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जाति तोड़ो, हिन्दुओ को आपस में जोड़ो, विश्व गुरु बनो

सद्गुरुजी
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dalits
जाति तोड़ो, हिन्दुओ को आपस में जोड़ो, विश्व गुरु बनो
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मैं अक्सर लोंगो को ये कहते सुनता हूँ कि भारत को विश्व गुरु बनाना है। भारत में धर्म, जाति, रंग और लिंग के आधार पर हो रहे भेदभाव को जब मैं अपनी आँखों से देखता हूँ तो गहरे सोच में पड़ जाता हूँ कि क्या हमारा देश वास्तव में विश्व गुरु बनने के काबिल हुआ है? यूँ तो भारत अनादि काल से ही समूचे विश्व को सभ्यता, संस्कृति और धर्म का उपदेश देता चला आ रहा है। परन्तु पिछले तीन हजार वर्षों में सच्चे धर्मगुरुओं के अभाव के कारण हिन्दू समाज में बहुत सी कुरीतियों और रूढ़ियों ने जन्म लिया है, जिसके कारण बहुतो को ये लगता है कि भारत अब विश्व गुरु नहीं है। हिन्दू समाज में धार्मिक विकृतियां सबसे ज्यादा राजा-महाराजाओं के समय में पनपी हैं, क्योंकि उनके धर्मगुरु अक्सर अयोग्य और चापलूस किस्म के होते थे। बहुत से देवी-देवताओं की पूजा और मनगढ़ंत रीति-रिवाज इन धर्मगुरुओं ने राजा और उसकी सेना के बलपर समाज में लागू करवाये, जो कालांतर में बहुदेववाद पूजन के रीति-रिवाज का रूप धारण कर निंदनीय विकृतिया और रूढ़ियाँ बन गईं। हिन्दू समाज को सर्वव्यापी एक परमात्मा के ध्यान भजन से भटकाने वाली ये साबित हुईं।
हिन्दू समाज में अनेक तरह की सामाजिक विकृतियों और रूढ़ियों के पनपने और फलने फूलने के कारण ही उसका ह्रास हुआ। भारत में जात-पांत, छुआछूत और ऊंचनीच का भेदभाव निश्चय ही तीन हजार वर्ष पूर्व नहीं था। ‘मनुस्मृति’ से पूर्व मानवता और भाईचारे से परिपूर्ण मानव धर्मसूत्र प्रचलित था। जाति-प्रथा को महिमामंडित करने वाले ‘मनुस्मृति’ से लेकर अन्य तमाम ग्रन्थ तीन हजार वर्ष के भीतर ही रचे गए है। जाति-प्रथा को उपयोगी और सही साबित करने के लिए हिन्दू समाज में यह भ्रम फैलाया गया कि मनु आदिपुरुष थे और उनका शास्त्र ‘मनुस्मृति’ आदिःशास्त्र है। पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार मनु परंपरा की प्राचीनता होने पर भी ‘मनुस्मृति’ ईसा पूर्व चतुर्थ शताब्दी से प्राचीन नहीं हो सकती है। मेरे विचार से तो ‘मनुस्मृति’ का कोई धार्मिक या आध्यात्मिक आधार नहीं है और इसकी रचना हिन्दू समाज के उच्च वर्ग के द्वारा अपने फायदे के लिए की गई। झूठ कहा जाता है कि प्राचीन समय में वर्ण व्यवस्था का आधार कर्म था और वर्ण बदलने की आजादी थी। ब्राह्मण के घर जन्म लिया व्यक्ति कभी शूद्र नहीं कहला सकता था और और शूद्र के घर जन्म लिया व्यक्ति ज्ञानी होकर भी कभी ब्राह्मण नहीं हो सकता था।
