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डॉक्टर भीमराव रामजी अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म क्यों छोड़ा?

सद्गुरुजी
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डॉ. भीमराव रामजी अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म क्यों छोड़ा ?
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बौद्ध धर्म दीक्षा के तीन रत्न निम्न प्रकार से हैं-
बुद्धं सरणं गच्छामि : मैं बुद्ध की शरण लेता हूँ।
धम्मं सरणं गच्छामि : मैं धर्म की शरण लेता हूँ।
संघं सरणं गच्छामि : मैं संघ की शरण लेता हूँ।

यो च बुद्धं च धम्मं च संघं च सरणं गतो।
चत्तारि अरिय सच्चानि सम्मप्पञ्ञाय पस्सति॥

जो आदमी बुद्ध, धर्म और संघ की शरण में आता है, वह सम्यक्‌ ज्ञान से चार आर्य सत्यों को जान लेता है। आर्य का अर्थ है सनातन या अनादि। सम्यक् ज्ञान का अर्थ है- प्रत्यक्ष बोध, अनुमान और योग सिद्ध आप्त पुरुषों के वचन। इन्द्रियों के द्वारा प्राप्त सम्यक ज्ञान कभी कभी असत्य और अपूर्ण भी होता है, इसलिए मेरे विचार से उच्चस्तर का सम्यक ज्ञान गहरे ध्यान अथवा समाधि की भाव दशा में बिना इन्द्रियों की मदद से चेतना को प्रत्यक्ष अनुभूति के रूप में प्राप्त होता है।
दुक्खं दुक्खसमुप्पादं दुक्खस्स च अतिक्कमं।
अरियं चट्ठगिंकं मग्गं दुक्खूपसमगामिनं॥

चार आर्य सत्य हैं- दुःख, दुःख का हेतु, दुःख से मुक्ति और दुःख से मुक्ति की ओर ले जाने वाला अष्टांगिक मार्ग। सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाक, सम्यक कर्मांत, सम्यक आजीव, सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति, सम्यक समाधि आदि आष्टांगिक मार्ग है। सम्यक का अर्थ है- सही, संतुलित, पवित्र और सत्यता से परिपूर्ण जीवन दृष्टि। सम्यक समाधि का अर्थ है- आष्टांगिक मार्ग पर यदि पूरी निष्ठा और ईमानदारी से चलेंगे तो चित्त एकाग्र होता चला जायेगा और अन्तोगत्वा बौद्ध धर्म के सर्वोच्च शिखर निर्विकल्प प्रज्ञा की अनुभूति तक पहुँच सकेंगे।
एतं खो सरणं खेमं एतं सरणमुत्तमं।
एतं सरणमागम्म सव्वदुक्खा पमुच्चति॥

इसी मार्ग की शरण लेने से वास्तविक कल्याण होता है और मनुष्य सभी दुःखों से छुटकारा पा लेता है। बहुत संक्षेप में बौद्ध धर्म की यही शिक्षा-दीक्षा है, जिससे भारतीय संविधान के मुख्य शिल्पकार और भारत रत्न से सम्मानित डॉ॰ भीमराव रामजी अंबेडकर इतने प्रभावित हुए कि १४ अक्टूबर १९५६ को नागपुर में आयोजित एक विशाल सार्वजनिक समारोह में एक बौद्ध भिक्षु से पारंपरिक तरीके से तीन रत्न ग्रहण और पंचशील को अपनाते हुये बौद्ध धर्म ग्रहण किया। बौद्ध धर्म में पंचशील का महत्वपूर्ण स्थान है। ये पांच शील इस प्रकार हैं-
१- प्राणी मात्र की हत्या से दूर रहना,
२- चोरी से विरत रहना,
३-व्यभिचार से विरत रहना,
४-झूठ से विरत रहना तथा
५- शराब व अन्य मादक द्रव्यों से विरत रहना।

इस ऐतिहासिक समारोह में उन्होंने अपने आठ लाख अनुयायियों को न सिर्फ बौद्ध धर्म ग्रहण कराया, बल्कि उनसे २२ प्रतिज्ञाएँ भी कराई, जिसमे हिन्दू धर्म की कटु आलोचना से संबंधित कुछ मुख्य थीं-
१- मैं ब्रह्मा, विष्णु और महेश में कोई विश्वास नहीं करूँगा और न ही मैं उनकी पूजा करूँगा।
२- मैं राम और कृष्ण, जो भगवान के अवतार माने जाते हैं, में कोई आस्था नहीं रखूँगा और न ही मैं उनकी पूजा करूँगा।
३- मैं गौरी, गणपति और हिन्दुओं के अन्य देवी-देवताओं में आस्था नहीं रखूँगा और न ही मैं उनकी पूजा करूँगा।
४- मैं भगवान के अवतार में विश्वास नहीं करता हूँ।
५- मैं श्राद्ध में भाग नहीं लूँगा और न ही पिंड-दान दूँगा.
