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ऑर्गन डोनेशन या अंगदान, मुक्ति में बाधक नहीं- जंक्शन फोरम

सद्गुरुजी
सद्गुरुजी
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‘ऑर्गन डोनेशन’ यानि जीवित रहते हुए अथवा मरने के बाद ‘अंगदान’ करने पर आज देश-विदेश में चर्चा हो रही है. भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया भर की मशहूर हस्तियां न सिर्फ इसका प्रचार-प्रसार कर रहीं हैं, बल्कि स्वयं भी इसमें बढ़ चढ़ कर भाग ले रही हैं. ‘ऑर्गन डोनेशन’ से अनगिनत मरणासन्न मरीजों को एक नया जीवनदान मिला है. आज बहुत से नेत्रहीन अंगदान की बदौलत ही ईश्वर की बनाई हुई इस खूबसूरत दुनिया को देखने में सक्षम हुए हैं. बिना किसी दबाब या जोर जबस्दस्ती के स्वैच्छिक रूप से किया गया ‘अंगदान’ निसंदेह एक बहुत महान कार्य है, जिसकी जितनी भी तारीफ़ की जाए वो कम ही है. ‘अंगदान’ समाज सेवा के क्षेत्र से जुड़े लोंगो के लिए सबसे पवित्र और महान कार्य है, किन्तु धार्मिक क्षेत्र से जुड़े लोंगो के बीच, खासकर हिन्दुओं के बीच ‘अंगदान’ को लेकर अच्छी सोच नहीं है. वहां तो अधिकतर लोंगो के मन में ये धारणा है कि जिस व्यक्ति के कुछ शारीरिक अंग खराब हैं या फिर नहीं हैं, वो अपने पिछले जन्मों के पाप का बुरा फल भोग रहा है.

भगवान ने उसे दण्ड दिया है, इसलिए उसे ‘अंगदान’ देकर भगवान की नाराजगी मोल मत लो. हिन्दू जनता के साथ ही अधिकतर हिन्दू संत भी ऐसा ही मानते हैं. कुछ वर्ष पहले कई संतों से इस विषय पर मैंने विस्तृत चर्चा की थी. अधितर संतों का यही विचार था कि ‘अंगदान’ नहीं करना चाहिए. ‘अंगदान’ करके यदि कोई व्यक्ति ईश्वर और प्रकृति के बनाये नियमों में हस्तक्षेप करता है तो अगले जन्म में उन अंगों से विहिन होकर पैदा होगा, जिन अंगों को इस जन्म में उसने दान दिया है, जैसे नेत्र दान दिया हो तो नेत्रहीन और किडनी दान दिया हो तो एक किडनी विहिन होकर जन्म लेगा या फिर इन अंगों को किसी घटना-दुर्घटना के परिणामस्वरूप खो बैठेगा. इस तरह की अवैज्ञानिक और गलत सोचों के पीछे कोई युक्तिपूर्ण तर्क नहीं है, सिर्फ एक काल्पनिक भय और अन्धविश्वास भर ही है. एक संत चर्चा के दौरान कहने लगे कि शास्त्र और पुराण ‘अंगदान’ करने की आज्ञा नहीं देते हैं. ‘अंगदान’ करने से मरने के बाद परलोक में और फिर धरती पर जन्म लेने पर बहुत कष्ट भोगना पड़ता है.

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मैंने उनसे पूछा कि ऐसा किस शास्त्र में लिखा है? कुछ देर तक उन्होंने कोई जबाब नहीं दिया, फिर कुछ झेंपते हुए बोले, ‘ऐसा मैंने कई संतों के मुख से सुना है. मेरे गुरुदेव का भी ऐसा ही विचार था. मैंने उन्हें शास्त्रों और पुराणों से ‘अंगदान’ के कुछ उदाहरण देते हुए कहा, ‘शिवजी ने गणेशजी का सर धड़ से अलग कर दिया था और फिर पार्वतीजी के अत्यन्त दुखी होने पर उन्होंने गणेशजी के धड़ पर गज का सर लगा दिया था. एक गज ने गणेशजी के लिए अंगदान देते हुए अपने प्राणों की आहुति तक दे दी थी. सती की मृत्यु के बाद भगवान शंकर ने वीरभद्र के द्वारा दक्ष के यज्ञ का विध्वंश करा दिया था. क्रोधित वीरभद्र ने दक्ष प्रजापति का सिर काट डाला था. बाद में ब्रह्मा जी के प्रार्थना करने पर भगवान शंकर ने अपने ससुर दक्ष प्रजापति के धड़ पर बकरे का सिर लगाकर उन्हें जीवन प्रदान किया था. इस तरह से एक बकरे ने अपने सर और प्राणों को समर्पित कर दक्ष प्रजापति को जीवनदान दिया था. महान तपोबल से युक्त महर्षि दधीचि ने स्वर्ग पर कब्जा कर लेने वाले वृतासुर राक्षस के वध के लिए समाधी लगा अपनी देह का त्याग कर दिया था.