प्राचीन समय में योग्यता होते हुए भी शूद्र आसानी से कोई ऊँचा पद नहीं पा सकता था। किसी ब्राह्मण या धार्मिक ग्रंथों के खिलाफ कुछ बोलने की सजा मौत होती थी। उसे तपस्या करने तक अधिकार नहीं था। वाल्मीकि रामायण में उत्तर कांड के 73-76 सर्ग में शम्बूक कथा का वर्णन मिलता है। राजा रामचन्द्र जी के धर्मगुरुओ ने एक ब्राह्मण के बालक की मृत्यु का कारण किसी शुद्र द्वारा तपस्या करना बताया। यह सुनते ही रामचन्द्र जी पुष्पक विमान पर सवार होकर शम्बूक की खोज में निकल पड़े। उन्हें शम्बूक नाम का एक तपस्वी मिल गया जो पेड़ से उल्टा लटक कर तपस्या कर रहा था। रामचन्द्र जी ने उससे पूछा-“तुम ब्राह्मण हो या अजेय क्षत्रिय? तीसरे वर्ण के वैश्य हो या शुद्र हो?”भगवान् राम का यह वचन सुनकर नीचे मस्तक करके लटका हुआ वह तपस्वी बोला– “हे श्री राम ! मैं झूठ नहीं बोलूँगा। देव लोक को पाने की इच्छा से ही तपस्या में लगा हूँ। मुझे शुद्र जानिए। मेरा नाम शम्बूक हैं।” उसने इतना कहा ही था कि रामचन्द्र जी ने म्यान से चमचमाती तलवार निकाली और उसका सर काटकर फेंक दिया।
हिन्दू धर्माचार्य राजा-महाराजाओं के समय से ही कट्टर जातिवादी रहे हैं। उन्होंने जाति-पाति और सामाजिक गैर-बराबरी का कभी विरोध नहीं किया। उलटे उन्होंने तो जातिवाद को बढ़ावा ही दिया। आप आदि शंकराचार्य के दलितों के संबंध में दिए गए विचार पढ़ लीजिये। उनके द्वारा रचित ब्रह्मसूत्र भाष्य ॥१.३.३८॥ के अनुसार तो जो (शूद्र) वेदों को सुने, उसके कानों मे सीसा और लाख (पिघला) हुआ) भर देना चाहिए। शूद्र श्मशान (के समान) हैं, इसलिए शूद्रों के निकट (वेदों का) पाठ नही करना चाहिए। (वेदमुपश्रृण्वतस्त्रपुजतुभ्यां श्रोत्रप्रतिपूरणम् ’ इति: ’पद्यु ह वाएतच्छमशनं यच्छूद्रस्तस्माच्छूद्रसमीपे नाध्येतव्यम् ’ इति च।) जो (शूद्र) वेदों का उच्चारण करे उसकी जीभ काट ली जानी चाहिए और जो वेदों को धारण करे उसका शरीर मध्य से चीर दिया जाना चाहिए। शूद्र को ज्ञान प्रदान नही किया जाना चाहिए – द्विजों को ही अध्ययन, और दान प्राप्ति का अधिकार है। (अत एवाध्ययनप्रतिषेधः। यस्य हि समीपेऽपि नाध्येतव्यं भवति, स
कथमश्रुतमधीयीत। भवति च — वेदोच्चारणे जिह्वावाच्छेदः , धरणे शरीरभेद
इति । अत एव चार्थावर्थज्ञानानुष्ठानयोः प्रतिषेधो भ वति — ’ न शूद्राय
मतिं दद्यात् ’ इति , द्विजातीनामध्ययनमिज्या दानम् इति च।)

वेद को ईश्वरीय वाणी कहा गया, फिर भी करोड़ों दलित और शूद्र उसको पढ़ने सुनने से वंचित कर दिए गए। मनु ने शूद्रों के प्रति अपने जो घृणापूर्ण विचार व्यक्त किये, आदि शंकराचार्य ने उसी ब्राह्मणवादी विचारधारा का समर्थन और पोषण किया. उनके उत्तराधिकारियों द्वारा आज भी उसी विचारधारा का व्यवहारिक रूप में पालन जारी है। दलितों के मंदिर जाने का विरोध शंकराचार्य अक्सर करते रहे हैं। अभी पिछले वर्ष एक शंकराचार्य के द्वारा दलितों के मंदिर जाने का विरोध करने पर भारी हंगामा मचा था। उन्होंने इसे शास्त्रसम्मत बताया था। जाति प्रथा को तोडना है और सभी हिन्दुओं को आपस में जोड़ना है तो जाति प्रथा का समर्थन करने वाले तमाम शास्त्रों का हमें त्याग कर देना चाहिए । आज समूचे हिन्दू समाज का यही एक नारा होना चाहिए कि जाति तोड़ो, हिन्दुओ को आपस में जोड़ो, विश्व गुरु बनो। देश के बहत से मंदिरों और मठों में जाति पूछकर लोगों के साथ भेद भाव किया जाता है, जिसके खिलाफ कभी शंकराचार्यो ने आवाज नहीं उठाई। दरअसल सच बात तो यह है कि जातिवादी व्यवस्था जारी रहने से उनके अपने निजी स्वार्थ सिद्ध होते हैं, भले ही हिन्दू धर्म टूट और विखर कर रसातल में चला जाये। आप जरा सोचिये कि आज तक क्या कोई दलित शंकराचार्य बना है? क्या यह पद आज तक ब्राह्मणो के लिए ही आरक्षित नहीं है?
