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चल उड़ जा रे पंछी, के अब ये देस हुआ बेगाना – संस्मरण

सद्गुरुजी
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चल उड़ जा रे पंछी, के अब ये देस हुआ बेगाना – संस्मरण
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कई महीने पहले एक देसी कबूतर और कबूतरी आश्रम में प्रवेश किये। वो दोनों आश्रम के गेट के पास लगे साउंड बॉक्स के ऊपर बैठने लगे। पहले तो वो दोनों कुछ देर के लिए आते थे, परन्तु धीरे धीरे वो अधिक समय तक साउंड बॉक्स पर बैठने लगे। दोनों आपस में कभी मिलजुलकर गुटरगूँ करते तो कभी तेज कर्कश आवाज के साथ आपस में झगड़ा भी करते.थे। पत्नी को चिढ़ाने के लिए मैं उनसे कहता था कि देखो मिस्टर एंड मिसेज कबूतर आपस में कितने प्यार से झगड़ा कर रहे हैं..
मेरी पत्नी चिढ़कर कहती थीं- झगड़ा तो होगा ही.. कबूतरी कितना मेहनत करती है.. और कबूतर बैठ के आराम करता है.. उसे तो बस भोगने के लिए औरत और चौबीस घंटे आराम चाहिए.. मर्द चाहे किसी भी योनि में क्यों न चले जाएँ.. वो बहुत ठाटबाट से और आराम से रहते हैं.. अौरत चाहे किसी भी योनि में चली जाये.. उसे तो सुबह से शामतक खटना ही है..
मेरी पत्नी को कबूतरों की कर्कश आवाज पंसद नहीं आती थी। दोपहर को उनके सोने में खलल जो पड़ता था। परन्तु मेरी बिटिया को कबूतरों का ये जोड़ा बहुत पसंद था। जब वो अपने पंख फड़फड़ाते हुए आते जाते और दीवार पर टंगे साउंड बॉक्स पर बैठते तो मेरी बिटिया खुश हो जाती और अपने पैर उचकाते हुए अपनी तोतली जबान में कहती- दिखा.. उसे गोद में लेकर कबूतर का जोड़ा दिखाना पड़ता था।
उन्होंने तिनके और पेड़ों की छोटी छोटी सूखी टहनियाँ लाकर घोसला बनाना शुरू किया। नीचे फर्श पर तिनके और टहनियाँ दिनभर विखरे दिखाई देने लगे। आश्रम के कई शिष्यों ने घोसला हटाने की इजाजत मांगी, परन्तु मैंने उन्हें घोसला हटाने से मना कर दिया- रहने दो.. ये बच्चा जन्मने के लिए आये हैं.. बच्चा लेकर चले जायेंगे तो घोसला हटा दिया जायेगा..
कुछ दिनों के बाद सफ़ेद अंडे का छिलका फर्श पर गिरा हुआ दिखा। जब बिटिया का मूड ख़राब होता था तो उसे गोद में लेकर कबूतर के जोड़े को दिखाते हुए कहता था- वो देखो पापा मम्मी हैं.. अब इनका एक बाबू आएगा.. वो बाबू तुम्हारे साथ खेलेगा.. तुम उससे पूछना.. मेरे साथ खेलेगा,. पानी पियेगा.. दूध पियेगा.. खाना खायेगा..
एक दिन मेरी श्रीमतीजी ने मुझे आकर बताया कि कबूतर का एक नन्हा सा बच्चा साउंडबॉक्स पर इधर उधर टहलते हुए दिख रहा है। मैंने आश्रम के गेट के पास जाकर साउंडबॉक्स के ऊपर देखा तो मुझे एक नन्हा सा कबूतर का बच्चा दिखा। बहुत प्यारा और सुन्दर लगा.. नन्हा सा बच्चा चाहे किसी भी जीव का क्यों न हो कितना प्यारा लगता है.. मैं बिटिया को गोद में उठाकर दिखाया। कबूतर का बच्चा देखकर वो ख़ुशी के मारे चिल्लाने लगी- बाबू.. कबूतर का बाबू..
उसने उस कबूतर के बच्चे से पूछना शुरू कर दिया- मेरे साथ खेलेगा,. पानी पियेगा.. दूध पियेगा.. खाना खायेगा.. दिन में कई बार वो जिदकर मेरी गोदी में चढ़ जाती और उस कबूतर के बच्चे से वही सब रटी रटाई बातें पूछना शुरू कर देती। उस कबूतर के बच्चे से मेरी बिटिया का लगाव दिनोदिन बढ़ने लगा। वो समझ गई थी कि जैसे मेरे मम्मी पापा हैं, वैसे ही इस नन्हे से कबूतर के भी उसके पास रहने वाले कबूतर कबूतरी मम्मी पापा हैं। उसके लिए तीन शब्द कंठस्थ हो गए थे- पापा मम्मी और बाबू.. जब कबूतर कबूतरी नहीं दीखते तो मेरी बिटिया नन्हे कबूतर को देखते हुए कहती थी कि बाबू के पापा मम्मी उसके लिए दूध लेने गए हैं.. उसके लिए रोटी लेने गए हैं.. उस नन्हे से कबूतर के बच्चे के लिए मेरी बिटिया बहुत चिंता और तनाव में रहती थी। अक्सर अपने हाथ में ली हुई रोटी ऊपर उठाते हुए कहती थी कि ले बाबू .. खा ले..