६- मैं यह नहीं मानता और न कभी मानूंगा कि भगवान बुद्ध विष्णु के अवतार थे. मैं इसे पागलपन और झूठा प्रचार-प्रसार मानता हूँ।
७- मैं ब्राह्मणों द्वारा निष्पादित होने वाले किसी भी समारोह को स्वीकार नहीं करूँगा।
८- मैं हिंदू धर्म का त्याग करता हूँ जो मानवता के लिए हानिकारक है और उन्नति और मानवता के विकास में बाधक है क्योंकि यह असमानता पर आधारित है, और स्व-धर्मं के रूप में बौद्ध धर्म को अपनाता हूँ।

अंबेडकर द्वारा अपने आठ लाख अनुयायियों के साथ धर्मान्तरण करने और उनके लिए लिए बनाई गईं ये प्रतिज्ञाएँ पढ़कर किसी को भी ऐसा लगेगा कि अम्बेडकर हिन्दू धर्म के विरोधी थे, परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। १४ अप्रैल, १८९१ को उनका जन्म १४वीं संतान के रूप में ब्रिटिशों द्वारा स्थापित केन्द्रीय प्रांत (जो अब मध्य प्रदेश के रूप में विद्यमान है) की सैन्य छावनी मऊ में हुआ था। उनके पिताजी ब्रिटिश शासन के समय की भारतीय सेना में सेवारत थे और सूबेदार के पद तक पहुँचे थे। उनका मराठी परिवार अंबावडे नगर (जो आधुनिक महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले मे है) से संबंधित था और कबीर पंथ से जुड़ा हुआ था। अम्बेडकर के पिता रामजी मालोजी सकपाल और माता भीमाबाई हिंदू महार जाति से संबंध रखते थे, जो उस समय अछूत मानी जाती थी। कबीरपंथ से जुड़ाव होते हुए भी उन्होंने अपने बच्चों को हिंदू ग्रंथों को पढ़ने के लिए सदैव प्रोत्साहित किया। महाभारत और रामायण को पढ़ने के लिए उन्होंने विशेष जोर दिया। यही वजह थी कि अम्बेडकर ने बचपन में ही बहुत से हिन्दू ग्रंथों का गहन अध्ययन कर लिया था। हिन्दू धर्म के आदर्शवादी और आध्यात्मिक विचारों से वो बहुत प्रभावित थे, परन्तु सरकारी स्कूल में जब पढ़ने जाते थे तो अपनी जाति के लिए सामाजिक प्रतिरोध और अस्पृश्य व्यवहार देख बहुत दुखी हो उठते थे।
वो पढ़ने-लिखने में बहुत तेज थे, परन्तु केवल निम्न जाति का होने के कारण उनको और उनके जैसे निम्न जाति के अन्य अस्पृश्य बच्चों को विद्यालय मे कक्षा के बाहर अलग बिठाया जाता था। उनको कक्षा के अन्दर बैठने की अनुमति नहीं थी। अधिकतर अध्यापक इन अस्पृश्य बच्चों की पढाई-लिखाई की ओर न तो ध्यान देते थे और न ही उनकी कोई सहायता करते थे। छुआछूत और भेदभाव का अमानवीय व्यवहार इतना ज्यादा था कि अस्पृश्य बच्चों को प्यास लगने प‍र स्कूल का चपरासी या कोई अन्य ऊँची जाति का व्यक्ति ऊँचाई से उनके हाथों पर पानी गिराकर उन्हें पानी पिलाता था, क्योंकि उनको न तो पानी, न ही पानी के पात्र को स्पर्श करने की अनुमति थी। ऊँची जाति के लोंगो की यह दृढ मान्यता थी कि ऐसा करने से पात्र और पानी दोनों अपवित्र हो जायेंगे। अस्पृश्य बच्चों को पानी