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हिंदी फ़िल्मी गीतों का दार्शनिक अंदाज- भाग १- जागरण मंच

सद्गुरुजी
सद्गुरुजी
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हिंदी फ़िल्मी गीतों का दार्शनिक अंदाज- भाग १- जागरण-मंच

हिंदी फिल्मों के गीत हमारे देश में ही नहीं बल्कि दुनिया के कई देशों में सुने जाते हैं. भारत में आम जनता के मनोरंजन का ये सबसे बड़ा साधन है. बहुत से हिंदी फ़िल्मी गीत मनोरंजन के साथ-साथ आदमी के मन की गहराइयों में इतने भीतर तक उतर जातें हैं कि उसे अच्छा सोचने और जीवन में बहुत कुछ अच्छा करने पर मजबूर कर देतें हैं. अपने विद्यार्थी जीवन में भी मुझे अपनी पसंद के फ़िल्मी गीतों को बार-बार सुनने का शौक था.

मेरे स्कूल के गुरुजन हिंदी फ़िल्मी गीतों के घोर विरोधी थे. वे कहते थे कि हिंदी फिल्मों के गीत अर्थहीन होते हैं और उन्हें सुनना अपने जीवन का कीमती समय बर्बाद करना है. मै अपने श्रद्धेय गुरुजनों की इस बात से तब भी सहमत नहीं था और आज भी सहमत नहीं हूँ. कुछ ऐसे हिंदी फ़िल्मी गीत हैं, जिनके अंदाज दार्शनिक हैं, और जिन्हें सुनने से मनोरंजन के साथ-साथ शिक्षा भी मिलती है. अपनी पसंद के कुछ ऐसे ही फ़िल्मी गीतों पर मै बहुत दिनों से चर्चा करना चाह रहा था. कई दिनों की खोज-बीन के बाद आज मै अपनी पसंद प्रस्तुत कर रहा हूँ.

संसार में लोग कहाँ से आतें हैं और मरने के बाद कहाँ चले जाते हैं? यह सवाल धर्मग्रंथों का मूल विषय रहा है और दार्शनिकों ने भी इस गूढ़ विषय पर बहुत सोच-विचार किया है. फिल्म जगत के बहुचर्चित गीतकार गीतकार साहिर लुधियानवी जी को मैं एक बहु अच्छा दार्शनिक मानता हूँ. वो आज इस दुनिया में नहीं हैं, परन्तु उनका शाश्वत और व्यावहारिक दर्शन आज भी उनके द्वारा रचित साहित्य और उनके द्वारा लिखित हिंदी फ़िल्मी गीतों के रूप में हमारे बीच मौजूद है. हिंदी फिल्म “धुंध” में गीतकार साहिर लुधियानवी क्या खूब जीवन का फलसफा लिखतें हैं-
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संसार की हर शय का इतना ही फ़साना है
एक धुँध से आना है, एक धुँध में जाना है
ये राह कहाँ से है, ये राह कहाँ तक है
ये राज़ कोई राही समझा है न जाना है

जीवन जितना बड़ा सत्य है मृत्यु भी उतना ही बड़ा सत्य है. मृत्यु के बाद जीवन है की नहीं? और मृत्यु के बाद लोग कहाँ चले जाते हैं?.ये प्रश्न जबसे दुनिया बनी है, तबसे एक अनुत्तरित प्रश्न की तरह इस संसार में मौजूद है. गीतकार आनंद बक्षी का लिखा फिल्म “पुष्पांजली” का गीत है-
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दुनियाँ से जानेवाले, जाने चले जाते हैं कहाँ
कैसे ढूँढे कोई उन को, नही कदमों के भी निशान
जाने हैं वो कौन नगरीया, आये जाये खत ना खबरीयां
आये जब जब उन की यादें, आये होठों पे फरियादें
जा के फिर ना आनेवाले, जाने चले जाते हैं कहाँ

दुनिया में चारों तरफ सही या गलत ढंग से पैसा कमाने की होड़ लगी हुई है. सब जानते हैं कि संसार से कुछ ले नहीं जा सकते हैं. संसार से कुछ ले जाने का नियम होता तो अब तक ये दुनिया खाली हो गई होती. आदमी तो वो मुसाफिर है जो खाली हाथ संसार से जाता है और संसार से जाने के बाद सिर्फ अपनी अच्छी-बुरी यादें छोड़ जाता है. यही दार्शनिक भाव लिए हुए गीतकार आनंद बक्षी का लिखा हुआ फिल्म “अपनापन” का ये गीत है-
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आदमी मुसाफिर है, आता है, जाता है
आते जाते रस्तें में, यादें छोड जाता है
क्या साथ लाये, क्या तोड़ आये
रस्तें में हम क्या क्या छोड आये
मंजिल पे जा के याद आता है

हमें जो जिन्दगी मिली है वो क्या है और इस जिन्दगी का सार क्या है? इस सवाल का जबाब इस गीत में है. गीतकार संतोष आनंद का लिखा हुआ फिल्म “शोर” का ये गीत है-
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एक प्यार का नगमा है, मौजो की रवानी है
जिन्दगी और कुछ भी नहीं, तेरी मेरी कहानी है
कुछ पाकर खोना है, कुछ खोकर पाना है
जीवन का मतलब तो, आना और जाना है
दो पल के जीवन से, एक उम्र चुरानी है

