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‘आज के युग का नमक का दारोगा’ कथा भाग-दो -जंक्शन फोरम

सद्गुरुजी
सद्गुरुजी
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‘आज के युग का नमक का दारोगा’ भाग-दो (भाग-एक से आगे की कहानी)-

दिन के लगभग दस बज रहे होंगे जब दारोगा वंशीधर पुलिस की जीप पर सवार होकर अपने अधीनस्थ पुलिस कर्मियों के साथ ‘माँ शान्ति देवी आभूषण केंद्र’ पहुंचे। उनके साथ श्याम टेटू और सोनू पण्डित भी थे। चोरी गए गहनों की शिनाख्त करने के लिए दारोगा वंशीधर की पत्नी सत्या भी वहां पर बुला ली गईं थीं। पुलिसवालों को दुकान के भीतर आता देख दुकान में बैठी महिलायें उठकर दुकान से बाहर निकल गईं। उन्हें आभास हो गया था कि मामला कुछ गड़बड़ है। बूढ़े मुनीम जी को जब पता चला कि पुलिस दुकान पर छापा मारने आई है तो वो बड़ी तेजी से पंडित अलोपीदीन के घर के भीतर की ओर भागे।
कुछ ही देर में हाथ जोड़े हुए पंडित अलोपीदीन दारोगा वंशीधर के सामने हाजिर हो गए, ‘कहिये साहब! क्या बात है?’
दारोगा वंशीधर बोले, ‘पंडित जी! कल रात को मेरे घर पर जो चोरी हुई थी, उसे अंजाम देने वाले दोनों मुजरिम पकडे गए हैं। श्याम टेटू के साथ आपका बेटा सोनू पण्डित भी इस जुर्म में शामिल है। दोनों ने अपना जुर्म कुबूल कर लिया है और इन्होंने चोरी के गहने आपकी दुकान पर बेचने की बात कही है।’

पंडित अलोपीदीन ने हाथ जोड़कर कहा, ‘दारोगा जी! ये दोनों झूठ बोल रहे हैं। मैं चोरी के गहने नहीं खरीदता हूँ। ये श्याम टेटू कई बार चोरी के गहने लेकर मेरी दुकान पर आया था, पर मैंने इससे कोई गहना कभी नहीं खरीदा। हो सकता है कि आज ये उसी बात का मुझसे बैर निकाल रहा हो और ये सोनू पण्डित मेरा बेटा नहीं है। इससे मुंह मोड़े दसों साल हो गये हैं। मेरा कोई बेटा नहीं, बस एक बेटी है।’ पंडित अलोपीदीन ये कहते कहते अपने आंसू पोंछने लगे।
दारोगा वंशीधर बोले, ‘अगर ये दोनों झूठ बोल रहे हैं तो अभी सच-झूठ का पता चल जाएगा। आप हमें तलाशी लेने दीजिये।’
दारोगा वंशीधर के इशारा करते ही तलाशी शुरू हो गई। दुकान की बड़ी तिजोरी खोलकर सोने-चांदी के कीमती गहने एक एक कर वंशीधर की पत्नी सत्या को दिखाए जाने लगे।
सत्या के मुंह से ‘ये मेरा है और ये भी मेरा है’, बस इतना भर कहने की देर थी कि तुरन्त उस गहने की शिनाख्त पूरी मान एक तरफ रख दिए जाते।
पंडित अलोपीदीन रोते-विलखते हुए हाथ जोड़कर कहते रहे, ‘मैडम! आप हमारी पुरानी ग्राहक हैं। ये गहने आपके नहीं हैं। डिजाइन वही होगा, पर ये गहने आर्डर दिए हमारे ग्राहकों के हैं। आप हमारे कारीगरों से पूछ लीजिये।’

