतियों को छोड़ गए, जो काली चमड़ी वाले भारतियों से न सिर्फ नफरत करते हैं, बल्कि भेदभाव भी करते हैं. एक विदेशी महिला से इस विषय पर मेरी काफी देरतक बातचीत हुई थी, जो ईसाई धर्म का प्रचार करने के लिए भारत आई हुई थी. वो आध्यात्मिक चर्चा करने के लिए मेरे पास आई थी. वो आते ही मेरा हाथ पकड़कर अपने माथे से लगाई और ‘लव यू’ बोली. मैं सोचने लगा कि गरीब और दलित भारतियों को प्रभावित करने का यही तो इनका सबसे बड़ा हथियार है. जाति, छुआछूत और भेदभाव के चक्रव्यूह में फंसे हम भारतीय लोग तो ऐसा करने से रहे. बातचीत के दौरान उस महिला ने मुझे बताया कि भारतीय दर्शन निश्चित रूप से सर्वश्रेष्ठ है, परन्तु भारतवासी व्यवहारिक रूप में उसका पालन नहीं करते हैं, क्योंकि वो चर्म मनोविकार (स्किन प्रॉब्लम) के शिकार हैं. हमलोग उसी का फायदा उठाकर गरीब और दलित भारतियों को अपनी और खिंच रहे हैं.
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आलेख और प्रस्तुति= सद्गुरु श्री राजेंद्र ऋषि जी, प्रकृति पुरुष सिद्धपीठ आश्रम, ग्राम- घमहापुर, पोस्ट- कन्द्वा, जिला- वाराणसी. पिन- २२११०६.
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