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हिंदी फ़िल्मी गीतों का दार्शनिक अंदाज- भाग ३- जागरण मंच

सद्गुरुजी
सद्गुरुजी
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हिंदी फ़िल्मी गीतों का दार्शनिक अंदाज- भाग ३- जागरण मंच
हिंदी फ़िल्मी गीतों ने हमें प्रेम करना सिखाया है. हमें सबके साथ मोहब्बत करके जीना सिखाया है. यही वजह है कि हिंदी फिल्मों के गीत हमें अपने दिल की आवाज़ लगतें हैं और अपना मनपसंद गीत अपने जीवन की कहानी लगता है. हिंदी फिल्मों का दार्शनिक अंदाज भाग-तीसरा प्रस्तुत है.

इस भाग में ये बताने की कोशिश की गई है कि दुःख और परेशानियों से भरे इस संसार में हम जीवन कैसे जियें. विभिन्न प्रकार के कष्ट और परेशानियों से भरे इस संसार में संतुलित जीवन हम कैसे जियें? कोई न कोई परेशानी जीवन में आती ही रहती है. यदि संसार में एक से बढ़कर एक सज्जन पुरुष हैं तो दूसरी तरफ एक से बढ़कर एक दुष्ट व्यक्ति भी हैं. इस संसार में कभी सुख मिलता है तो कभी दुःख. दुःख में भी सुख तलाशते हुए सही ढंग से जीवन हम कैसे जियें, इस सवाल का जबाब देता साहिर लुधियानवी का लिखा फिल्म “हमराज” का ये लोकप्रिय गीत है-
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ना मुँह छुपा के जिओ, और ना सर झुका के जिओ
गमों का दौर भी आए तो मुस्कुरा के जिओ
घटा में छूप के सितारें, फ़ना नहीं होते
अंधेरी रात के दिल में, दिये जला के जिओ
न जाने कौन सा पल मौत की अमानत हो
हर एक पल की खुशी को गले लगा के जिओ
ये जिंदगी किसी मंज़िल पे रुक नहीं सकती
हर एक मकाम से आगे कदम बढ़ा के जिओ
ना मुँह छुपा के जिओ, और ना सर झुका के जिओ..

जिन्दगी में सुख दुःख आते जाते रहते हैं. जीवन में बड़ी से बड़ी समस्याएं भी आती हैं, परन्तु यदि हम अपने मन में अहंकार न पाले और परिवार के साथ मिलजुल कर अपनी समस्याओं का समाधान ढूंढे तो जरुर समस्याए हल होंगी. आप अपने आप को दुखी समझतें है, परन्तु समाज में घूमकर देखें तो आप से भी ज्यादा दुखी लोग मिल जायेंगे. संसार में सुख से ज्यादा दुःख है, इसमें कोई संदेह नहीं. सुख-दुःख से जितना ही लगाव होगा वो आपको उतना ही ज्यादा कष्ट देंगे, इसीलिए महापुरुष समझाते हैं कि सुख-दुःख दोनों से ही आसक्ति न रख्खें. मजरुह सुलतानपुरी का लिखा हुआ फिल्म “दोस्ती” का ये गीत है-
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दुःख हो या सुख, जब सदा संग रहे ना कोए
फिर दुःख को अपनाईये, के जाये तो दुख ना होए
राही मनवा दुःख की चिंता क्यो सताती हैं, दुःख तो अपना साथी है
सुख हैं एक छाँव ढलती आती हैं, जाती हैं, दुःख तो अपना साथी है
दूर हैं मंज़िल दूर सही, प्यार हमारा क्या कम है
पग में काँटे लाख सही, पर ये सहारा क्या कम है
हमराह तेरे कोई अपना तो है
सुख हैं एक छाँव ढलती आती है, जाती है
राही मनवा दुःख की चिंता क्यो सताती है, दुःख तो अपना साथी है..

ज्यादातर झगडे अहंकार के कारण पति-पत्नी के बीच होतें हैं. विवाह जीवन भर की दोस्ती है, इसीलिए अपने अहंकार को इस दोस्ती से दूर रखना चाहिए. यदि दोस्ती गहरी है तो पति-पत्नी हंसी-ख़ुशी जीवन के सब दुख झेल लेतें हैं. गीतकार आनंद बक्षी का लिखा हुआ फिल्म “पिया का घर” का ये गीत मुझे बहुत पसंद है-
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ये जीवन है, इस जीवन का
यही है, यही है, यही हैं रंगरूप
थोड़े गम है, थोड़ी खुशियाँ
यही है, यही है, यही हैं छाँव धुप
ये ना सोचो, इस में अपनी, हार हैं के जीत हैं
उसे अपना लो जो भी, जीवन की रीत हैं
ये जिद छोडो, यूं ना तोड़ो, हर पल इक दर्पण हैं
धन से ना दुनिया से, घर से ना द्वार से
साँसों की डोर बंधी है, प्रीतम के प्यार से
दुनिया छूटे ,पर ना टूटे, ये कैसा बंधन है?
ये जीवन है, इस जीवन का
यही है, यही है, यही हैं रंगरूप..