एकदिन सुबह कबूतरों की कर्कश आवाज गूंज रही थी। मेरी पत्नी झाड़ू लगाते हुए बड़बड़ा रहीं थीं- आप सब साफ सफाई कराके इन सब को भगा क्यों नहीं देते हैं.. दिनभर शोर करते हैं सब.. अब तो इनका बच्चा भी बड़ा हो गया है..
कुछदिन और रुको.. ये सब चले जायेंगे तो सब साफ सफाई करा दूंगा.. जाने के बाद फिर शायद ही लौट के आएं.. बिटिया को कुछदिन और इनके साथ खेल लेने दो.. घर में कोई बच्चा और नहीं है.. इसीलिए ऊब जाती है- मैं बोला।
ये देशी कबूतर बहुत मतलबी होते हैं.. ये जाने के बाद फिर लौट के नहीं आते हैं.. -पत्नी बोलीं।
ये तो शाश्वत सन्देश देते हैं.. दुनिया से जाने के बाद कौन लौट के आता है.. तभी तो कहा जाता है की सारी दुनिया मतलबी है.. -मैं बोला।
आप बात को कहाँ से कहाँ ले जाते हैं..-वो चिढ़कर बोलीं।
स्वामीजी.. जरा इधर आइये तो.. -थोड़ी देर बाद मेरी पत्नी मुझे पुकारने लगीं।
मैं आश्रम के गेट के पास पहुंचा तो वो दुखी स्वर में बोलीं- स्वामीजी.. बिल्ली रात को कबूतर का बच्चा खा गई.. चारपाई के नीचे कबूतर के बच्चे का पंख मिला है.. फर्श पर खून जमा हुआ है.. मैं खिड़की पर चढ़ साउंडबॉक्स के ऊपर देखीं हूँ.. वहांपर बच्चा नहीं है.. ये कबूतर का जोड़ा अपने बच्चे को ढूंढ रहा है.. बच्चे को न पाकर ये आज भोर से ही कर्कश आवाज में चीख चिल्ला रहे हैं..
पत्नी के मुंह से ये सब सुनकर मैं सन्न रह गया। ये सब बहुत दुखद था। कबूतर का जोड़ा इधर उधर भागते हुए गुटुरगुं की बहुत दर्दनाक और कर्कश आवाज अपने मुंह से निकाल रहे।
मेरी पत्नी फर्श साफ करते हुए बोलीं- आप आज साउंडबॉक्स के ऊपर से ये घोसला हटवाइये.. मैं आपसे कबसे कह रही हूँ कि घर के अंदर किसी पक्षी का घोसला बनाना ठीक नहीं है.. पर आप मेरी सुनते कहाँ हैं..
मैं चाहता था कि ये यहाँ से अपना बच्चा ले के जाएँ.. ये जिस कामना से आये थे वो पूरा हो.. दुर्भाग्य से इनकी कामना पूरी नहीं हुई.. जैसी ईश्वर की इच्छा.. -मैं दुखी स्वर में बोलाी।
मेरी बिटिया गेट के पास पड़ी चारपाई पर गहरी नींद में सो रही थी। मैं एक गहरी साँस खींचते हुए उसके बारे में सोचने लगा कि जब उठेगी तो कबूतर के बच्चे को न देख परेशान करेगीमैं मैं बहुत परेशान व दुखी मन से नहाने चला गया।

प्रात: नौ बजे दो आश्रम के शिष्य आये तो मैंने उन्हें साउंडबॉक्स के ऊपर लगा कबूतरों का घोसला हटाने को कहा। वो घर के अंदर से लकड़ी की बड़ी मेज लाकर साफ सफाई में जुट गए। आश्रम के गेट के पास इधर उधर बैठकर अपने मरे बच्चे के लिए दुखी स्वर में चिल्ला रहे कबूतर के जोड़े को मैं उड़ाने की कोशिश करते हुए मैं बोला- जाओ.. भाई जाओ.. कहीं पर फिर घोसला बनाकर दो से तीन होने की फिर से कोशिश करो.. कभी सुख तो कभी दुःख.. कभी जीवन तो कभी मरण.. यही हमसबकी जीवनयात्रा का सार है मेरे भाई..
