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कामाख्या मंदिर में दिव्य माहवारी या हिन्दू समाज से छल

सद्गुरुजी
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कामाख्या मंदिर में दिव्य माहवारी या हिन्दू समाज से छल
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कामाख्या मंदिर गुवाहाटी रेलवे स्टेशन से लगभग आठ किलोमीटर की दूरी पर स्थ्ति है। ये मंदिर गुवाहाटी की नीलांचल पहाड़ियों में स्थित है। इस मन्दिर में मुख्य देवी कामाख्या के अलावा देवी काली के अन्य रूप जैसे धूमावती, मातंगी, बगला, तारा, कमला, भैरवी, छिन्नमस्ता, भुवनेश्वरी और त्रिपुरा सुंदरी भी हैं। ये मन्दिर कामाख्या रूपी एक तांत्रिक देवी को समर्पित है। कलिका पुराण’ में शिव की युवा दुल्हन और मुक्ति प्रदान करने वाली शक्ति को कामाख्या कहा गया है। ऐसी कथा हैं कि समाधिस्थ भगवान शिव को कामदेव ने कामबाण मारकर आहत किया था और समाधि से जागने पर भगवान शिव ने उसे भस्म कर दिया था। भगवती के महातीर्थ नीलांचल पर्वत पर देवी शक्ति के जननांगों और गर्भ से कामदेव को भगवान शिव के श्राप से मुक्ति थी और उन्हें पुन नया जीवनदान व एक नया सुन्दर रूप मिला था, इसीलिए यह क्षेत्र कामरूप के नाम से प्रसिद्द हुआ। कहा जाता है कि नया रूप पाने के बाद कामदेव ने ऋषि विश्वकर्मा से इस मंदिर का निर्माण कराया था और इसका नाम आनंदाख्य मंदिर रखा था, जो आगे चलकर कामाख्या हो गया।
संस्कृत भाषा में काम शब्द का अर्थ है प्रेम। ऐसी लोक मान्यता हैं कि इसी स्थान पर देवी सती और भगवान शिव के बीच प्रेम की शुरुआत हुई थी। उसी समय से ही यहाँ कामाख्या देवी की मूर्ति को रखा गया और उसकी पूजा शुरू हुई। पोराणिक मान्यता के अनुसार अपने पिता दक्ष के यज्ञ में शरीर-दहन करने वाली देवी सति के मृत देह का योनि भाग यहाँ पर गिरा था, इसलिए इस जगह पर सति यानि शक्ति की पूजा योनिरूप में होती है। यहां पर देवी-देवताओं की मूर्तियां सिंहासन पर रखी हुई हैं। मंदिर के भीतरी भाग से गर्भ-गृह की ओर जाने वाला एक संकरा रास्ता है, जिसे प्रद्क्षिणा-पथ भी कहते हैं। सीढयों से होकर नीचे गर्भ गृह में जाया जाता है। गर्भगृह में देवी की कोई मूर्ति नहीं है। वहां पर योनि के आकार का एक शिलाखंड है, जिसके ऊपर लाल रंग की गेरू के घोल की धारा गिराई जाती है। देवी का यह प्रतीक स्वरुप अंग हमेशा लाल कपड़े से ढ़्का रहता है। उस शिलाखंड के पास ही धरती में भीतरी योनि की आकृति की एक दरार है, जिससे एक फव्वारे की तरह जल निकलता है। श्रद्धालु उस जल को दिव्य मानते हुए उसकी पूजा करते हैं।
इस मंदिर में प्रतिवर्ष ‘अम्बूवाची’ पर्व का आयोजन होता है। लाखों लोंगो के एकत्रित होने से इस विशाल मेले को कामरूपों का कुंभ भी कहा जाता है। इसमें देश ही नहीं बल्कि दुनिया भर के ज्योतिषी, साधु और तांत्रिक हिस्‍सा लेते हैं। शक्ति के ये उपासक नीलांचल पर्वत की विभिन्न गुफाओं में बैठकर साधना करते हैं। ऐसी मान्यता है कि ‘अम्बूवाची’ मेले’ के दौरान मां कामाख्या रजस्वला होती हैं। कामाख्या देवी मंदिर में अम्बुबाची मेला’ इस वर्ष सन २०१५ में २२ जून से प्रारम्भ होकर २६ जून तक आयोजित हुआ। इस मेले में दस लाख से भी ज्यादा देशी-विदेशी लोंगो के शामिल होने का अनुमान लगाया जा रहा है। इस मेले में तंत्र-मंत्र-यंत्र साधना हेतु, सभी प्रकार की सिद्धियाँ एवं मंत्रों के पुरश्चरण हेतु देश ही नहीं बल्कि विदेश से भी बहुत बड़ी संख्या में आने वाले तांत्रिकों-मांत्रिकों, साधुओं और अघोरियों का बहुत विशाल जमघट लगा था। ऐसा माना जाता हैं कि अम्बूवाची पर्व पर विभिन्न प्रकार की दिव्य आलौकिक शक्तियों का अर्जन किये हुए तंत्र-मंत्र में पारंगत साधक अपनी-अपनी मंत्र-शक्तियों को पुरश्चरण अनुष्ठान कर स्थिर और सुरक्षित करते हैं।