पिलाने का काम स्कूल का चपरासी करता था। उसकी अनुपस्थिति में अक्सर अस्पृश्य बच्चों को बिना पानी के ही प्यासे रह जाना पड़ता था। बचपन से ही स्वनुभूत जातिगत भेदभाव वाली यही पीड़ा अम्बेडकर को जीवनपर्यंत तक अछूतोद्धार करने की प्रेरणा देती रही। ब्रिटिश काल में उन्होंने दलितों को अल्पसंख्यकों की तरह पृथक निर्वाचन मंडल दिलाया, जिसका विरोध करते हुए गांधीजी ने आमरण अनशन किया। उन्होंने ऊँची जाति के हिन्दुओं द्वारा निजी सम्पत्ति घोषित कर सार्वजनिक तालाब से अछूतों को पानी लेने से रोकने के खिलाफ न सिर्फ सत्याग्रह किया, बल्कि १९२७ में मुकदमा भी लड़ा और बंबई उच्च न्यायालय में यह मुक़दमा जीता।
अम्बेडकर ने मंदिरों में अछूतों के प्रवेश करने पर पुजारियों द्वारा लगाई गई रोक के खिलाफ भी संघर्ष किया और लम्बे संघर्ष के बाद अंत में विजयी हुए। अछूतों को ऊँची जाति के लोंगो की भांति सम्मान से जीने के सारे अधिकार दिलाने के लिए अम्बेडकर ने आजीवन संघर्ष किया। वो दलित-वर्ग के लिए किसी मसीहा से कम नहीं थे। एक ऐसे मसीहा जो जीवन भर दलितों को संगठित करने के लिए और जीवन के मूलभूत अधिकारों को पाने के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा देते रहे और अपने मृत्युपरांत भी दलित समाज को अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा दे रहे हैं। अम्बेडकर आज भी दलित-समाज के लिए सबसे बड़े प्रेरणास्त्रोत हैं। उन्होंने बौद्ध धर्म की दीक्षा लेने के बाद मात्र ५४ दिनों में बौद्ध धर्म का कायाकल्प कर दिया। उन्होंने खुद बौद्ध धर्म से जुड़ने के बाद लाखों करोडो दलितों को बौद्ध धर्म से जोड़ा। यही वजह है कि देश के अधिकतर बौद्ध मंदिरों और मठों में महात्मा बुद्ध की प्रतिमा या फोटो के समीप अम्बेडकर की तस्वीर भी लगी रहती है। अम्बेडकर बचपन से ही भारतीय समाज में सर्वव्यापित जाति व्यवस्था से पीड़ित और खिन्न थे। जाति व्यवस्था का विरोध करने पर उन्हें ऊँची जाति के लोग हिन्दू शास्त्रों का प्रमाण देते हुए समझाते थे कि समाज के चार वर्णों- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की रचना स्वयं भगवान ने की है, इसलिए इसका विरोध नहीं करना चाहिए। यदि आप विरोध करते हैं तो शास्त्रों और हिन्दू धर्म के खिलाफ जा रहे हैं।
शूद्र घोर कष्ट सहकर भी तीनो उच्च वर्गों- ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य की सेवा करने के लिए ही पैदा हुए हैं। उच्च वर्ग के लोंगो की ऐसी भेदभावपूर्ण, अमानवीय और अज्ञानताभरी ओछी मानसिकता देखकर ही अम्बेडकर ने ये महसूस किया कि जाति व्यवस्था को खत्म करने के लिए और उच्च वर्ग के लोंगो की ओछी मानसिकता को बदलने के लिए हिन्दुओं के उन धर्मशास्त्रों का त्याग और बहिष्कार करना चाहिए, जो