इस दुखी कबूतर के जोड़े को देखकर एक बहुत पुरानी फिल्म का गीत मुझे याद आ गया-
चल उड़ जा रे पंछी, के अब ये देस हुआ बेगाना
चल उड़ जा रे पंछी, के अब ये देस हुआ बेगाना
तूने तिनका तिनका चुनकर नगरी एक बसायी
बारीश में तेरी भीगी पाख़े, धूप में गर्मी खायी
ग़म ना कर जो तेरी मेहनत तेरे काम ना आई
अच्छा हैं कुछ ले जाने से दे कर ही कुछ जाना
चल उड़ जा रे पंछी, के अब ये देस हुआ बेगाना
चल उड़ जा रे पंछी, के अब ये देस हुआ बेगाना

मैं कबूतर के जोड़े को फिर उड़ाने की कोशिश किया। वो गेट से बाहर निकल खुले आसमान में उड़ गए। मुझे बहुत ख़राब लग रहा था कि मेरे द्वार से ये कबूतर का जोड़ा दुखी और निराश होकर गया है।
बिटिया प्रात:साढ़े नौ बजे सोकर उठी.उठते ही मेरे पास आकर अपने हाथ गोद में लेने के लिए ऊपर की ओर उठाते हुए बोली- पापा.. बाबू को दिखा..
मैं उसे गोद में उठा लिया। वो साफसुथरा कर दिए गए साउंड बॉक्स के ऊपर देखते हुए कबूतर के बच्चे को ढूंढते हुए हँसते हुए कहने लगी- बाबू.. मेरे साथ खेलेगा.. पानी पियेगा.. दूध पियेगा.. खाना खायेगा..
कुछ देर बाद कबूतर के बच्चे को न पाकर उसके चेहरे की हंसी गायब हो गई। वो सीरियस होकर मेरी ओर देखते हुए बोली- पापा.. बाबू.. बाबू के पापा मम्मी..
बिटिया वो लोग चले गए.. दूर बहुत दूर.. -मैं मुश्किल से बोल पाया।
मेरी बात सुनते ही वो मुंह बिचकाकर रोने लगी। मैं उसे अपने सीने से लगाकर उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोला- बिटिया.. इसी का नाम जीवनयात्रा है.. इस यात्रा में कही पर सुख है.. कहीं पर दुःख है.. कहीं पर जीवन है.. और कहीं पर मृत्यु है.. इस यात्रा में कभी कोई हमसे मिलता है.. तो कभी कोई हमसे बिछुड़ता है.. अंत में हम सबसे बिछुड़ के आनंद और करुणा के शाश्वतधाम उस परमपिता परमात्मा की गोद में जा समाते हैं.. जिससे बिछुड़कर ये जीवनयात्रा शुरू होती है..
उपसंहार- दो तीन महीने के बाद वो कबूतर का जोड़ा फिर मेरे आश्रम के साउंडबॉक्स पर डेरा जमा अपना घोसला बना लिया। पत्नी के कई बार कहने के वावजूद भी मैंने घोसला नहीं हटवाया। कबूतर का जोड़ा फिर आने से मेरी बिटिया बहुत खुश थी। अब उसे बाबू यानि कबूतर के बच्चे के आने का इन्तजार था। कुछ माह बाद कबूतर के दो छोटे छोटे बच्चे दिखाई देने लगे। हम सब लोग खुश थे। बिटिया की ख़ुशी का तो लोई ठिकाना ही नहीं था। कबूतर के बच्चे समझे या न समझें, पर वो दिनभर उनसे बतियाती रहती थी- बाबू.. मेरे साथ खेलेगा.. पानी पियेगा.. दूध पियेगा.. खाना खायेगा.. सौभाग्य से इस बार कोई दुखद हादशा नहीं हुआ। कबूतर के बच्चे बड़े हुए और एक दिन अपने माता-पिता के साथ आसमान में उड़ गए। हम दोनों पति-पत्नी बहुत खुश थे। कबूतर का जोड़ा इस बार हमारे द्वार से दुखी और निराश होकर नहीं गया। बिटिया भी बहुत खुश थी। वो इस बार रोई नहीं, बस हाथ हिलाकर ख़ुशी से चहकते हुए टाटा..बॉय..बॉय..करती रही। कबूतर और उसके परिवार को फलते फूलते देख हम सबकी आत्मा प्रसन्न थी। काश..दुनिया के सब प्राणियों की आत्मा इतनी पवित्र होती कि दूसरों को फलते फूलते देख प्रसन्न होती.. तो दुनिया में दुःख, हिंसा और नफरत नाम की चीज नहीं रह जाती।
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(संस्मरण और प्रस्तुति= सद्गुरु श्री राजेंद्र ऋषि जी, प्रकृति पुरुष सिद्धपीठ आश्रम, ग्राम- घमहापुर, पोस्ट- कन्द्वा, जिला- वाराणसी. पिन- २२११०६)
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