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बकरीद: पशुबलि की जगह अब हो प्रतीकात्मक नारियल बलि

सद्गुरुजी
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पशुबलि की जगह अब हो प्रतीकात्मक नारियल बलि
पूरे देशभर में ईद-उल-अजहा यानी बकरीद २५ सितंबर को मनाई जाएगी। एक इस्लामी साल में तीन तरह की ईद मनाई जाती है। पहली ईदे-अजहा यानी बकरीद, दूसरी ईदुलफित्र या मीठी ईद, इसे रमजान ईद भी कहते हैं और तीसरी ईद को ईद-उल-मीनाद-उन-नबी कहते हैं। इसमें भी दो ईदों का महत्व ज्यादा है, पहली ईदुल फित्र जिसे मीठी ईद भी कहा जाता है, इसे रमजान को समाप्त करते हुए मनाया जाता है और दूसरी बकर ईद, जिसे हज की समाप्ति पर मनाया जाता है। अरबी में ‘बकर’ शब्द का अर्थ है बड़ा जानवर, जो जिबह किया जाता है। क़ुरबानी के लिए जो जानवर निर्धारित किये गए हैं, वो हैं- बकरी, बकरा, मेण्डा (दुंबा), भेड़, बैल, गाय, खुल्गा, भैंस, ऊँट, ऊँटनी आदि। इन के अतिरिक्त दूसरे जानवरों की क़ुरबानी को उचित नहीं माना गया है। भारत जैसे देश में जहाँपर गाय माता के समान पूजनीय और गंगा के सदृश पवित्र मानी जाती है, उसके अधिकतर राज्यों में गाय और बैल की कुर्बानी देने पर पाबंदी है। हिंदुल बहुल देश में उनकी धार्मिक भावनाओं का आदर करते हुए ऐसी पाबंदी लगना बहुत जरुरी भी है। ये बहुत खशी की बात है कि देश के अधिकतर मुस्लिम संगठनों ने मुस्लिम भाइयों से अपील की है कि बकरीद के मौके पर वो गाय की बलि न दें। हिन्दुओं की भावनाओं का आदर करने के लिए और देश के हित में सोचने के लिए ऐसे सभी संगठनों का मैं ह्रदय से शुक्रिया अदा करता हूँ।
बकरीद को आम मुस्लिम भाई बकरा ईद भी कहते हैं, क्योंकि इस ईद पर देश के अधिकतर गरीब व मध्यम वर्ग के मुस्लिम परिवारों में बकरे की ही कुर्बानी दी जाती है। हजरत इब्राहिम की कुर्बानी को याद करने और बलि देकर उन्हें श्रद्धांजलि देने के अतिरिक्त बकरीद त्यौहार पर कुर्बानी देने का एक और कारण भी है। मुस्लिम समाज के सदियों से चले आ रहे रीतिरिवाज के अनुसार हज करके लौटने पर बकरीद के दिन अपने किसी ऐसे अज़ीज़ की कुर्बानी देना जरुरी है, जिससे उसे बेहद लगाव हो। किसी भी व्यक्ति के लिए सबसे बड़ा अज़ीज़ उसका अपना शरीर होता है और तदुपरांत शरीर से जुड़े संबंधी यानि माता, पिता, भाई, बहन, पत्नी और बच्चे होते हैं। आज से चार-पांच हजार वर्ष पूर्व हजरत इब्राहीम ने इसी सच का अनुभव करते हुए जब अपने सबसे चहेते बेटे हजरत इस्माइल की कुर्बानी देनी चाही तो ईश्वरीय वाणी ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया था। अपनी बंद आँखों से पट्टी हटाने के बाद उन्होंने देखा कि इस्माईल की जगह एक जानवर भेड़ की बलि खुदा ने स्वीकार कर ली थी। तभी से उस दिन की याद में हर साल जिल हिज्जा महीने की १० वीं तारीख