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मुंशी प्रेमचन्द की कहानी ‘नमक का दरोगा’ आज भी प्रासंगिक है

सद्गुरुजी
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मुंशी प्रेमचन्द की कहानी ‘नमक का दरोगा’ आज भी प्रासंगिक है
अपनी क्रन्तिकारी लेखनी के दम पर पूरे विश्व में अपनी अमिट और अनुपम पहचान बनाने वाले कालजयी साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद की आज 137वीं जयंती है। मुंशी प्रेमचंद का बाहरी स्वरुप और रहन-सहन बड़ा ही साधारण था। उन्होंने अपने बारे में बड़ी विनम्रता से कहा था, ‘मैं एक निर्धन अध्यापक हूँ…मेरे जीवन मैं ऐसा क्या ख़ास है जो मैं किसी से कहूं।’ महान उपन्या्सकार और कहानीकार मुंशी प्रेमचन्द के असाधारण अंतर्मुखी व्यक्तित्व और अमर साहित्यिक कृतियों के बारे में उनके निधन के 81 वर्ष बाद भी ‘कफ़न’, ‘गबन’. ‘गोदान’, ‘निर्मला’, ‘ईदगाह; और ‘नमक का दरोगा’ जैसी उनकी कालजयी रचनाएं खुद बोलती हैं।

प्रेमचंद आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने वे अपने समय में थे। उनकी कहानियों और उपन्यासों में दर्शाई गई समस्याएं हमारे समाज में आज भी मौजूद हैं। काल्पनिक चरित्रों के चित्रण के माध्यम से हमारे समाज की जिन समस्याओं की उन्होंने अपने समय में चर्चा की, वो आज भी हमारे समाज में मौजूद हैं और हम उनसे निजात पाने के लिए अभी भी संघर्ष कर रहे हैं। ‘होरी’, ‘धनिया’, ‘वंशीधर’ और ‘पंडित अलोपीदीन’ जैसे पात्र आज भी हमारे गाँवों और शहरों में मौजूद हैं। मुंशी प्रेमचन्द की एक कालजयी रचना ‘नमक का दरोगा’ का जिक्र इस ब्लॉग में विशेष रूप से कर रहा हूँ, जो मैंने बचपन से लेकर अब तक कई बार पढ़ी है।

सबसे पहले समाज की यथार्थ स्थिति को उदघाटित करती ‘नमक का दरोगा’ कहानी का सारांश प्रस्तुत है। मुंशी वंशीधर एक ईमानदार और कर्तव्यपरायण व्यक्ति है, जो समाज में ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा की मिशाल कायम करता है। पंडित अलोपीदीन दातागंज के सबसे अधिक अमीर और इज्जतदार व्यक्ति थे। राजनीति व प्रशासन में अच्छी पकड़ की बदौलत वो अवैध कारोबार बेरोकटोक करते थे। अधिकांश अधिकारी उनके अह्सानतले दबे हुए थे। अलोपीदीन ने धन के बल पर समाज के सभी बर्गों के व्यक्तियों को अपना गुलाम बना रखा है और वह पैसे कमाने के लिए नियमविरुद्ध कार्य करता है। दरोगा मुंशी वंशीधर पण्डित अलोपीदीन की नमक की गाड़ियों को पकड़ लेता है, जिन्हें टैक्स की चोरी करते हुए कांनपुर ले जाया जा रहा है।
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अलोपीदीन आते हैं और दरोगा वंशीधर को रिश्वत देकर बचने का प्रयास करते हैं, किन्तु उसके ईमान को डिगा नहीं पाते हैं। दरोगा वंशीधर जमादार को पंडित अलोपीदीन को हिरासत में लेने का हुक्म देता है। वो अलोपीदीन को अदालत मैं गुनाहगार के रूप मैं प्रस्तुत करता है। लेकिन बकील और प्रशासनिक आधिकारी उसे निर्दोष सावित कर देते हैं और वंशीधर को नौकरी से वेदखल कर देते हैं। इसके एक सप्ताह उपरांत पंडित अलोपीदीन, वंशीधर के घर जाके माफी मांगता है और अपने कारोवार मैं स्थाई मैनेजर वना देता है तथा उसकी ईमानदारी और कर्तव्य-निष्ठा के आगे नतमस्तक हो जाता है।

दरोगा वंशीधर जैसे ईमानदार लोंगो का हमारे समाज में आज भी अभाव है और पण्डित अलोपीदीन जैसे रिश्वत देकर दो नम्बर के अवैध धंधे करने वालों की तो जैसे बाढ़ सी ही आई हुई है। मुंशी प्रेमचन्द जी की ये कहानी यूँ तो बहुत अच्छी है, किन्तु कहानी का अंत पाठकों को कुछ खटकता भी है। इस विस्तृत संसार में वंशीधर के लिए धैर्य अपना मित्र, बुध्दि अपनी पथप्रदर्शक और आत्मावलम्बन ही अपना सहायक था। आश्चर्य की बात है कि वो पण्डित अलोपीदीन जैसे बेमान व्यक्ति का नौकर बनना कैसे स्वीकार कर लेता है? मुंशी प्रेमचन्द जी से कहीं भूल हुई या फिर ये कहानी हमारे समाज का एक यथार्थ बताती है कि एक ईमानदार दरोगा सरकारी नौकरी से निकाले जाने पर मजबूरन पण्डित अलोपीदीन जैसे बे‌ईमान आदमी के यहाँ नौकरी करना स्वीकार कर लेता है।

हालांकि हमारे समाज की यह एक सच्चाई है। इस कहानी में एक सन्देश यह भी है कि ईमानदार व्यक्ति की कद्र बेईमान व्यवसायी भी करते हैं, क्योंकि अपना अवैध कारोबार चलाने के लिए उन्हें भी ईमानदार लोंगो की जरुरत पड़ती है। पण्डित अलोपीदीन को भी शोषण और बेमानी पर आधारित अपने काले कारोवार के लिए वंशीधर जैसे ही एक ईमानदार मैनेजर की जरुरत थी। आज के समाज की सच्चाई यही है कि ईमानदार लोग हमारी भ्रष्ट सामाजिक, राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था से थकहारकर अंत में मजबूरन या तो स्वयं ही बेईमान लोंगो की शरण में चले जाते हैं या फिर उन लोंगो के द्वारा खरीद लिए जाते हैं या फिर हमेशा अपनी पवित्र आत्मा की पुकार सुनने वाले ईमानदार लोग भ्रस्ट और बेईमान लोंगो द्वारा हमेशा के लिए ख़त्म कर दिए जाते हैं।

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आलेख और प्रस्तुति= सद्गुरु श्री राजेंद्र ऋषि जी, प्रकृति पुरुष सिद्धपीठ आश्रम, ग्राम- घमहापुर, पोस्ट- कन्द्वा, जिला- वाराणसी. पिन- 221106
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