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श्रीकृष्ण जन्माष्टमी: धरती व भक्त दोनों को श्रीकृष्ण की जरुरत है

सद्गुरुजी
सद्गुरुजी
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ना तन का ध्यान रहा ना मन का ध्यान रे
आज सभी सुंदरियां भूली हैं भान रे
सखियों के संग संग
ठनक रही है मृदंग
पुलकित है अंग अंग
मन में उछले तरंग
झूम झूम कामिनिया ऐसी हुई बावली
बालों की लट उलझी रे
हो गोपियाँ नाचें छुमक छुम
कान्हा बजाये बंसरी और ग्वाले बजाएं मंजीरे
हो गोपियाँ नाचें छुमक छुम….

रासलीला का वास्तविक स्वरूप यही है, जो इस गीत में वर्णित है. संसार में जब कोई पुरुष दो चार स्त्रियों से दोस्ती कर ले या प्रेम कर ले या कोई स्त्री ऐसा करे तो लोग छींटाकसी करने लगतें है कि रासलीला चल रही है. ये मायिक जगत का प्रेम है और छींटाकसी करने वाले भी मायिक हैं. भगवान की माया ने किसी को सतोगुण किसी को रजोगुण और किसी को तमोगुण से घेर रक्खा है. लोग उसी के अनुसार बोलतें और व्यवहार करते हैं. रासलीला मायिक नहीं बल्कि आध्यात्मिक जगत की उच्च अवस्था है जहाँ पर शरीर की सुधबुध नहीं रहती है और जीव भगवान के आनंद में लीन हो जाता है. भगवान कृष्ण की रासलीला वाली तस्वीरें देखिये. उसमे भगवान कृष्ण के साथ एक से बढकर एक सुंदर गोपियाँ, कोई पूजा की थाल हाथ में लिए है और कोई माला, शरीर की सुधबुध भी किसी को नहीं. भगवान कृष्ण बांसुरी बजाते हुए अपने स्वरुप में लीन हैं और गोपियाँ उनमें अर्थात भगवान में लीन हैं.

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यहाँ पर सांसारिक जगत का कोई मायिक प्रेम नहीं है बल्कि तन, मन, बुद्धि और अहंकार से उपर उठकर आध्यात्मिक जगत का विशुद्ध प्रेम है. भगवान अपनी स्वरुपशक्ति में लीन हैं और भक्त भगवान में. रास शब्द में रा जीव है और स परमात्मा. जीव और परमात्मा का मिलन ही रास है, भगवान का भक्त को दर्शन देना ही लीला है. एक आध्यात्मिक शब्द है राधा. शाश्वत धाम से ईश्वर अंश जीव की संसार की ओर गति ‘धारा’ है अर्थात धा यानि अपने शाश्वत धाम से रा यानि जीव इस नश्वर संसार में आया. इसके ठीक उलट जीव का इस संसार को छोड़ अपने शाश्वत धाम वापस जाना ‘राधा’ है. ‘राधा’ शब्द का जाप एक भजन है. अपने शाश्वत धाम वापस जाने का सद्प्रयास है. भजन करने वाला हर जीव राधा है. भजन शब्द का अर्थ है भज न अर्थात भागना मत. अब फिर से संसार की ओर भागना मत, भगवान के भजन में लगे रहना एक दिन सफलता जरूर मिलेगी.

अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण जी से पूछा था कि ईश्वर कहाँ रहतें हैं और क्या करतें हैं? श्रीमदभगवद्गीता के अध्याय 18 श्लोक 61 में वर्णित है कि भगवान श्रीकृष्ण जी ने अर्जुन को उसके प्रश्न का उत्तर दिया था कि हे अर्जुन! ईश्वर एक हैं और वो सभी प्राणियों के ह्रदय में रहतें हैं. अंतर्यामी ईश्वर अपनी मायाशक्ति के जरिये जीवों को उनके कर्मानुसार सांसारिक आवागमन (जन्म-मृत्यु) देतें हैं और एक योनि से दूसरी योनि में भ्रमण करातें हैं. संतजन कहतें हैं कि भगवान ह्रदय में बैठकर जीव के सारे कर्मों को देखतें हैं, उसके पाप पूण्य को नोट करतें हैं, यहाँ तक कि जो अच्छा-बुरा हम सोचतें है भगवान वो भी नोट करतें हैं और उसके अनुसार अच्छा-बुरा फल भी देते है. संसार में जो लोग पाप कर्म में रत है, जो लोग चोरी, बेईमानी करतें हैं, जो लोग भ्रष्ट्राचार में लिप्त हैं और जो लोग रिश्वत लेते हैं वो लोग भ्रम में जीतें हैं कि कोई उन्हें देख नहीं रहा है.