‘भगवान् से डरें। ऐसा जुल्म न करें।’ पंडित अलोपीदीन रोते गिड़गिड़ाते रहे, पर वहां पर उनकी सुनने वाला कोई न था। उन्हें तो बस झिड़ककर चुप करा दिया जाता रहा। उनके सारे कर्मचारी भी डर के मारे चुप थे। कुछ ही देर में चार लाख के गहनों की शिनाख्त पूरी हो गई। हालांकि किसी को भी ठीक से ये पता नहीं था कि उतने रूपये के गहने चोरी भी हुए हैं या नहीं?
दारोगा वंशीधर अपना सीना गर्व से तानते हुए पूरे दारोगाई रुआब के साथ बोले, ‘पण्डितजी! सभी गहने बरामद हो चुके हैं। अब आपको हमारे साथ थाने चलना होगा।’
पंडित अलोपीदीन समाज के एक इज्जतदार व्यक्ति थे, किन्तु आज मुंह पर कालिख पुत चुकी थी। वो थाने ले जाए गये। वहां पर घण्टों समझौते की बात होती रही। अंत में रात को आठ बजे पुलिस की एक गाडी उन्हें दुकान पर लाकर छोड़ गई। दुकान पर उनकी पत्नी, पुत्री और सभी कर्मचारी बड़ी बेसब्री से किसी अच्छे समाचार का इन्तजार कर रहे थे।

पंडित अलोपीदीन को देखते सब लोग उन्हें घेर लिए। बूढ़े मुनीम जी ने बड़ी व्याकुलता से पूछा, ‘पण्डितजी! क्या हुआ? सब मामला सुलझ गया न?’
बुरी तरह से हताश निराश पंडित अलोपीदीन लड़खड़ाते हुए दूकान के भीतर आ अपनी गद्दी पर धम्म से गिरकर हाँफते हुए बोले, ‘अरे, वो लोग मामला सुलझाने के लिए नहीं, बल्कि मुझे लूटने के लिए ले गये थे। मुझे छोड़ने के बदले में मेरे चार लाख के गहने लूट लिए। पुलिसवालों ने कई साल की जेल की सजा होने का भय दिखाकर मुझे ये पट्टी पढ़ा दी कि आप समाज के बहुत इज्जतदार व्यक्ति हैं, इसलिए कानूनी पचड़ों में न पड़ें। हम लोग आपकी मान मर्यादा का लिहाज करते हुए गहनों की बरामदगी कहीं और से दिखा देंगे। मै मजबूरन उनकी झूठी बातों में फंस गया, क्योंकि मेरा अपराधी कुपुत्र ही मेरे खिलाफ झूठी गवाही दे रहा है। भगवान् किसी को भी ऐसी नालायक और धूर्त औलाद न दें। हाय! मै तो लूट गया। मेरे जैसा सभ्य, निर्दोष, ईमानदार और इज्जतदार व्यक्ति पुलिसवालों के फरेबी जाल में फंसकर इतना बड़ा नुकसान और बेइज्जती झेल रहा है। मेरा तो कलेजा फटा जा रहा है। दिल बैठा जा रहा है।’
कुछ क्षणों तक चुप रहने के बाद पंडित अलोपीदीन रोते हुए बहुत दुखी स्वर में बोले, ‘दारोगा और दारोगाईन मेरे चार लाख के गहने भले ही लूट लिए हों, पर उसे पचा नहीं पाएंगे। मेरे भी बहुत से राजनीतिक रसूख हैं। लखनऊ से दिल्ली तक दौडूंगा। देख लूंगा उन्हें!’

पंडितजी को रोता-विलखता देख सभी कर्मचारी बहुत दुखी थे। दोनों मुंशी उन्हें समझा रहे थे कि पंडितजी आप फ़िक्र न करें। हमलोग रातदिन एक कर काम करेंगे और ये भारी भरकम घाटा पूरा करेंगे।
पण्डित जी की पत्नी भी अपनी आँखे पोंछते हुए समझा रही थीं, ‘जो हुआ उसे भूल जाइये। बस आप सही सलामत रहें, हम फिर कमा लेंगे।’
पण्डित अलोपीदीन पत्नी को झिड़कते हुए बोले, ‘चार महीने बाद बेटी की शादी होनी तय हो चुकी है, इतनी जल्दी हम चार लाख रुपये क्या ख़ाक कमा लेंगे! अब तो दूकान की पूंजी ही टूटेगी!’
पंडितजी की पुत्री अपने पिता के आंसू पोंछते हुए बोली, ‘पिताजी! आप भले ही मेरी शादी तोड़ दीजिये, मेरा विवाह मत कीजिये, पर दुखी मत होइए!’
बेटी ये कहकर रोते हुए घर के अंदर चली गई। पण्डितजी को समझाने के लिए कुछ और मानिंद लोग एकत्र हो गए। लोग जितना ही उन्हें समझाते थे, उनकी व्याकुलता और घबराहट उतनी बढ़ती जाती थीं। रात बहुत ज्यादा बीत जाने पर धीरे-धीरे एक-एक कर लोग जाने लगे। अंत में बूढ़े मुनीम जी को छोड़ दूकान के सभी कर्मचारी भी चले गए। बूढ़े मुनीमजी पंडित अलोपीदीन के अत्यंत निकट थे। हिसाब-किताब ज्यादा होने पर वो अक्सर रात को दूकान में ही रुक जाते थे। पण्डित अलोपीदीन की खराब हालत देख आज तो वैसे भी उनका रुकना जरुरी था।

