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कबीर के भजनों को प्रहलाद सिंह टिपानिया ने जीवंत किया

सद्गुरुजी
सद्गुरुजी
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Kabir_in_Bluerewrr
सद्गुरु कबीर वाणी को प्रहलाद सिंह टिपानिया ने स्वर दिया
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माटी का सब बामन बनिया
माटी का सकल पसारा हो,
इस माटी में सबको मिलना
कह गए दास कबीरा हो।

सद्गुरु कबीर साहब के सामाजिक एकता के संदेश को निर्गुण भजनों के माध्यम से जन जन तक पहुंचाने वाले लोक शैली के गायक प्रहलाद सिंह टिपानिया जी के भजन मैं पिछले कई सालों से सुन रहा हूँ। वो जब तम्बूरे पर तान छेड़कर संत कबीर के भजन गाते है तो मुझे ऐसा लगता है मानो संत कबीर साहब स्वयं अपना संदेश देने उनके रूप में चले आए हों। संत कबीर साहब ने चौदहवी सदी मे धार्मिक पाखण्ड, भेदभाव, जातिवादी अहंकार और गरीबों व मजदूरों का घोर शोषण जैसी सामाजिक समस्याओं को न सिर्फ महसूस किया, बल्कि अपने निर्गुण भजनों द्वारा उसे अभिव्यक्त भी किया। अब उन्ही भजनों को शास्त्रीय संगीत के सुर ताल की परवाह किये बिना थोड़ा बहुत लयबद्ध कर टिपानिया जी ने आम जनमानस के सामने रखा और देश-विदेश में अपार लोकप्रियता हासिल की।

कई देशों में संत कबीर के भजनो से हजारों लोगों को मंत्रमुग्ध कर देने वाले टिपानिया जी स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय, अमेरिका की प्रो. लिंडा हैस के संत कबीर पर किये गए शोध और शबनम वीरमानी के द्वारा कबीर साहब के अमर और सत्य संदेशों पर बनाई गई फिल्मों में वो सक्रिय भूमिका निभा चुके हैं। पद्मश्री से सम्मानित प्रहलाद सिंह टिपानिया का जन्म १९५४ में लूनियाखेड़ी, जिला उज्जैन में हुआ था। वो बचपन से ही संतों के भजन गाते थे। कबीर साहब की वाणी में छिपे सत्य से वे इतने प्रभावित हुए कि उनके भजनों को घर में, खेत में और गांव गांव में दिन रात गाने गुनगुनाने लगे। संत कबीर के भजन गाते गाते उसमे छुपा सत्य भी उनकी समझ में आने लगा। टिपानिया जी के लोक शैली में गाये गए मधुर भजनों के माध्यम से मालवा की मिट्टी में संत कबीर साहब के भजनों की मौज मस्ती ऐसी घुली कि आधुनिक युग में संत कबीर के कालजयी उपदेश पुनः जीवित हो उठे।

मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र में स्थित देवास जिला जहाँ देवों का वास होने की मान्यता है, वहां पर हर साल आयोजित होने वाले कबीर महोत्सव में मंच की शोभा बढ़ने वाले टिपानिया जी सबसे लोकप्रिय कलाकार हैं। बच्चों को स्कूल में विज्ञान पढ़ाने वाले प्रहलाद सिंह टिपानिया जी जैसे ही मंच पर आकर अपने तम्बूरे के तार को झंकृत करते हैं, देखने सुनने व्वालों की आत्मा के तार बज उठते हैं। वे जब संत कबीर के भजनों को गाते है तो मंच पर उनकी और उनके भजन मंडली के लोगों की सादगी देखते ही बनती है। उनको देखकर ऐसा लगता है कि मानो खेतों में मेहनत करने वाले और ताना-बाना पर पसीना बहाने गरिबो, मजदूरों और बुनकरों के प्रतीक रूप संत कबीर साहब स्वयं उनके जीवन के सुख दुःख को अपने भजनों की माला मे गूंथकर सबके सामने गा रहे हों।

मेरा तो मन मयूर नांच उठता है और मेरी आत्मा आध्यात्मिक संगीत के सुर ताल में लयबद्ध हो थिरकते हुए गा उठती है, जब टिपानिया जी की पूरी भजन मंडली एकदम सादगी से गाती-बजाती है- ‘जो घर जाले आपना चले हमारे साथ’.. ‘मत कर मान गुमान’.. ‘तेरा मेरा मनवा कैसे एक होए रे’.. ‘इस घट अंतर बाग बगीचे इसी मे पालनहार’.. ‘जरा धीरे-धीरे गाड़ी हांको, मेरे राम गाड़ी वाला’.. ‘राम रमै सोई ज्ञानी मोरे साधू भाया’.. हिन्दुस्तानी लोकशैली मे मिट्टी से जुड़े बिरले लोक गायक प्रहलाद सिंह टिपानिया जी के सैकड़ो कबीर भजनों को आप यूट्यूब पर देख सुन सकते हैं। आपके गुनगुनाने के लिए और संत कबीर साहब के दिए हुए शाश्वत सन्देश को गहनता से विचारने के लिए टिपानिया जी का गाया हुआ एक मशहूर भजन प्रस्तुत कर रहा हूँ-

सब आया एक ही घाट से, उतरा एक ही बाट।
बीच में दुविधा पड़ गयी , हो गए बारह बाट।।
घाटे पानी सब भरे, अवघट भरे न कोय।
अवघट घाट कबीर का, भरे सो निर्मल होए।।
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कहाँ से आया कहाँ जाओगे
खबर करो अपने तन की।
कोई सदगुरु मिले तो भेद बतावें
खुल जावे अंतर खिड़की।
कहाँ से आया कहाँ जाओगे..

हिन्दू मुस्लिम दोनों भुलाने
खटपट मांय रिया अटकी।
जोगी जंगम शेख सवेरा
लालच मांय रिया भटकी।
कहाँ से आया कहाँ जाओगे..

काज़ी बैठा कुरान बांचे
ज़मीन जोर वो करी चटकी।
हर दम साहेब नहीं पहचाना
पकड़ा मुर्गी ले पटकी।
कहाँ से आया कहाँ जाओगे..

बाहर बैठा ध्यान लगावे
भीतर सुरता रही अटकी।
बाहर बंदा, भीतर गन्दा
मन मैल मछली गटकी।
कहाँ से आया कहाँ जाओगे..

माला मुद्रा तिलक छापा
तीरथ बरत में रिया भटकी।
गावे बजावे लोक रिझावे
खबर नहीं अपने तन की।
कहाँ से आया कहाँ जाओगे..

बिना विवेक से गीता बांचे
चेतन को लगी नहीं चटकी।
कहें कबीर सुनो भाई साधो
आवागमन में रिया भटकी।
कहाँ से आया कहाँ जाओगे..

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(आलेख और प्रस्तुति= सद्गुरु श्री राजेंद्र ऋषि जी, प्रकृति पुरुष सिद्धपीठ आश्रम, ग्राम- घमहापुर, पोस्ट- कन्द्वा, जिला- वाराणसी.पिन- २२११०६)
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