इसके अतिरिक्त भी बहुत से ऐसे विषय हैं, जिनपर शंकराचार्य चुप हैं। हिन्दू धर्म में नारी जाति को भगवती की संज्ञा दी गई है, परन्तु कितने अफ़सोस की बात है कि दक्षिण भारत के अनेक मंदिरों में आज भी स्त्रियों का प्रवेश वर्जित है। शंकराचार्य यदि समतावादी हैं तो इसका विरोध क्यों नहीं करते हैं? आज हिन्दू समाज के सामने एक बहुत बड़ी समस्या ये है कि हजारों फ़र्ज़ी, अनपढ़ और अपराधी किस्म के लोग बाबा बनकर देश की जनता को लूट रहे है और बहुत से ऐसे बाबा लोग अपने पाले हुए चेलों और टी वी चैनलों की मदद से देश की जनता को जमकर ठग रहे हैं। शंकराचार्य इनका विरोध क्यों नहीं करते हैं? हिन्दुओ को संगठित करने के लिए उन्होंने कोई काम नहीं किया। उनसे बेहतर तो मुझे भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगते हैं, जिन्होंने हिन्दुओं को न सिर्फ एकजुट किया है, बल्कि प्रधानमंत्री बनकर समूचे विश्व की नजरो में उन्हें सम्मानित भी किया है। प्रधानमंत्री जी को समूचे देश का विकास करने के साथ साथ गरीबो और दलितों के उत्थान पर विशेष ध्यान देना चाहिए। दलितों के सामाजिक, आर्थिक और आध्यात्मिक उत्थान के बिना भारत के विश्व गुरु बनने का सपना देखना महज मूर्खता ओर अपूर्णता ही है।
हिन्दू धर्म को असली खतरा स्वार्थी धर्माचार्यों से है। इतिहास गवाह है कि धर्माचार्यो की मनमानी करतूतों के चलते हिन्दू समाज का भारी पतन हुआ है। भारत की दिव्य भूमि पर एक से बढ़कर एक त्रिलोक विजयी, चक्रवर्ती सम्राट, दिग्विजयी और पराक्रमी राजा हुए, फिर भी हम एक हजार वर्ष तक विधर्मियों के गुलाम रहे। खैबर दर्रे को पार करके ऊंटों पर सवार होकर कुछ विदेशी लुटेरे आये और उन्होंने हमें परास्त करते हुए न केवल मठ-मंदिर लूटे, महिलाओ की अस्मत लूटी, बल्कि दिल्ली के सिंहासन पर भी अपना कब्जा जमा लिया। इसका सबसे बड़ा कारण था, उस समय के धर्माचार्यो का यह कहना कि युद्ध केवल केवल क्षत्रिय लड़ेगा। युद्ध में जो बंंदी बना लिए गए और जो विधर्मियो का छुआ खा लिये, पानी पी लिए, उन्हें अछूत मानकर हिन्दू धर्म से निकाल दिया गया। हिन्दू धर्म में वापसी का कोई रास्ता न देख वो या तो मुसलमान हो गए या फिर ईसाई। हिन्दुओं की इसी कमजोरी का विधर्मियों ने भरपूर फायदा उठाया। आज इस देश में लाखों ऐसे मुसलमान और ईसाई हैं, जिनके पूर्वज कभी हिन्दू थे। हिन्दू समाज में बहुत सी धार्मिक भ्रांतियां रही हैं, जिसका निराकरण हिन्दू धर्माचार्यों द्वारा नहीं करने से हिन्दू धर्म को बेहद क्षति पहुंची है।
कई ऐसे अप्रवासी भारतियों से मेरी भेंट हुई, जो मुझसे ये जानना चाहते थे कि क्या समुद्र पार करके विदेश जाना हिन्दू शास्त्रों के अनुसार पाप है? मैंने उनसे कहा कि मैंने तो कहीं ऐसा पढ़ा नहीं। यदि ये सही होता तो हिन्दू हनुमान जी एवं राम जी की पूजा क्यों करते? आखिर वो भी तो समुद्र पार कर विदेश गए थे। एक दूसरी धार्मिक भ्रान्ति महाभारत ग्रन्थ को लेकर है कि इसे घर में रखने और पढ़ने से कलह होती है। सिर्फ इसी एक वजह से हमारे देश के करोडो हिन्दू श्रीमद्भगवद्गीता के उस सर्वोच्च ज्ञान से वंचित रह गये, जो दुनिया के किसी भी अन्य धर्मग्रन्थ में नहीं है। यही वजह थी कि श्रीमद्भगवद्गीता के सर्वोच्च ज्ञान को महाभारत से अलग कर हिन्दुओं के मुख्य धार्मिक ग्रन्थ के रूप में मान्यता देनी पड़ी। अब भी श्रीमद्भगवद्गीता को लेकर यह धार्मिक भ्रान्ति जनमानस में बनी हुई है कि श्रीमद्भगवद्गीता को मत पढ़ो, नहीं तो साधु और वैरागी हो जाओगे। जबकि सच यह है कि श्रीमद्भगवद्गीता का ज्ञान साधू और वैरागी नहीं, बल्कि बीतरागी और मानवतावादी बनाता है। यह मानव जीवन के चारो पुरुषार्थों की सिद्धि में सहायक है। यह हिंदुओं को एकजुट करने वाला और एक सर्वव्यापी परमात्मा के प्रति असीम श्रद्धा पैदा करने वाला एकमात्र धार्मिक ग्रन्थ है। आज पूरे विश्व में इसके प्रचार-प्रसार की जरुरत है। श्रीमद्भगवद्गीता का सर्वोच्च और समृद्ध ज्ञान ही भारत को पुनः वैभवशाली, पराक्रमी, दिग्विजयी और विश्व गुरु बनाएगा।
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(आलेख और प्रस्तुति= सद्गुरु श्री राजेंद्र ऋषि जी, प्रकृति पुरुष सिद्धपीठ आश्रम, ग्राम- घमहापुर, पोस्ट- कन्द्वा, जिला- वाराणसी.पिन- २२११०६)
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