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वर्तमान समय के सद्गुरु का महत्व- गुरु पूर्णिमा पर विशेष

सद्गुरुजी
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वर्तमान समय के गुरु का महत्व-गुरु पूर्णिमा पर विशेष
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गुरु के प्रति आदर-सम्मान और अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए आषाढ शुक्ल पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा का विशेष पर्व मनाया जाता हैा। भारतीय संस्कृति में गुरु देवता तुल्य मानते हुए आचार्य देवोभव: का उद्घोष किया गया है। प्रत्येक वर्ष आषाढी पूर्णिमा के अवसर पर देश के करोड़ों लोग अपने गुरु के पास जाकर उनका अर्चन, वंदन और सम्मान करते हैं तथा अपने गुरु से आशीर्वाद, उपदेश और भविष्य के लिए निर्देश ग्रहण करते हैं। गुरु पूर्णिमा के दिन बहुत से लोग अपने दिवंगत गुरु अथवा ब्रह्मलीन संतों के चिता या उनकी पादुका का धूप, दीप, पुष्प, अक्षत, चंदन, नैवेद्य आदि से विधिवत पूजन करते हैं।
हमारी भारतीय संस्कृति में बहुत प्राचीन काल से ही गुरु को आदर-सम्मान देने की परंपरा रही है। गुरु को हमेशा से ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश के समान पूज्य माना गया है। वेद, उपनिषद और पुराणों का प्रणयन करने वाले वेद व्यास जी को समस्त मानव जाति का गुरु माना जाता है। ऐसी लोक मान्यता है कि वेद व्यास जी का जन्म भी आषाढ़ी पूर्णिमा के ही दिन हुआ था, इसलिए इस दिन को व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है। बहुत से लोग इस दिन व्यास जी के चित्र का पूजन और उनके द्वारा रचित ग्रंथों का अध्ययन करते हैं। बहुत से मठों और आश्रमों में लोग ब्रह्मलीन संतों की मूर्ति या समाधी की पूजा करते हैं।
इस संसार में गुरु की आवश्यकता हर मनुष्य को है। यदि हम गहराई से विचार करें कि हमें गुरु की आवश्यकता क्यों है, तो इस प्रश्न का एक ही उत्तर मिलेगा कि हमारी आत्मा जन्म जन्म से ईश्वर रूपी सत्य का साक्षात्कार करने के लिए बेचैन है और ये साक्षात्कार वर्तमान शरीरधारी पूर्ण गुरु के मिले बिना संभव नहीं है, इसीलिए हर जन्म में वो गुरु की तलाश करती है. परन्तु इस संसार में आकर जीवात्मा लोभी गुरुओं की या फिर मूर्ति और समाधी की पूजा करने में भटककर सारी उम्र गवां देती है। धर्मग्रंथों में कहा गया है कि मनुष्य का जन्म बड़े भाग्य से और बहुत मुश्किल से प्राप्त होता है।
बहुत से लोग मूर्ति और समाधी की पूजा अज्ञान और लालच में आकर करते हैं तो बहुत से लोग जो अहंकारी प्रवृति के होते हैं, वो नहीं चाहते है कि कोई शरीरधारी गुरु उनकी गलतियों और बुरी आदतों के लिए उन्हें रोके टोके, इसीलिए वो मूर्ति और समाधी की पूजा कर मन ही मन बहुत खुश रहते हैं। परन्तु इन सबसे हमारा वास्तविक कल्याण नहीं हो पाता है। सबसे पहले तो हमें इस बात को समझना चाहिए कि चाहे सांसारिक हो या आध्यात्मिक, हमारे सभी कार्य वर्तमान समय के लोंगो से ही सिद्ध होंगे। यदि आप बीमार है तो आज के समय के किसी डॉक्टर के पास जाकर इलाज करना होगा।
आज यदि आप अपनी बीमारी के इलाज के लिए वैद्य धन्वन्तरि और हकीम लुकमान को ढूंढेंगे तो कोई आपको मुर्ख ही समझेगा। आज का वैद्य आपका इलाज करेगा, कोई मुकदमा है तो आज का वकील आपका केस लड़ेगा. वर्तमान में यदि आपको सुख से जीना है तो वर्तमान में जो जीवित हैं, उन्ही का सहयोग आपको लेना पड़ेगा। यही बात आध्यात्म के भी संदर्भ में सत्य है। संसार में आप सुनी-सुनाई या धर्मग्रंथों में लिखी-लिखाई बातों पर विश्वास करके जीवन बिता सकते है और वहीँ दूसरी तरफ किसी वर्तमान गुरु के माध्यम से सत्य की खोज कर ईश्वर का साक्षात्कार कर सकते हैं।
हिन्दू धर्म की सबसे बड़ी विशेषता इसकी गतिशीलता और सत्य की खोज करने की आजादी है, इसीलिए हिन्दू धर्म को अनादि काल से ही एक बहती हुई नदी कहा जाता है। पूरी गीता का सार इस एक श्लोक में है-
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः॥४-३४॥

इस श्लोक का अर्थ है कि ईश्वर को तत्व से जानने वाले ज्ञानी पुरुषों की खोज करो। उन्हें भली प्रकार से दंडवत प्रणाम करो, उनकी सेवा करो और निष्कपट भाव से प्रश्न करो। ईश्वर को तत्व से देखने वाले वो ज्ञानीजन उस तत्व का बोध आपको भी करा देंगे। यही गीता का सार है। सभी धर्म विश्वास और खोज पर आधारित हैं। केवल विश्वास करने वाले लोग अपने जीवन में सत्य का साक्षात्कार नहीं कर पाते हैं। ईश्वर की खोज करने वाले लोग ही उसका अनुभव कर पाते हैं। वर्तमान गुरु की महत्ता सभी धर्मों में है। कुछ सूफी संतों के साथ कुछ दिन रहने का सौभाग्य मुझे मिला था। उनसे मुझे पता चला कि इस्लाम को मानने वाले भी जब खुदा की खोज में लग जाते हैं तो उन्हें भी वर्तमान समय के आध्यात्मिक गुरु की जरुरत होती है।
उन्होंने मुझे बताया कि सूफी संत शरीयत, तरीकत, मार्फ़त आदि साधना के इन तीन स्तरों को पार कर हकीकत तक पहुँचते हैं। इसका अर्थ यह है कि किसी मुस्लिम को खुदा का अनुभव प्राप्त करने के लिए सबसे पहले शरीयत का ज्ञान जरुरी है, फिर मन से उसपे अमल करना जरुरी है। यदि ये दो प्रक्रियाएं पूरी ईमानदारी से की जाये तो वो मालिक किसी न किसी मार्फ़त यानि आध्यत्म विद्या के कामिल मुर्शिद के सहारे अपना यानि की हकीकत का ज्ञान करा देता है। इस प्रकार से हम देखते हैं कि वर्तमान समय के गुरु ईश्वर-प्राप्ति के लिए अति आवश्यक हैं। हम जिन ब्रह्मलीन संतो के फोटो और मूर्तियों की पूजा करते हैं, वो भी वर्तमान समय के किसी न किसी संत सद्गुरु के पास ही पहुंचाते हैं।
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आलेख और प्रस्तुति=सद्गुरु श्री राजेंद्र ऋषि जी,प्रकृति पुरुष सिद्धपीठ आश्रम,ग्राम-घमहापुर,पोस्ट-कन्द्वा,जिला-वाराणसी.पिन-२२११०६.
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