जीवन एक लम्बा सफ़र है जो हमारे शाश्वतधाम यानि परमात्मा से शुरु होता है और संसार में विचरण करते हुए फिर वापस परमात्मा के पास पहुंचकर समाप्त होता है. सकारात्मक सोच वाले लोग जिन्दगी को एक सुहाना सफ़र समझते हैं. वो एक दिन निश्चित रूप से आने वाली मृत्यु और आने वाले अज्ञात कल को लेकर परेशान नहीं होते हैं. गीतकार हसरत जयपुरी ने फिल्म “अंदाज” में यही सत्य भाव दर्शाते हुए ये बहुत लोकप्रिय गीत लिखा है-
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जिंदगी एक सफ़र हैं सुहाना
यहा कल क्या हो किस ने जाना
मौत आनी हैं, आयेगी एक दिन
जान जानी हैं, जायेगी एक दिन
ऐसी बातों से क्या घबराना

जीवन के सफ़र में कब क्या अच्छा-बुरा घटित होने वाला है, इसे लेकर सारी दुनिया परेशान है. इस सवाल का जबाब पाने को आम जनता, ज्योतिषी और दार्शनिक सब अपने-अपने अंदाज में सोचते विचारतें हैं और अँधेरे में तीर चलातें हैं. सच बात तो ये है की ईश्वर के अलावा कोई नहीं जानता की क्या होने वाला है. गीतकार इन्दीवर का लिखा फिल्म “सफ़र” का ये गीत मुझे बहुत पसंद है-

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जिन्दगी का सफ़र, हैं ये कैसा सफ़र
कोई समझा नहीं, कोई जाना नहीं
है ये कैसी डगर, चलते हैं सब मगर
कोई समझा नहीं, कोई जाना नहीं
जिन्दगी को बहुत प्यार हम ने किया
मौत से भी मोहब्बत निभायेंगे हम
रोते रोते जमाने में आये मगर
हंसते हंसते जमाने से जायेंगे हम
जायेंगे पर किधर, हैं किसे ये खबर
कोई समझा नहीं, कोई जाना नहीं

जिन्दगी सबके लिए एक पहेली है. हर इन्सान अपने जीवन की पहेली को सुलझाने में व्यस्त है. वो खुशनसीब लोग हैं जो अपने जीवन की पहेली को सुलझा पातें हैं. ज्यादातर लोग इस पहेली में बुरी तरह से उलझकर संसार से विदा हो जाते हैं. यही दार्शनिक अंदाज लिए हुए गीतकार योगेश का ये गीत फिल्म आनंद का है-
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जिंदगी, कैसी हैं पहेली हाये
कभी तो हंसाये, कभी ये रुलाये
जिन्हों ने सजाये यहा मेले
सुख दुख संग संग झेले
वही चुनकर खामोशी
यूँ चले जाये अकेले कहाँ

फिल्मों में रिटेक होता है यानि किसी कलाकार का अभिनय नहीं पसंद आया तो फिर से उससे दुबारा अभिनय कराया जाता है. ये सच है कि संसार के रंगमंच पर हम सब लोग अभिनय कर रहें हैं, किन्तु ये भी सत्य है कि वास्तविक जीवन में रिटेक यानि दुबारा अभिनय करने का मौका नहीं मिलता है, इसीलिए माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी-बच्चे और मित्रों यहाँ तक कि अपरिचितों से भी कभी भूल से भी ऐसा ख़राब व्यवहार न करें कि जीवन भर आपको पछताना पड़े. फिल्म “आप की कसम” का आनंद बक्षी का लिखा ये गीत गंभीरता से सुनने और विचार करने लायक है-
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जिन्दगी के सफ़र में गुजर जाते हैं जो मकाम
वो फिर नहीं आते, वो फिर नहीं आते
सुबह आती हैं, रात जाती हैं, यूँही
वक्त चलता ही रहता हैं, रुकता नहीं
एक पल में ये आगे निकल जाता हैं
आदमी ठीक से देख पाता नहीं
और परदे पे मंजर बदल जाता हैं
एक बार चले जाते हैं, जो दिन रात सुबह शाम
वो फिर नहीं आते …

(सादर निवेदन- “हिंदी फ़िल्मी गीतों का दार्शनिक अंदाज” चार भागों में है. ये पहला भाग आपके समक्ष प्रस्तुत किया गया है. ये पहला भाग आपको कैसा लगा, इसपर अपनी सार्थक और विचारणीय प्रतिक्रिया जरूर दें, ताकि अगले भाग को और बेहतर बनाने में मदद मिले. सादर आभार सहित)

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(आलेख और प्रस्तुति= सद्गुरु श्री राजेंद्र ऋषि जी, प्रकृति पुरुष सिद्धपीठ आश्रम, ग्राम- घमहापुर, पोस्ट- कन्द्वा, जिला- वाराणसी. पिन- २२११०६)
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