पुराने हिंदी फ़िल्मी गीतों में सारे जगत को ‘जियो और जीने दो’ का कल्याणमय संदेश दिया गया है तथा सामाजिक समता स्थापित करने का आदर्शमय सुझाव भी दिया गया है. इस शुभ संदेश को यदि व्यावहारिक जगत में अपना लिया जाये तो ये धरती स्वर्ग से भी सुन्दर बन जाए. हमें जाति-धर्म, उंच-नीच और अमीरी-गरीबी से संबंधित दुर्भावना के आधार पर किसी भी व्यक्ति या समाज से नफरत नहीं करना चाहिए तथा समाज के हर व्यक्ति के अभ्युदय और विकास में यथासामर्थ्य अपना सहयोग करना चाहिए, यही सदभावना हमारे देश की सनातन परम्परा है और हमारे समाज ही नहीं बल्कि समस्त विश्व को दिया गया अनुपम पैगाम है. यही अनुपम पैगाम देता हुआ फिल्म “पैग़ाम” का ये मशहूर गीत है, जिसे अमर गीतकार प्रदीप जी ने लिखा है-
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इंसान का इंसान से हो भाईचारा
यही पैगाम हमारा..
नये जगत में हुआ पुराना ऊँच-नीच का किस्सा
सबको मिले मेहनत के मुताबिक अपना-अपना हिस्सा
सबके लिए सुख का बराबर हो बँटवारा
यही पैगाम हमारा..
हरेक महल से कहो की झोपड़ियों में दिये जलाये
छोटों और बड़ों में अब कोई फ़र्क नहीं रह जाये
इस धरती पर हो प्यार का घर-घर उजियारा
यही पैगाम हमारा..
इंसान का इंसान से हो भाईचारा
यही पैगाम हमारा..

जीवन में पाप क्या है और पुण्य क्या है, इसका जबाब देना बहुत कठिन काम है. पाप से बचने के लिए बहुत से लोग साधू होजाते हैं और बहुत से गृहस्थ पाप का प्रायश्चित करने के लिए दान पुण्य, तीर्थ, व्रत और साधुओं की सेवा करतें हैं. गृहस्थ की दृष्टी में वो अपने को सही समझता है और साधू की दृष्टि में वो अपने को सही समझता है. साहिर लुधियानवी का ये गीत फिल्म “चित्रलेखा” का है-
संसारसे भागे फिरते हो, भगवान को तुम क्या पाओगे
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संसार से भागे फिरते हो, भगवान को तुम क्या पाओगे
इस लोक को भी अपना न सके, उस लोक में भी पछताओगे
ये पाप है क्या, ये पुण्य है क्या, रीतोंपर धर्म की मोहरें हैं
हर युग में बदलते धर्मोंको कैसे आदर्श बनाओगे
संसार से भागे फिरते हो, भगवान को तुम क्या पाओगे..
ये भोग भी एक तपस्या है, तुम त्याग के मारे क्या जानो
अपमान रचेता का होगा, रचना को अगर ठुकराओगे
संसार से भागे फिरते हो, भगवान को तुम क्या पाओगे..
हम कहते हैं ये जग अपना है, तुम कहते हो झूठा सपना है
हम जनम बिता कर जायेंगे, तुम जनम गँवा कर जाओगे
संसार से भागे फिरते हो, भगवान को तुम क्या पाओगे..

जीवन में कोई व्यक्ति किसी देवी-देवता को पूजता है तो कोई व्यक्ति निराकार परमात्मा को मानता है. मन को शुद्ध करने के लिए कोई तीर्थ करने जाता है तो कोई हज करने जाता है. मन है क्या चीज? इस सवाल का जबाब बहुत सुन्दर और व्यावहारिक ढंग से गीतकार साहिर लुधियानवी ने फिल्म “काजल” में देने की कोशिश की है-
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तोरा मन दर्पण कहलाये
भले, बुरे सारे, कर्मों को देखे और दिखाए
मन ही देवता, मन ही ईश्वर
मन से बड़ा ना कोई
मन उजियारा, जब जब फैले
जग उजियारा होए
इस उजले दर्पण पर प्राणी, धूल ना ज़मने पाए
तोरा मन दर्पण कहलाये..
सुख की कलियाँ, दुःख के काँटे
मन सब का आधार
मन से कोई, बात छूपे ना
मन के नैन हजार
जग से चाहे भाग ले कोई, मन से भाग ना पाए
तोरा मन दर्पण कहलाये
भले, बुरे सारे, कर्मों को देखे और दिखाए

(सादर निवेदन- “हिंदी फ़िल्मी गीतों का दार्शनिक अंदाज” ये आलेख चार भागों में है. ये तीसरा भाग आपके समक्ष प्रस्तुत किया गया है. ये तीसरा भाग आपको कैसा लगा, इसपर अपनी सार्थक और विचारणीय प्रतिक्रिया जरूर दें, ताकि अगले भाग को और बेहतर बनाने में मदद मिले. सादर आभार सहित)

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(आलेख और प्रस्तुति= सद्गुरु श्री राजेंद्र ऋषि जी, प्रकृति पुरुष सिद्धपीठ आश्रम, ग्राम- घमहापुर, पोस्ट- कन्द्वा, जिला- वाराणसी. पिन- २२११०६)
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