जाति व्यवस्था का गुणगान गाते हैं। अपने जीवन के शुरूआती दिनों में अम्बेडकर हिन्दू धर्म को छोड़ना नहीं चाहते थे, बल्कि उसमे सुधार करना चाहते थे। कहा जाता है कि ‘अम्बेडकर’ ब्राह्मणोँ का जाति-नाम है और यह नाम उन्होंने हाईस्कूल के अपने एक ब्राह्मण शिक्षक से लिया था, जिनका वे बहुत आदर करते थे। परन्तु मेरे विचार से उनके पूर्वज महाराष्ट्र के अंबावडे नगर से जुड़े थे, इसलिए उन्होंने ये नाम चुना होगा। अम्बेडकर की पहली पत्नी रमाबाई से सगाई और शादी हिन्दू रीति से हुई थी। उनकी पहली पत्नी रमाबाई की एक लंबी बीमारी के बाद मृत्यु हो गई थीी। अपनी मृत्यु से पहले वो तीर्थयात्रा के लिये पंढरपुर जाना चाहती थीं, परन्तु अम्बेडकर ने उन्हें वहां न जाने की सलाह दी, क्योंकि उस हिन्दू तीर्थ मे उनकी जाति के लोंगो को अछूत माना जाता था और दलितों के साथ बहुत अशोभनीय व्यवहार किया जाता था।
दलितों का बड़ा और लोकप्रिय नेता होने के वावजूद भी डा॰ अम्बेडकर के साथ जीवन में कई बार अपमानजनक व्यवहार हुआ, भेदभाव किया गया, लेकिन उन्होंने कभी अपना आपा नहीं खोया। उन्होंने दलितों के लिए लड़ी जाने वाली अपनी लड़ाई शांतिपूर्वक लड़ी और उन्हें ह्रदय से लगाकर सम्मानजनक जीवन प्रदान दिया। ऐसे महामानव के साथ २३ अक्टूबर १९२९ को जातिगत भेदभाव से परिपूर्ण एक ऐसी दुखद घटना घटी, जिसने उन्हें जीवन भर शारीरिक और मानसिक कष्ट दिया। डॉ. बाबा साहब अम्बेडकर पूर्व खानदेश के दौरे पर ‘चालीस’ गाव गए हुए थे। स्टेशन पर स्थानीय दलित समाज ने उनका ज़ोर-शोर से स्वागत किया और उन्हें अपने साथ अपने निवास स्थान पर ले जाना चाहते थे, किंतु अछूत जानकर कोई तांगेवाला उन्हें अपने तांगे पर बिठाने को तैयार न था। एक तांगेवाला बड़ी मुश्किल से जाने को तैयार हुआ, परन्तु वो अपनी एक शर्त रखते हुए बोला-” मै इनको एक शर्त पर अपने तांगे पर ले जा सकता हूँ। मेरी शर्त ये है कि जिस समय ये तांगे पर बैठे होंगे, मै स्वयं तांगे पर नहीं बैठूँगा। कोई ‘अछूत’ ही तांगा हांकेंगा, मै तांगे के साथ साथ पैदल चलूँगा। दलित समाज के सदस्यों को उस तांगे वाले की यह अपमानजनक और अमानवीय शर्त स्वीकार नहीं करनी चाहिए थी। भले ही वो डा॰ अम्बेडकर को पैदल ले जाते। डा॰ अम्बेडकर साहब तांगे पर बैठे, और एक ‘अछूत’ भाई ही तांगे को हांकने लगा। या तो उस ‘अछूत’ भाई को तांगा हांकना नहीं आता था, या फिर उस तांगे का घोडा ही बिगड़ैल था, जिसने ऐसी दुल्लत्ती चलाई कि तांगा उलट गया। डा॰ अम्बेडकर साहब तांगे से ज़मीन पर आ गिरे। उन्हें बहुत चोट लगी। काफी दिनों तक वे चारपाई पर पड़े रहे। उनके दाएँ पाँव की एक हड्डी तक टूट गयी थी, जो उन्हें जन्मभर कष्ट देती रही।