अदभुद ऊर्जा से परिपूर्ण उनके शरीर की हड्डियों से विश्वकर्मा ने बेहद अचूक और शक्तिशाली अस्त्र ‘वज्र’ का निर्माण कर इन्द्र को दिया. उसी ‘वज्र’ से वृत्रासुर का वध हुआ और स्वर्ग का सिंहासन इंद्र को फिर मिल गया. शुक्राचार्य ने अपनी पुत्री देवयानी का विवाह राजा ययाति के साथ किया. देवयानी दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा से बदला लेने के लिए उसे दासी बनाकर अपने साथ ससुराल ले गई. वहां पर शर्मिष्ठा के प्रणय निवेदन करने पर राजा ययाति ने उससे भी शारीरिक-संबंध बना लिए, जिससे वो गर्भवती हो गई. इस बात की जानकारी होते ही देवयानी क्रोधित होकर अपने पिता शुक्राचार्य के पास चली आई. शुक्राचार्य ने श्राप देकर ययाति को वृद्ध बना दिया. ययाति ने अपने ससुर को समझाया कि ऐसा श्राप देकर आपने अच्छा कार्य नहीं किया है. इसमें आपकी पुत्री का भी अहित है. तब कुछ विचार कर के शुक्रचार्य जी ने कहा, “अच्छा! यदि कोई तुझे प्रसन्नतापूर्वक अपनी यौवनावस्था दे तो तुम उसके साथ अपनी वृद्धावस्था को बदल सकते हो.” राजा ययाति के बड़े पुत्र ऐसा करने के लिए तैयार नहीं हुए.

अंत में उसका सबसे छोटा पुत्र पुरू इसके लिए तैयार हुआ, जो पिता को अपना यौवन सौप उनकी वृद्धावस्था ले लिया. कहते हैं कि एक हजार वर्ष तक विभिन्न तरह के विषयों का भोग करने के बाद भी राजा ययाति का विषय भोग से जी नहीं भरा. अंततः विषय वासना से तृप्ति न मिलने पर उन्हें उनसे घृणा हो गई और उन्हें इस सत्य का ज्ञान भी हो गया कि विषय भोगो से कभी तृप्ति नहीं मिलने वाली है. इस शाश्वत सत्य का ज्ञान बोध होने के बाद राजा ययाति ने अपने पुत्र पुरू को न सिर्फ उसका यौवन वापस कर दिया, बल्कि उसे राजपाट भी सौप वैराग्य धारण कर लिया. यही पुरु आगे चलकर पांडवो के वंशज बने. शास्त्र और पुराण तो यही कहते हैं कि गणेश जी को सर देने वाले गज और दक्ष प्रजापति को सर देने वाले बकरे तथा महर्षि दधीचि से लेकर राजा पुरु तक जो भी अंगदान व् यौवनदान किये उन्हें इस लोक में न सिर्फ अपार कीर्ति मिली, बल्कि परलोक में बड़ी सहजता से उन्हें स्वर्ग का सुख भी मिला. वो देवताओं के जैसा सम्मान पाये. अतः अंगदान मोक्ष प्राप्ति में बाधंक नहीं, बल्कि सहायक है.