भगवान उन्ही के भीतर बैठकर सब कुछ नोट कर रहें हैं, जब उनके बुरे कर्मो का उन्हें दंड मिलेगा तब रोने पछताने के सिवा कुछ नहीं कर पायेंगें. इसीलिए कहतें हैं कि भगवान की लाठी जब पड़ती है तो आवाज़ नहीं करती. ये भगवान् श्री कृष्ण की ही अनुपम और अनमोल कृपा है कि मैं परमात्मा का एक भक्त हूँ और पीड़ित मानवता की थोड़ी-बहुत सेवा कर पा रहा हूँ. बचपन से ही मै भगवद गीता और भगवान कृष्ण से बहुत प्रभावित था. गीता पढ़कर मुझे हमेशा यही लगता है कि कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम अर्थात मै उन श्री कृष्ण की वंदना करता हूँ. वो पूरे जगत के गुरु हैं. भगवान श्री कृष्ण ने निराकार परमात्मा की भक्ति पर विशेष जोर दिया. उसी परम्परा को बाद में आदिशंकराचार्य जी ने आगे बढाया. उन्हें भी जगतगुरु की संज्ञा दी गई. उन्होंने तो साफ साफ कह दिया कि ‘ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या’ अर्थात निराकार परमात्मा ही सत्य है, ये संसार जो आँखों से दिखाई देता है वो झूठ है.

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आगे चलकर इसमें थोडा संसोधन किया गया कि परमात्मा ही सत्य है और संसार स्वप्न सरीखा है. आगे चलकर इसमें थोडा और संसोधन हुआ कि परमात्मा हमेशा के लिए सत्य है और संसार कुछ समय का सत्य है. मुझे तो जगतगुरु आदिशंकराचार्य जी का मूल उपदेश ही प्रिय लगता है कि ‘ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या’. आदिशंकराचार्य जी ने बहुत अल्प जीवनकाल में हिन्दू धर्म और हिन्दू दर्शन के लिए जो कुछ भी किया वो आज तक कोई नहीं कर पाया. वो अंतिम समय तक अपनी शारीरिक बीमारियों से जूझते हुए पूरे भारतवर्ष में नंगे पांव चलकर हिन्दू धर्म के उत्थान में लगे रहे. भगवान श्रीकृष्ण और आदिशंकराचार्य जी ये दोनों ही वास्तव में जगतगुरु हैं. जिन महापुरुषों ने भी त्याग और तपस्यापूर्ण जीवन जीते हुए हिन्दू धर्म का उत्थान करने का कार्य किया है, हम सब लोग हमेशा से ही उनके प्रसंशक व ऋणी हैं और हमेशा रहेंगे.

श्री कृष्ण जन्माष्टमी के परम पुनीत अवसर पर उन सभी महापुरुषों और सद्गुरुओं का मैं हृदय से नमन करता हूँ, जिन्होंने मुझे भगवान श्री कृष्ण की अदभुद और आध्यात्मिक लीलाओं को समझने तथा स्वयं और परमात्मा को जानने के लिए भगवद्गीता पढ़ने की सलाह दी. मैंने हमेशा उन लोगों की आलोचना की है जो धार्मिक होने का पाखंड व दिखावा भर करते हैं. असलियत में वो लोग झूठ और भोग-विलास का जीवन जीते हुए अपने कुकर्मों से हिन्दू धर्म की हानि ही कर रहे हैं और पूरी दुनिया में हिन्दू धर्म को बदनाम कर रहे हैं. इनके प्रति सहानभूति या दया दिखाकर हम अपने धर्म की ही क्षति कर रहें हैं. जो सच्चे संत हैं, हिन्दू धर्म के उत्थान में लगें हैं, हम सब लोगों को मिलकर उनका साथ देना चाहिए और जो गलत हैं, हिन्दू धर्म को बदनाम कर रहें हैं, उनको पुलिस और कानून के हवाले करें तथा उनका तिरस्कार करते हुए सामाजिक बहिष्कार करें. अंत में बस यही कहूंगा-

संकट में है आज वो धरती,
जिस पर तूने जनम लिया
पूरा कर दे आज वचन वो,
गीता में जो तूने दिया
कोई नहीं है मोहन तुम बिन,
भारत का रखवाला रे
बड़ी देर भई नंदलाला
तेरी राह तके बृजबाला
ग्वाल-बाल इक-इक से पूछे
कहाँ है मुरली वाला रे
बड़ी देर भई नंदलाला….

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आलेख और प्रस्तुति= सद्गुरु श्री राजेंद्र ऋषि जी, प्रकृति पुरुष सिद्धपीठ आश्रम, ग्राम- घमहापुर, पोस्ट- कन्द्वा, जिला- वाराणसी. पिन- 221106
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