अम्बेडकर ब्राह्मणों के नहीं बल्कि उनके द्वारा स्थापित छुआछूत और भेदभावपूर्ण ब्राह्मणवादी व्यवस्था के विरोधी थे। यदि वो ब्राह्मणों के विरोधी होते तो किसी ब्राह्मण लड़की से कभी शादी नहीं करते। उनकी दूसरी पत्नी सविता अम्बेडकर जन्म से सारस्वत ब्राह्मण थी। डा॰ अम्बेडकर का स्थायी आवास “राजगृह”, बम्बई के एक ब्राह्मण बहुल मोहल्ले मेँ बना था। सन् १९३७ के चुनाव मेँ डा॰अम्बेडकर ने ब्राह्मणोँ के साथ चुनावी गठबंधन किया था। डा॰ अम्बेडकर दालितोद्धार के कारण आर्य समाज का और स्वामी श्रद्धानंद का बहुत सम्मान करते थे। डा॰अम्बेडकर मानते थे कि आर्य भारतीय थे और आर्य किसी जाति का नाम नहीं था। डा॰अम्बेडकर का ये दृढ विश्वास था कि शूद्र दरअसल क्षत्रिय थे और शूद्र यानि अछूत समाज के लोग भी आर्यो के समाज के ही अंग थे। उन्होंने इसी विषय पर एक पुस्तक लिखी थी- “शूद्र कौन थे”। डा॰अम्बेडकर के समय में काले रंग के लोंगो को अनार्य और शूद्र समझा जाता था। अम्बेडकर ने इस धारणा का खंडन किया कि आर्य गोरी नस्ल के ही थे। ऋग्वेद, रामायण और महाभारत से उद्धरण देकर उन्होंने संसार को बताया कि आर्य सिर्फ गौर वर्ण के ही नहीं, बल्कि श्याम वर्ण के भी थे।
ऋग्वेद में श्याव और रुक्षती के विवाह का वर्णन है। श्याव श्याम वर्ण का और रुक्षती गौर वर्ण की है। ऋग्वेद की एक प्रार्थना में ॠषि कहते हैं कि उन्हें पिशंग वर्ण अर्थात भूरे रंग का पुत्र चाहिए। दशरथ के पुत्र राम और यदुवंशी कृष्ण भी श्याम वर्ण के थे। जाति व्यवस्था को ख़त्म करने के लिए डा॰अम्बेडकर ने हिन्दू धर्माचार्यों, महात्मा गांधी और कांग्रेस से मदद लेनी चाही, परन्तु उन सबने उन्हें निराश ही किया। गांधीजी द्वारा दलितों को ‘हरिजन’ नाम देने से डा॰अम्बेडकर बहुत नाराज थे, क्योंकि वो ये सोचते थे कि इससे दलितों का शोषण और बढ़ेगा। पूरे संसार भर में दलितों का सबसे ज्यादा शोषण धर्म और भगवान के नाम पर ही हो रहा है। डा॰अम्बेडकर ने जाति व्यवस्था के उन्मूलन के प्रति हिन्दू धर्माचार्यों, महात्मा ग़ांधी, कांग्रेस और अन्य राजनीतिक दलों की कथित उदासीनता से निराश और खिन्न होकर ही अस्पृश्य समुदाय के लिये एक अलग राजनैतिक पहचान बनाने की वकालत करते हुए १९३६ में ‘स्वतंत्र लेबर पार्टी’ की स्थापना की, जिसे बाद में ‘अखिल भारतीय अनुसूचित जाति फेडरेशन’ में बदल दिया गया।
सन १९४५ में अम्बेडकर ने गांधी और कांग्रेस दोनो पर दलितों के लिए कुछ नहीं करने और दलित प्रेम का महज ढोंग करने का आरोप लगाते हुए एक पुस्तक लिखी- ‘वॉट कॉंग्रेस एंड गांधी हैव डन टू द अनटचेबल्स’ (काँग्रेस और गान्धी ने अछूतों के लिये क्या किया है) सन १९५० तक अम्बेडकर ने हिन्दू समाज, हिन्दू धर्माचार्यों और हिन्दू नेताओं के जरिये हिन्दू धर्म में जाति व्यवस्था का उन्मूलन कर क्रान्तिकारी