कामाख्या देवी मंदिर वाममार्ग साधना का सर्वोच्च पीठ माना जाता है। कहा जाता है कि मछन्दरनाथ, गोरखनाथ, लोनाचमारी, ईस्माइलजोगी इत्यादि तंत्र साधक जो सांवर तंत्र में अपना विशेष स्थान बनाकर अमर हो गये हैं, वो सब यही पर अपनी तंत्र साधना पूर्ण किये थे। इस वर्ष मनाये गए अम्बूवाची पर्व के दौरान २२, २३ और २४ जून को देवी को दिव्य माहवारी हुई। देवी की दिव्य माहवारी के दौरान तीन दिन के लिए मंदिर का द्वार बंद कर दिया गया। चौथे दिन विशेष पूजा-अर्चना के पश्चात मंदिर के बंद कपाट खुलेे। बहुत से साधुओं और तांत्रिकों के अनुसार अम्बूवाची योग पर्व के दौरान मां भगवती के गर्भगृह के कपाट स्वत ही बंद हो जाते हैं और उनका दर्शन भी निषेध हो जाता है। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार अम्बूवाची पर्व के दौरान माँ भगवती रजस्वला होती हैं और मां भगवती की गर्भ गृह स्थित महामुद्रा (योनि-तीर्थ) से निरंतर तीन दिनों तक जल-प्रवाह के स्थान से रक्त प्रवाहित होता है।
करोड़ों हिन्दू कलिकाल में इसे एक अद्भुत आश्चर्य का विलक्षण नजारा मानते है। इस पर्व में मां भगवती के रजस्वला होने से पूर्व गर्भगृह स्थित महामुद्रा (योनि के आकार का शिलाखंड) पर सफेद वस्त्र चढ़ाये जाते हैं, जो कि रक्तवर्ण हो जाते हैं। मंदिर के पुजारियों द्वारा मनमानी दक्षिणा लेकर ये वस्त्र प्रसाद के रूप में श्रद्धालु भक्तों में विशेष रूप से वितरित किये जाते हैं। बहुत से ज्योतिषी, साधू और तांत्रिक यहीं से ये वस्त्र खरीदते हैं और उसे अपने यहाँ ले जाकर उस वस्त्र के छोटे छोटे टुकड़े कर उसे ‘कमिया सिंदूर’ और ‘कमिया वस्त्र’ आदि नामों से मनमाने दामों पर बेचते हैं। मेरे एक ब्रह्मलीन गुरुदेव इसे ढोंग-पाखंड और कमाने-खाने का एक घटिया धंधा कहते थे। वो कहते थे कि किसी पत्थर को मासिक धर्म हो ही नहीं सकता है। उनके अनुसार उन्होंने अपनी युवावस्था में बकायदे इसकी खीजबीन भी की थी और छानबीन करने पर उन्होंने सत्य यह पाया था कि देवी को दिव्य माहवारी की बात झूठी है। जिसे लोग दिव्य माहवारी समझते हैं, वो दरअसल वहां पर काटे गए निरीह और बेजुबान पशुओं का खून होता है।
वो हमेशा यही कहते रहे कि सरकार को एक निष्पक्ष जांच कराकर इस झूठे अन्धविश्वास की सच्चाई आम जनता के सामने उजागर करनी चाहिए। यदि पूज्य गुरुदेव की बात सत्य साबित होती है तो यह करोड़ों हिन्दुओं के साथ की जा रही एक बहुत बड़ी धार्मिक ठगी सिद्ध होगी। ऐसी लोक मान्यता है कि कामाख्या देवी को मासिक धर्म होने के समय उनके दिव्य रक्त से ब्रह्मपुत्र नदी भी लाल हो जाती है। हालाँकि इस बात का कोई पौराणिक या ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है कि सालभर में एक बार होने वाली देवी के रजस्वला रक्त से ही नदी लाल होती है। बहुत से स्थानीय लोंगो का कहना है कि देवी के रजस्वला होते ही ब्रह्मपुत्र नदी में कामाख्या देवी मंदिर के पुजारियों द्वारा सिन्दूर डाल दिया जाता है जिससे नदी का पानी लाल रंग का प्रतीत होता है। यदि यह सत्य है तो लाखों-करोड़ों आस्थावान हिन्दू समाज के साथ धर्म के नाम पर किया जाने वाला इससे बड़ा छल-कपट और क्या हो सकता है? फिर तो देवी के रजस्वला होने या दिव्य माहवारी होने की बात भी झूठी साबित होगी। धर्म के नाम पर सदियों से ये ढोंग-पाखंड और ठगी हो रही है।