को जानवर की कुर्बानी देने का रिवाज पड़ गया। हर व्यक्ति हजरत इब्राहीम के जैसा ईश्वर भक्त नहीं हो सकता है और मेरे विचार से आज के युग में ऐसी भक्ति या इस तरह का अमानवीय दुस्साहस करने की किसी को सोचना भी नहीं चाहिए। यही वजह है कि आज के समय में अपना अज़ीज़ बनाने के लिए एक बकरे को पाला जाता है और उसकी देख रेख इतने प्यार मोहब्बत से की जाती हैं कि उससे बहुत लगाव हो जाता है। जब वो बकरा बड़ा हो जाता हैं तो उसे बकरीद के दिन अल्लाह के लिए कुर्बान कर दिया जाता हैं, जिसे फर्ज-ए-कुर्बान कहा जाता हैं। कुर्बानी करना एक फर्ज है।
इस तरह से क़ुरबानी देने की प्रथा के पीछे इस्लाम की मूल भावना यही है कि मालिक का उस बकरे से एक ऐसा लगाव और नाता हो जाए कि उसे कुर्बान करना उसके लिए बहुत दुखदायी और कठिन लगे। परन्तु आज के इस भोगवादी दौर में कुर्बानी देने की मूल वजह ही गायब हो गई है। अब तो महज एक दो रोज पहले या उसी दिन जानवर ख़रीदे और काटे जाते हैं। बलि के आडम्बर, अमीरी के दिखावे और दूसरे धर्मावम्बियों की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का आलम ये है कि हजारों लोंगो की भीड़ इकट्ठी कर सबके सामने बहुत दर्दनाक ढंग से ऊंट और बहुत से देशों में बैल कुर्बान किये जाते हैं और भीड़ के बीच मांस, हड्डी आदि बांटे जाते हैं। हमें सोचना चाहिए कि क्या वास्तव में यह सब कुर्बानी है और हलाल किया हुआ गोश्त है? कुछ साल पहले हुई एक मुलाकात के दौरान एक मुस्लिम आलिम ने इस विषय पर मुझे बताया था कि ‘इस्लाम में बलि देने का जो रिवाज है, उसके बहुत कड़े नियम बनाये गए हैं, जैसे- सबसे पहले खुदा का नाम लिया जाये और फिर जिसके लिए बलि दी जा रही है, उसका नाम लिया जाये, जानवर को छुरा न तो दिखाया जाये और न ही उसके सामने रगड़कर तेज किया जाये, एक जानवर के सामने दूसरे जानवर को नहीं काटा जाये और सबसे बड़ी बात ये कि जानवर की स्वांसनली ही सबसे पहले काटी जाये ताकि उसे कम से कम तकलीफ हो और उसका प्राण जल्दी निकल जाये।’ वो विस्तार से मुझे समझाये।
मैंने जब पशु बलि देने को क्रूरता और निर्दोष पशुओं के लिए इस प्रक्रिया को बेहद कष्टप्रद बताते हुए उनसे पूछा था कि ‘पवित्र कुरआन में एक तरफ जहाँ पशु बलि देने का आदेश है तो वहीँ दूसरी तरफ ये भी कहा गया कि खुदा को पशुओं का खून और मांस पसंद नहीं और न ही ये सब उस तक पहुंचता है, तो फिर बकरीद के दिन पूरी दुनियाभर में करोड़ों छोटे-बड़े पशुओं की हत्या क्यों?’ वो गंभीर होकर बोले थे, ‘जनाब! आप सही हैं। ये दोनों ही बातें पवित्र कुरआन में दर्ज हैं और हम उसका पालन भी करते हैं, परन्तु आप लोग पशु ह्त्या के लिए सिर्फ मुस्लिमों को ही दोष देते हैं? उस बनिया (व्यवसायी) वर्ग की बात कभी क्यों नहीं करते हैं, जिसमे मुस्लिम से ज्यादा तो पैसेवाले सवर्ण हिन्दू व्यवसायी हैं, जो बकायदे पशुह्त्या का कारखाना खोलकर न जाने कितने देशों में और न जाने कितने जानवरों का मांस निर्यात कर रहे हैं। केवल कहने भर की बात है कि वहांपर जानवर मशीन से काटे जाते हैं, इसलिए उन्हें ज्यादा तकलीफ नहीं होती है। आप संत महात्मा हैं और शायद आपको मालूम भी न हो के वहांपर पशुओं को कितनी तकलीफ देकर मारा जाता है? उनपर खौलता हुआ गर्म पानी डाला जाता है, सर में गोली मारी जाती है, बेहोश करने के लिए बिजली के झटके दिए जाते हैं, बछड़े को न जाने कितने दिन भूखा रख फिर उसे काट कर उसका मांस डिब्बों में भर विदेश भेजा जाता है। जनाब, मांस निर्यात करने वाले कारखानों में पशुओं के साथ कितनी क्रूरता बरती जाती है, उस सच को देखने की तो बात दूर रही, उस बारे में न तो आप सोच सकते हैं और न ही उस क्रूरता का अंदाजा लगा सकते हैं। आप लोग उनके खिलाफ कभी कुछ क्यों नहीं बोलते हैं?’
वो इतना बोलते बोलते बेहद उत्तेजित हो गए थे। मैंने उनके लिए पानी मंगाया था और एक शिष्य को चाय बनाने को कहा था। पानी पीकर जब वो शांत हुए तो मैं बोला- ‘चलिए, मैं आपकी बात मान लेता हूँ। मांस निर्यातकों पर तो आम जनता का कोई वश नहीं। इस मामले में तो केंद्र व राज्य सरकारें ही कोई अंकुश लगा सकती है, परन्तु बदलते वक्त के साथ क्या हमारा ये फर्ज नहीं बनता है कि बकरीद पर पशु बलि की जगह अब प्रतीकात्मक रूप से सिर्फ छोटे जानवरों की या नारियल की बलि दी जाये। इस मामले में हिन्दू धर्म को मैं समुद्र कहूँगा, क्योंकि हिन्दू धर्मग्रंथों में एक नहीं बल्कि ऐसी ढेरों कहानिया वर्णित हैं, जिसमे देवी-देवताओं ने भक्त की परीक्षा लेने के लिए उसके बेटे की बलि मांगी और फिर उसे जीवित कर दिया। भक्तों ने देवी-देवताओं से निवेदन किया कि वे पुनः ऐसी कठिन परीक्षा किसी भक्त की न लें और बलि के रूप में नारियल को स्वीकार करें। देवी-देवताओं ने भक्तों की बात मान ली और प्रतीकात्मक रूप में नारियल की बलि स्वीकार करने लगे। इससे हिन्दू धर्म में बहुत सुधार हुआ। नरबलि जैसी अमानवीय प्रथा और विकृत अंधभक्ति का अंत हुआ तथा पशुबलि देने जैसी कुप्रथा भी कम हुई। आज देश के अधिकतर हिन्दू मंदिरों में नारियल की बलि दी जाती है। मेरे विचार से तो मुस्लिम भाइयों को भी अब पशुबलि की जगह प्रतीकात्मक रूप से नारियल बलि देने की परम्परा शुरू करनी चाहिए।’ मेरी बात सुनकर वो मुस्लिम विद्वान खूब हँसे थे और सिर्फ इतना ही बोले थे, ‘आपका सुझाव बेहद दिलचस्प है।’ सभी मुस्लिम भाइयों को बकरीद पर्व की हार्दिक बधाई।
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(आलेख और प्रस्तुति= सद्गुरु श्री राजेंद्र ऋषि जी, प्रकृति पुरुष सिद्धपीठ आश्रम, ग्राम- घमहापुर, पोस्ट-कन्द्वा, जिला- वाराणसी। पिन-२२११०६)
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