सुधार करने का असफल और मानसिक रूप से बेहद निराश कर देने वाला प्रयास किया। इस विषय पर लोंगो की मानसिकता बदलती न देख उन्होंने बहुत दुखी मन से निर्णय लिया कि हिन्दू धर्म में पैदा होना मेरे वश में नहीं था, परन्तु इसे छोड़ना तो मेरे वश में है। हिन्दू धर्म छोड़ने का निर्णय लेने के बाद वो पहले इस्लाम धर्म की तरफ आकृष्ट हुए थे, परन्तु इस्लाम धर्म में दलितों, महिलाओं और गुलामों की दुर्दशा और शोषण देख वो उसे नहीं अपनाने का फैसला किये। काफी सोच विचार के बाद उन्होंने बौद्ध धर्म अपनाने का फैसला किया और उन्होंने ६ दिसंबर, १९५६ को शरीर छोड़ने से महज ५४ दिन पहले १४ अक्टूबर १९५६ को अपने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म अपना लिया। यह ऐतिहासिक था, क्योंकि यह विश्व का सबसे बड़ा धर्म परिवर्तन था। भारत के संविधान निर्माता डॉ. भीमराव रामजी अम्बेडकर जीवन भर जाति व्यवस्था के उन्मूलन का प्रयास करते रहे, हिंदुओं को एकजुट करने का प्रयास करते रहे, परन्तु असफल होकर और थक हर कर अपने जीवन के अंत में बौद्ध धर्म अपना लिये।
उनके साथ उनके लाखों अनुयायी भी बौद्ध धर्म अपना लिये थे। अम्बेडकर ने कहा था कि ‘मैं हिन्दू जन्मा अवश्य हूँ इसमें मेरा कोई वश नहीं था, किन्तु मैं हिन्दू रहकर मरूँगा नहीं’। उनके कहे इन शब्दों का असर दलितों पर आज भी कायम है। अम्बेडकर जयन्ती पर हर साल लाखो लोग बौद्धिष्ट बन रहे हैं। उत्तर प्रदेश अैार बिहार के बहुत से हरिजन अपने को बौद्ध लिखने लगे हैं और बौद्ध रीति से अपने शादी विवाह व अंतिम संस्कार करने लगे हैं। पहले सिख ये मानते थे कि हिन्दू धर्म की रक्षा के लिये उनका पंथ बना, परन्तु अब वो मानते हैं कि सिख एक अलग धर्म है, जिसका हिन्दू धर्म से कोई लेना देना नहीं है। केरल सहित देश के कई राज्यों में करोड़ों हिन्दू भेदभाव से परेशान होकर और ईसाई मिशनरियों द्वारा दिए गए लोभ लालच में फंसकर ईसाई हो गये। आजादी के बाद से लेकर अबतक लाखों हिन्दू मुसलमान बन गये। हिन्दू धर्म में अबतक हुए विघटन के मूल कारण जाति-पाँति, छुआछूत और जातीय विद्वेष को जबतक हम ख़त्म नहीं करेंगे, तबतक हम सिर्फ ‘घर वापसी’ का ड्रामा’ भर करते रहेंगे और दिन प्रतिदिन विघटित होकर कमजोर ही होते चले जायेंगे। यदि हम अब भी नहीं चेते और जाति-पाँति, छुआछूत और जातीय विद्वेष का नाम ही हिन्दू धर्म समझते रहे तो भगवान ही जाने कि आने वाले समय में कितने लोग हिन्दू रह जायेंगे?
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(आलेख और प्रस्तुति= सद्गुरु श्री राजेंद्र ऋषि जी, प्रकृति पुरुष सिद्धपीठ आश्रम, ग्राम- घमहापुर, पोस्ट- कन्द्वा, जिला- वाराणसी.पिन- २२११०६)
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