मेरी बात सुनकर संत जी कुछ बोले नहीं, किन्तु वो मेरी बात से संतुष्ट भी नहीं लग रहे थे. हिन्दू संतों और हिन्दू समाज को ‘अंगदान’ के विषय पर समझाना और उनकी परम्परागत धारणा को बदलना बेहद कठिन कार्य है. हालाँकि हिन्दू परिवार में किसी अपने परिजन को ‘अंगदान’ करना पड़े तो उनकी ‘पाप’ और ‘कर्मफल’ भोगने वाली विचारधारा बदल जाती है. किसी अंग के खराब होने पर हिन्दू अपने परिजन को इसे उसके बुरे कर्मों का फल बता ‘कर्मफल’ भोगने और तड़फ-तड़फ कर मरने के लिए क्यों नहीं छोड़ देते हैं? क्यों उसे तड़फते देख उसके परिजन ‘अंगदान’ के लिए व्याकुल हो उठते हैं? तब उन्हें परलोक और अगले जन्म की चिंता क्यों नहीं रहती? भाई, इतना कुछ कहने का सार बस यही है कि जैसा प्रेम अपने परिजनों से आप करते हैं, वैसा ही प्रेम आप सबसे कीजिये. अच्छे लोंगो की यही पहचान है कि उनके लिए इंसान और इंसानियत से बढ़कर और कुछ भी नहीं है. बहुतों को ये जानकार हैरत होगी कि केरल के एक बिशप जैकब मुरिकन ने एक हिन्दू युवक के लिए अपनी किडनी देने का फैसला किया है.
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पता चला है कि 30 वर्षीय एक बेहद गरीब हिन्दू युवक सूरज पिछले डेढ़ सालों से डायलिसस पर जीवित रहकर अपनी खराब किडनी के गम्भीर रोग से जूझ रहे हैं. कोई हिन्दू उसकी मदद को आगे नहीं आया, लेकिन एक ईसाई संत उसके बारे में जानकारी मिलते ही उसकी मदद करने को तैयार हो गए. सबसे बड़ी बात ये कि बिशप जेकब मुरिकन को इस बात से कोई आपत्ति नहीं है कि वह अपनी किडनी किसी दूसरे धर्म के व्यक्ति को दान कर रहे हैं. बल्कि वह तो इसे अपने मानवता से परिपूर्ण संदेशों को यथार्थ में बदलने का एक मौका भर मान रहे हैं. जीते जी ‘अंगदान’ करने के लिए पाला डायोसीश के सहायक विशप जैकब मुरिकन की जितनी भी तारीफ़ की जाए वो कम है.वैसे मैं आपको बताना चाहूंगा कि फादर डेविस चिरमेल भारत के पहले पादरी थे, जिन्होंने वर्षों पहले अपनी किडनी एक हिन्दू नौजवान को दान की थी और ‘किडनी फेडरेशन ऑफ इंडिया’ नाम की एक संस्था शुरू की थी, जो आज भी बहुत सुचारु रूप से अपना कार्य कर रही है. फादर डेविस चिरमेल के शिष्य सिबी सबस्चियन केरल के कोट्टायम केथोलिक चर्च के प्रीस्ट हैं.

उन्होंने कुछ साल पहले अपनी एक किडनी एक 30 साल के एक गरीब मुस्लिम युवक रसाद मोहम्मद को दान दी थी. किडनी ट्रांसप्लांट के आपरेशन में लगा पांच लाख रुपये का खर्च भी उन्होंने डोनेशन लेकर एकत्र किया था. ऐसे इंसान और उनकी इंसानियत को सलाम. धर्म जाति की परवाह किये बिना की गई ऐसी निस्वार्थ भाव वाली त्यागमय सेवा मोक्ष का मार्ग तो प्रशस्त करती ही है, इसके साथ ही भारत जैसे धार्मिक विविधता वाले मुल्क में पंथनिरपेक्षता की जड़ें भी मजबूत करती है. ये सच है कि हम सब लोग अलग-अलग धर्म को मानते है, किन्तु जब किसी व्यक्ति के जीवन को बचाने का मौका मिले तो हमे अपने धर्म से ऊपर उठकर सृष्टि के सबसे बड़े धर्म इंसानियत को अपनाने में ज्यादा सोच-विचार या देर नहीं करनी चाहिए. ये अच्छी बात है कि आज का युवा वर्ग हर तरह के अन्धविश्वास और दकियानूसी विचारधारा से बाहर निकलते हुए ‘रक्तदान’ और ‘अंगदान’ के कार्यक्रमों में न सिर्फ बढ़-चढ़कर भाग ले रहा है, बल्कि उसे आगे भी बढ़ा रहा है. हमारे देश और सम्पूर्ण दुनिया में ऐसी ही जागृति लाने की जरुरत है.

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(आलेख और प्रस्तुति= सद्गुरु श्री राजेंद्र ऋषि जी, प्रकृति पुरुष सिद्धपीठ आश्रम, ग्राम- घमहापुर, पोस्ट- कंदवा, जिला- वाराणसी. पिन- 221106)
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