मुनीम जी ने जाकर दूकान का शटर गिराना चाहा, किन्तु आज पण्डित अलोपीदीन ने जाने क्यों उन्हें ऐसा करने से मना कर दिया। रात को पण्डित अलोपीदीन ने खाना नहीं खाया। वो नहीं खाये तो उनकी बेटी, पत्नी और बूढ़े मुनीम जी ने भी खाना नहीं खाया। पण्डित अलोपीदीन दीवाल से टेक लगा आँख मूंद लिए। बूढ़े मुनीमजी दूकान का सब कीमती सामान तिजोरी में सहेजकर रखने के बाद ताला लगाए और चाभी पंडित जी की पत्नी को सौप दिए। दूकान में बिछे गद्दे पर बैठकर मुनीमजी थोड़ी देर तक ऊंघते रहे और फिर नींद की मार से अनियंत्रित हो वहीँ लुढ़क गए। पण्डित अलोपीदीन की बेटी और पत्नी भी ऊँघने लगीं। दीवाल की टेक लगा दोनों न जाने कब सो गईं।
भोर में चार बजे के लगभग जब बूढ़े मुनीमजी जगे तो देखा कि पण्डित अलोपीदीन गद्दे पर लुढ़के पड़े हैं और उनका मुंह खुला हुआ है। उन्होंने कई बार आवाज दी, ‘पण्डितजी! पण्डितजी!’
आवाज सुन पंडितजी तो नहीं, पर उनकी बेटी और पत्नी तुरन्त जग गईं। सब मिलकर पण्डितजी को आवाज देने लगे और हिलाने डुलाने लगे, लेकिन पण्डितजी की निर्जीव देह भला क्या जबाब देती?

रिक्शे से उतरकर अपने घर की तरफ जाती लाडली ‘माँ शान्ति देवी आभूषण केंद्र’ के सामने भीड़ देख रुक गई। पूछने पर पता चला कि पण्डित अलोपीदीन रात को गुजर गए। अब घाट पर अंतिम संस्कार के लिए उन्हें ले जाने की तैयारी हो रही है। वहां पर ‘पण्डित अलोपीदीन जिंदाबाद’ और ‘दारोगा वंशीधर मुर्दाबाद’ का गगनभेदी नारा लगाने वाली हजारों की भीड़ जमा थीं। पंडितजी के निधन से लाडली बहुत दुखी हुई, पर भीड़ उसके भाई का नाम लेकर मुर्दाबाद का नारा क्यों लगा रही है, ये उसकी समझ में नहीं आया।
घर आकर लाडली को घर में चोरी होने और पण्डितजी के दूकान पर छापे वाली बात मालूम हुई। उसे फोन कर इन सब बातों की जानकारी नहीं दी गई थी।
उसके पिता बूढ़े मुंशीजी ने बड़ी उत्सुकता से पूछा, ‘लाडली तूने गहने कहाँ छुपाये थे?’
लाडली सबके साथ अपनी भाभी के कमरे में घुसी। धड़कते दिल से गोदरेज की आलमारी के नीचे हाथ डाल वो एक पोटली निकाली, घर के सब गहने उसमे रखे हुए थे। यह देख कुछ देर के लिए तो सब के सब सन्न रह गए।
सहसा तभी वंशीधर के बूढ़े पिता ने ठठाकर हँसते हुए कहा, ‘तूने बड़ा अच्छा किया बिटिया जो गहने ऐसी जगह छिपाई कि चोरों के हाथ नहीं लगा।’

