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अपने एक ब्लॉग में मैंने जिक्र किया था कि वाराणसी के कन्दवा क्षेत्र में स्थित लगभग पांच हजार की आबादी वाला घमहापुर गाँव शहर से सटा हुआ है, लेकिन विकास के नाम पर इसकी स्थिति शून्य है. एक तरफ जहाँ कन्दवा पोखरा से घमहापुर गाँव तक जाने वाली ईंट बिछी वर्षों पुरानी सड़क बेहद खस्ताहाल में है तो वहीँ दूसरी तरफ घमहापुर गाँव और उसके आसपास बनी कालोनियों में बारिश और घरों से निकलने वाले नहाने धोने के पानी की निकासी का कोई भी समुचित प्रबंध नहीं हैं. सड़क और चकरोट के साथ-साथ नाला न बना होने से पानी की निकासी का कोई रास्ता नहीं है. सड़क की मरम्मत और नाली बनवाने के लिए गाँव के लोग स्थानीय विधायक से लेकर मंत्री तक के पास दौड़ लगाए, लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला. इस ब्लॉग में मुझे बताते हुए ख़ुशी हो रही है कि घमहापुर गाँव के एक क्षेत्र में ग्रामीणों ने लगभग 25000 रूपये आपसी सहयोग से एकत्र कर लगभग 400 फुट लंबी बहुत बढ़िया पक्की नाली बना डाली है. सरकार कुछ नहीं कर सकती तो कम से कम ऐसा करने वालों को सम्मानित और पुरस्कृत तो करे.
इस सेवा यज्ञ में आश्रम ने भी 3800 रूपये का सहयोग दिया. गाँव के दूसरे क्षेत्र लोग भी ऐसा ही करने जा रहे हैं. इसमें कोई संदेह नहीं कि देश का विकास तेजी से हो रहा है, किन्तु हमारे गाँवों की टूटी-फूटी सड़कें और गलियों में बहता पानी यही कह रहा है कि वहां पर कोई विकास का कार्य नहीं हो रहा है. विकास के नाम पर देश के अधिकांश गावों की स्थिति शून्य है. गाँवों में सड़कों की स्थिति जर्जर है. बारिश के मौसम में तो उन सड़कों पर चलना तक मुश्किल हो जाता है. ग्रामीण जगत में अधिकांश दुर्घटनाएं खराब सड़कों की वजह से होती हैं. गाँवों में स्कूलों का भी घोर अभाव है, जिससे बच्चों को कई किलोमीटर दूर पढ़ने के लिए जाना पड़ता है. बहुत से टूटे-फूटे खण्डहरनुमा हो चुके स्कूलों की दशा भी बेहद खराब है. कब कोई दुर्घटना घट जाए पता नहीं. सरकारी प्राइमरी विद्यालयों में अब तो गरीब लोग भी अपने बच्चों को भेजना नहीं चाहते, क्योंकि अधिकतर स्कूलों में एक तो बच्चे गिनती के होते हैं, दूसरे अच्छी पढ़ाई नहीं होती है. सबसे बड़ी चिंता की बात ये है कि प्राइमरी स्कूल आरामतलबी और अवैध कमाई के जरिया बन गए हैं.
प्रधानाध्यापक, अध्यापक, ग्रामप्रधान, खंड शिक्षा अधिकारी और बेसिक शिक्षा अधिकारी की मिलीभगत से प्राइमरी स्कूलों में भ्रष्टाचार का ऐसा गड़बड़झाला है कि पूछिये मत. मिडडे मिल यानि बच्चों के दोपहर के खाने में भी सबकी मिलीभगत से खूब हेराफेरी होती है. सरकार को अपने प्राइमरी स्कूलों को निजी क्षेत्र में दे देना चाहिए. केवल टीचर भर उसके रहें, तभी प्राइमरी स्कूलों की शिक्षा का स्तर ऊंचा उठेगा. शिशुओं की शिक्षा के लिए चलाये जा रहे आंगनवाड़ी शिशु केंद्रों की तो कोई जगह ही निर्धारित नहीं है. कहीं पर भी दो चार बच्चों को इकट्ठा कर टाइम पास किया जाता है और बच्चों को कुछ खाद्य सामग्री देकर खानापूर्ति कर दी जाती है. वहां पर भी मिडडे मिल में भारी घोटाला किया जाता है. गाँवों में स्वास्थ्य सेवा की स्थिति तो और भी बदतर है. प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर सबसे पहले तो डॉक्टर मिलते ही नहीं हैं, वो अक्सर अपनी ड्यूटी से नदारद रहते हैं. भूले भटके यदि वहां पर कभी डॉक्टर मिल भी जाएं तो न दवाइयां मिलती हैं और न ही जांच पड़ताल की सुविधा है. इसी का फायदा उठा प्राइवेट डॉक्टर ग्रामीणों को लूट रहे हैं.
गाँवों में बैंकिंग व्यवस्था की स्थिति भी बेहद खराब है. एक तो ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत कम बैंकों की शाखाएं हैं, दूसरे नोटबन्दी की वजह से बैंकों में इतनी भीड़ चल रही है कि बैंक में जिस दिन किसी का काम पड़ जाता है तो समझिये कि उसका पूरा दिन उसी में चला जाता है. हालाँकि नोटबंदी के 50 दिन पूरे हो जाने के बाद अब बैंकों में भीड़ कम हो गई है और खाली पड़े निष्क्रिय हो चुके एटीम भी अब रूपये भरे जाने से सक्रिय होकर नोट देने लगे हैं. जाहिर है कि यदि देश को आगे ले जाना है तो गांवों में मूलभूत सुविधाएं पहुंचानी होंगी. गाँवों को हर हाल में खुशहाली के मार्ग पर आगे ले जाना होगा. गाँवों की उन्नति किये बिना केवल शहरों में हो रहे विकास के बल पर भारत बहुत आगे नहीं जा पायेगा और उसकी उन्नति भी सर्वांगीण और चहुँमुखी विकास वाली नहीं मानी जायेगी. चाहे केंद्र सरकार हो राज्य सरकार, गाँवों की बदहाली दूर करना उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती है. सड़क, पानी, बिजली, शिक्षा, बैंकिंग और स्वास्थ्य सेवाएं, हर क्षेत्र में भारत के गाँवों की बदहाली को देखकर तो नहीं लगता कि इसे लेकर केंद्र और राज्य सरकारें गंभीर हैं.
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आलेख और प्रस्तुति= सद्गुरु श्री राजेंद्र ऋषि जी, प्रकृति पुरुष सिद्धपीठ आश्रम, ग्राम- घमहापुर, पोस्ट- कन्द्वा, जिला- वाराणसी. पिन- 221106
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