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68वां गणतंत्र दिवस: आज भी वही अनुत्तरित सवाल कि गरीबों की मुट्ठी में क्या है?

सद्गुरुजी
सद्गुरुजी
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नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है?
मुट्ठी में है तक़दीर हमारी
हम ने क़िस्मत को बस में किया है …
भोली भली मतवाली आँखों में क्या है?
आँखों में झूमे उम्मीदों की दिवाली
आनेवाली दुनिया का सपना सजा है …

सन 1954 में प्रदर्शित हुई फिल्म “बूट पालिश” के लिए यह गीत मशहूर गीतकार शैलेन्द्र ने लिखा था. सिनेमा के परदे पर अभिनेता डेविड को झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले और कूड़ा बीनकर तथा बूट पोलिश कर अपना गुजर बसर करने वाले गरीब बच्चों के साथ ये गीत गाते हुए दिखाया गया था. अंग्रेजों के शासन काल में हम बेबश और गुलाम थे. गरीबी का दंश झेलना बहुत हद तक हमारी नियति थी, लेकिन आजादी के बाद जब हमारे आजाद हिंदुस्तान में स्वदेशी और लोकतांत्रिक हुकूमत कायम हुई तो देश के फटेहाल गरीब बच्चों के साथ साथ उनके अभिभावकों व बहुसंख्यक गरीब आबादी ने ख्वाब देखना शुरू कर दिया कि अब हमारी तक़दीर हमारी मुट्ठी में है. अब इसे बदलते देर नहीं लगेगी. आजाद हिंदुस्तान के नेता हमारी गरीबी और फटेहाली को दूर कर हमारी नियति बदल देंगे, किन्तु उनका ये ख्वाब न तो उस समय पूरा हुआ और न ही आज तक पूरा नहीं हो सका. देश आज 68वां गणतंत्र दिवस मना रहा है. देश की अधिकतर आबादी आज भी गरीब है. हम केवल सरकारी आंकड़ों में हर वर्ष देश की गरीबी का अनुपात घटाते चले जाते हैं.
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भीख में जो मोती मिले लोगे या न लोगे,
ज़िंदगी के आँसूओं का बोलो क्या करोगे?
भीख में जो मोती मिले तो भी हम ना लेंगे
ज़िंदगी के आँसूओं की माला पहनेंगे
मुश्किलों से लड़ते भिड़ते जीने में मज़ा है …
नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है?

साल 1947 में देश आजाद हुआ और 26 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान लागू हुआ. उस समय गरीब बच्चों से पूछा जाता था कि अब भीख तो न मांगोगे? कूड़ा तो न बिनोगे? अमीर घरों और होटलों की जूठन तो न खाओगे? बच्चे ऐसा न करने और मुश्किलों से लड़ने का वचन देते थे, किन्तु देश के रहनुमाओं ने उन्हें घर, भोजन, वस्त्र और शिक्षा जैसी मुलभुत सहूलियतें ही नहीं प्रदान की कि वो अपना वचन निभा पाते. गरीबी और भूखमरी झेलते हुए हुए उनकी कई पीढियां गुजर गईं. आज भी हालात वही हैं. देश को विकसित बना 21वीं सदी में ले जाने की बात हो या फिर उसे सुपरपावर मुल्क बनाने की बात हो, कौन इससे सहमत नहीं है, किन्तु उन भूखों नंगों का क्या होगा जो सवा करोड़ की आबादी वाले हिंदुस्तान देश की लगभग आधी आबादी हैं और जो विकास की दौड़ में बहुत पीछे छूट गए हैं. क्या आप विश्वास करेंगे कि इस देश में बहुत से गरीब होटलों, अमीर घरों, शादी-विवाह के स्थलों और आश्रमों के भंडारों से फेंके गए खानों को सुखाकर अपनी झोली में रखते हैं, ताकि जिस दिन चूल्हा न जले उस दिन वो अपनी और अपने बच्चों की भूख मिटा सकें.
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हम से न छुपाओ बच्चो हमें भी बताओ,
आनेवाले दुनिया कैसी होगी समझाओ?
आनेवाले दुनिया में सब के सर पे ताज होगा
न भूखों की भीड़ होगी न दुखों का राज होगा
बदलेगा ज़मना ये सितारों पे लिखा है …
नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है?

चाहते तो हम सब लोग हैं कि देश की मुख्यधारा और विकास की दौड़ में गरीब भी शामिल हों. देश में गरीबी न हो, गरीबी से उपजे दुःख और अशिक्षा न हो, किन्तु ऐसा समय आएगा कब और लाएगा कौन? नेता गरीबों से उनकी गरीबी दूर करने के झूठे वादें करते हैं. कभी अमल में न लाने वाले लुभावने घोषणा पत्र जारी करते हैं. चुनाव जीतने के बाद गरीबों से किये हुए अपने सारे चुनावी वादे भूल अपने परिवार और रिश्तेदारों की भलाई करने में जुट जाते हैं. अपनी आने वाली सात पीढ़ियों के लिए सिंहासन और ऐशोआराम का जुगाड़ करने में जुटे राजनेता भला गरीबों का क्या भला करेंगे? गरीबों को पीएम मोदी जैसे ईमादार नेता से ही कुछ आस है. नोटबंदी से केंद्र सरकार के खजाने में इतना पैसा आ चुका है कि वो गरीबों और बेरोजगारों को कम से कम 1500 रूपये महीना तो दे ही सकती है. देश के सभी मन्दिरों में गरीबों को बेरोकटोक प्रवेश देने के अधिकार के साथ ही कर्नाटक के सुब्रमण्या मंदिर में ब्राह्मणों की जूठन पर दलित समुदाय के लेटने की 500 साल से चली आ रही घोर अमानवीय और पूरी तरह से अंधविश्वासी परम्परा को समाप्त किया जाना चाहिए.

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आलेख और प्रस्तुति= सद्गुरु श्री राजेंद्र ऋषि जी, प्रकृति पुरुष सिद्धपीठ आश्रम, ग्राम- घमहापुर, पोस्ट- कन्द्वा, जिला- वाराणसी. पिन- 221106
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