पण्डित अलोपीदीन की बेगुनाही का साक्षात् सबूत मिलने पर दारोगा वंशीधर कुछ पल के लिए सकते में आ गए। यह ठीक वैसा ही आत्मबोध था जब किसी मुर्दे को आँखों के सामने से जाता देख सभी को कुछ पल के लिए होता है। किन्तु कुछ ही पल बाद ही आदमी अपने दिमाग से उस मुर्दे को झटक खुद को समझाता है कि अरे ये तो वो मरा है जो घाट की ओर जा रहा है, तू थोड़े मरा है, तू तो जीवित है। विवेकशील लाडली ने अपनी भाभी से पण्डित अलोपीदीन के परिवार को उनसे लिए गहने लौटा देने की बात कही, पर दुविधा में फंसी सत्या चुप रही। अहंकार के वशीभूत रहने वाले दारोगा वंशीधर भी चुप रहे।
ऐसे ही विरक्ति और दुविधा के क्षणों में माया में आकण्ठ डूबे बूढ़े मुंशीजी ने बेटे की पीठ ठोंकी, ‘वाह बेटा वाह! तूने क्या खूब तक़दीर पाई है। छप्पड़फाड़ के मिला है।’ फिर कुछ रूककर आगे बोले, ‘और सुन! पण्डित अलोपीदीन से लिए गहने उनके परिवार को वापस लौटाने की बात सोचना भी मत। ऐसी मूर्खता की तो तू बहुत बुरी तरह से फंस जाएगा और अपनी बनी बनाई हुई इज्जत भी गंवाएगा।’
दारोगा वंशीधर ने उस समय बूढ़े बाप की बात मानना ही उचित समझा।

पण्डित अलोपीदीन की मृत्यु के लगभग एक हफ्ते के बाद एक दिन अचानक दारोगा वंशीधर के सीने में तेज दर्द उठा। इस बारे में किसी को कुछ बताये बिना वो खुद ही अपनी बोलेरो लेकर हॉस्पिटल पहुंचे। बोलेरो से उतरकर अभी हॉस्पिटल की कुछ ही सीढियां चढ़े होंगे कि वहीँ सीढ़ियों पर ही लड़खड़ाकर गिर पड़े। हॉस्पिटल वाले और वहां के डॉक्टर उनसे भलीभांति परिचित थे, इसलिए स्ट्रेचर मंगवा तुरन्त उन्हें आपरेशन रुम में ले गए। डॉक्टर दारोगा वंशीधर के इलाज के सभी तरीके आजमाए, पैर कोई फायदा न हुआ।
अंत में और विकल्प न देख आपरेशन करते हुए डॉक्टर जब दारोगा वंशीधर के दिल तक पहुंचे तो बड़ी हैरत में आ गए। किसी फुले हुए गुब्बारे की तरह उनका दिल अचानक ही बुरी तरह से फट गया। सारे जहाँ से नमक हरामी कर जिस शरीर और दिल की वो नमक हलाली करते रहे, वही आज धोखा दे गए थे। हालाँकि उनके मोहल्ले के लोग यही कहते हैं कि निरपराध और निर्दोष पण्डित अलोपीदीन की आह उन्हें खा गई। दारोगा वंशीधर ने निरपराध और निर्दोष पण्डित अलोपीदीन का दिल दुखाया, इसलिए उनका दिल फट गया। काश! यदि ईश्वर और कुदरत ऐसा ही न्याय हर निर्दोष और निरपराध के मामले में करें तो दुख और शोषण से भरी ये दुनिया सुखों से भरे स्वर्ग में तब्दील हो जाए।

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कहानी और प्रस्तुति= सद्गुरु श्री राजेंद्र ऋषि जी, प्रकृति पुरुष सिद्धपीठ आश्रम, ग्राम- घमहापुर, पोस्ट- कन्द्वा, जिला- वाराणसी. पिन- 221106
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