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काशी में ऐसा लगा मानो लोग प्रत्याशी को नहीं, बल्कि बड़े नेताओं को वोट दे रहे हैं

सद्गुरुजी
सद्गुरुजी
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कई दिनों से मैं अपने आश्रम के अनुयायियों और परिचितों से मतदान करने की अपील कर रहा था. मैंने भी वोट डालने का दृढ निश्चय किया हुआ था. हालाँकि पूरे चुनाव अभियान के दौरान किसी भी पार्टी के प्रत्याशी से कोई संपर्क, दर्शन, आमना-सामना या वार्तालाप नहीं हुआ, क्योंकि घर-घर जाने का अभियान किसी भी पार्टी के प्रत्याशी ने नहीं चलाया. अब थोक वोटों के सहारे और बड़े नेताओं की रैलियों व उनके रोड शो के सहारे चुनाव लड़ने का युग चल रहा है. पिछले पांच साल में हमारे गाँव में कोई विकास नहीं हुआ है. जहाँ मैं रहता हूँ, वहां पर नाली तक लोंगों ने आपसी सहयोग से घन एकत्र कर बनवाई है. वोट देने को उत्साहित करने वाला विकास का कोई मुद्दा नहीं था, किन्तु फिर भी वोट तो देना ही था. हमारा गाँव रोहनिया विधानसभा के अंतर्गत आता है, जहां पर भाजपा से सुरेंद्र नारायण सिंह, सपा-कांग्रेस से महेन्द्र पटेल, बसपा से प्रमोद सिंह खड़े हैं तो कृष्णा पटेल वाले अपना दल से उसकी राष्ट्रीय अध्यक्ष कृष्णा पटेल चुनाव मैदान में खड़ी हैं.

8 मार्च को मतदान करने का दिन आया तो तमाम व्यस्तताओं को दरकिनार कर अपने पडोसी की बाईक पर बैठ वोट डालने चल दिया. रास्ते में मैंने उनसे पूछा, “वर्मा जी.. इस बार आपका परिवार वोट किसे डाल रहा है?” वो बोले, “कमल के फूल पर वोट पड़ रहा है.” मैंने पूछा, “क्यों?” उन्होंने जबाब दिया, “अनुप्रिया पटेल बीजेपी के साथ हैं, इसलिए वोट बीजेपी को डाला जा रहा है.” मैंने अंदाजा लगाया कि पटेल समुदाय के एक बड़े हिस्से का वोट भाजपा-अपना दल गठबंधन और केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल के कारण बीजेपी को मिल रहा है. कुछ ही देर में हम मतदान स्थल पर पहुँच गए, जहां पर काफी भीड़ थी. मतदान स्थल एक इंटर कालेज था, जिसमे कई बूथ थे और हर बूथ पर काफी भीड़ थी. यहां पर कई बार पहले भी मैंने वोट दिया था, किन्तु इतनी भीड़ कभी नहीं देखी थी. जहाँ मुझे वोट डालना था, वहां पर आदमी और औरत अलग अलग लाइनों में खड़े थे. दोनों लाइनों में लगभग चालीस-पचास लोंगों की भीड़ थी.

लाइन में खड़े कुछ लोग जान पहचान वाले मिले, लेकिन ज्यादातर लोग तो अपरिचित ही थे. भारी फ़ोर्स तैनात होने की वजह से सुरक्षा व्यवस्था बहुत अच्छी थी. लाइन में खड़े मतदाता किसी प्रत्याशी की नहीं, बल्कि हाथी, साईकिल और कमल की चर्चा कर रहे थे. ज्यादातर लोंगों को तो पता ही नहीं था कि जिसे वो वोट डालने जा रहे हैं, वो प्रत्याशी कौन है और उसका नाम क्या है? वहां पर तो कोई मोदी, कोई अखिलेश और कोई मायावती का समर्थक खड़ा मिला. ऐसा लग रहा था मानों चुनाव प्रत्याशी नहीं, बल्कि मोदी, अखिलेश और मायावती लड़ रही हों. हमारे लोकतंत्र की यही तो कमी है कि लोग जिसे वोट देते हैं, उसके बारे में ठीक से जानते तक नहीं हैं और जानना भी नहीं चाहते हैं. अधिकतर लोग बड़े नेताओं के नाम पर वोट देते हैं. मेरे पीछे खड़े एक व्यक्ति ने महिलाओं वाली लाइन में खड़ी एक वृद्ध महिला से पूछा, “का दादी.. के के वोट देबू?” वो महिला बोली. “मोदी के..” वो हँसते हुए पूछे, “दादी.. मोदी यहां कहाँ खड़ा हउअन? जे खड़ा बा उनके वोट द..”

दादी चिढ़कर बोलीं, “नईखे खड़ा त उनकी पार्टी क चुनाव निशान कमल क फूल बा न.. तू ई सब काहें पूछत हउअ.. हम केहू के भी वोट देहिं तोहके का मतलब? ” बूढी दादी ने ऐसी फटकार लगाईं कि वो चुप हो गए. लाईन में खड़े कुछ पढ़े-लिखे लोग शहर दक्षिणी से सात बार विधायक रहे और दादा के नाम से लोकप्रिय भाजपा के नेता श्यामदेव राय चौधरी के संन्यास लेने की चर्चा कर रहे थे, जो शाम को महज अफवाह साबित हुई. दादा ने इस बार टिकट न मिलने के रंज से चुनाव प्रचार नहीं किया, जबकि उन्हें करना चाहिए था. भाजपा ने उन्हें बहुत कुछ दिया, फिर भी संतोष नहीं. काशी क्षेत्र में इस बार रिकार्ड 63.80 प्रतिशत मतदान हुआ है, जो पिछली बार से साढ़े छह प्रतिशत ज्यादा है. इस बार बाईक और रिक्से से वोटरों को खूब मतदान स्थल तक पहुंचाया गया. अब तो चुनाव परिणाम आने बाद ही पता चलेगा कि किस पार्टी ने कहाँ पर बाजी मारी है. चूँकि काशी में बड़े नेताओं के नाम पर भारी वोटिंग हुई है, इसलिए यह चुनाव यूपी ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर कई बड़े नेताओं का भी राजनीतिक भविष्य तय करेगा.

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आलेख और प्रस्तुति= सद्गुरु श्री राजेंद्र ऋषि जी, प्रकृति पुरुष सिद्धपीठ आश्रम, ग्राम- घमहापुर, पोस्ट- कन्द्वा, जिला- वाराणसी. पिन- 221106
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