कहते हैं कि इन्ही सब बातों का खुलासा होने पर १६वीं सदी में इस मंदिर को नष्ट कर दिया गया था। आगे चलकर फिर १७वीं सदी में में कूच बिहार के हिन्दू राजा नर नारायण द्वारा इस मंदिर को पुन: बनवाया गया था। कामाख्या देवी को बहते हुए खून की देवी भी कहा जाये तो कोई गलत बात नहीं होगी। वहां पर रोज ही निरीह और बेजुबान पशुओं का रक्त पानी की तरह से बहता है। कामाख्या मां को रोज ही अनगिनत काले रंग के नर भैंसे, बकरी, बन्दर, कछुए, कबूतर और मछली इत्यादि की बलि चढ़ाई जाती है। प्राचीन काल में देवी को प्रसन्न करने के लिए आदमियों और नवजात शिशुओं की बलि भी चढाई जाती थी। बहुत से समाज सेवकों के विरोध करने पर और धीरे धीरे लोगों के जागरूक होने पर इस प्रथा को बंद कर दिया गया। सन १९९० की बात बात है। मै और मेरे एक मित्र कुछ काम से गुहाटी गये थे। कामाख्या देवी का हमने बहुत नाम सुना था, अतः उनके दर्शन करने का हमने विचार बनाया। हमलोग प्रात: पांच बजे नित्य क्रियाओं से निपट कामाख्या मंदिर का दर्शन करने गए।
वहाँ पर मंदिर के प्रांगण में पशुओं की बलि होते देख मेरा मन बहुत दुखी हो गया। मै सोचने लगा- ये कैसी माँ है, जिसके सामने रोज सैकड़ों पशुओं का खून पानी की तरह से बहता है और इसे बिलकुल भी दया नहीं आती है। इतना बड़ा खूनखराबा और इतनी बड़ी क्रूरता सबकुछ चुपचाप देखती है। हम लोग जल्दी से दर्शन कर मंदिर के बाहर निकल आये। मेरा मन बहुत दुखी और खिन्न हो गया था। ऐसे हिंसक हिन्दू धर्म से घृणा सी हो गई थी। उस क्षण मुझे सभी धर्मों से अच्छा बौद्ध धर्म लगा। इस मंदिर में मादा पशुओं की बलि नहीं दी जाती है, लेकिन नर पशुओं पर कोई दया नहीं की जाती है। आद्य-शक्ति कामाख्या देवी के कौमारी रूप में सदा विराजमान होने से सती स्वरूपिणी आद्यशक्ति महाभैरवी कामाख्या तीर्थ को विश्व का सर्वोच्च कौमारी तीर्थ भी कहा जाता है, क्योंकि इस शक्तिपीठ में कौमारी-पूजा अनुष्ठान में आद्य-शक्ति की प्रतीक सभी कुल व वर्ण की कौमारियाँ वंदनीय और पूजनीय मानी जाती हैं। उसमे किसी जाति का भेद नहीं होता है। कहा जाता है कि कौमारी पूजन में वर्ण-जाति का भेद करने पर साधक की सिद्धियां नष्ट हो जाती हैं। इंद्र को ऐसा करने पर स्वर्ग के सिंहासन से हाथ धोना पड़ा था।
इस मंदिर कि सबसे बड़ी विशेषता यही समझ में आती है कि जगत जननी कामाख्या देवी की दिव्य माहवारी स्त्री की मासिक माहवारी के महत्व को दर्शाता है और हमें ये बताता है कि इस ब्रह्माण्ड की जननी होने के कारण स्त्री का सम्मान करना चाहिए। मासिक चक्र के दौरान उसे अपवित्र और अछूत मान उसके साथ बुरा बर्ताव नहीं करना चाहिए, जैसा कि हिन्दू ही नहीं बल्कि सभी धर्म वाले करते हैं। बहुत से लोग यह कुतर्क देते हैं कि जैसे शिवलिंग पर उसकी दिव्यता के कारण जल चढ़ता हैं, आम आदमी के लिंग की वैसी पूजा नहीं होती हैं, वैसे ही भगवती कामाख्या देवी की माहवारी दिव्य होने के कारण पूजनीय हैं और आम महिलाओं की माहवारी एक सामान्य प्राकृतिक बात होने के कारण पूजनीय नहीं हैं। कोई उनसे ये पूछे कि इस सृष्टि को प्रत्यक्ष रूप में कौन आगे बढ़ा रहा हैं, शरीरधारी एक आम स्त्री या फिर कोई काल्पनिक देवी, जिसे लोग प्रगट रूप में देख और जान भी नहीं सकते हैं। यदि इस बारे में मेरी राय पूछी जाये तो मैं प्रत्यक्ष रूप से विद्यमान एक आम स्त्री के साथ खड़ा होना पसंद करूंगा। मेरी आत्मा मुझसे ऐसा ही करने को कहेगीा।
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(आलेख और प्रस्तुति= सद्गुरु श्री राजेंद्र ऋषि जी, प्रकृति पुरुष सिद्धपीठ आश्रम, ग्राम- घमहापुर, पोस्ट- कन्द्वा, जिला- वाराणसी.पिन- २२११०६)
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