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मेरा एक कटु अनुभव: बीएचयू के सर सुंदरलाल हॉस्पिटल में भी भेदभाव होता है

सद्गुरुजी
सद्गुरुजी
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पूरी तरह से पेशेवर रुख अपनाने वाले निजी हॉस्पिटलों में भेदभाव कम होता है, किन्तु वहां पर भी यदि आपका परिचय है तो डॉक्टर जल्दी देख लेंगे और मरीज के इलाज में होने वाले खर्च में कुछ छूट आपको मिल जायेगी. लेकिन सरकारी हॉस्पिटलों में मरीजों के साथ भेदभाव होना तो रोजमर्रा की एक आम बात है. यदि आपका वहांपर किसी से कुछ परिचय है तो जल्दी, अच्छा और कर्म खर्च में इलाज हो जाएगा, नहीं तो घण्टों लाईन में खड़े रहिये और जांच के लिए यहाँ वहाँ भागदौड़ करते रहिये. मरीज दर्द से तड़फ रहा है, हर पल मृत्यु की और बढ़ रहा है, फर्श पर या स्ट्रेचर पर पड़ा तड़फता-मरता रहे, परिचय नहीं तो कौन पूछने वाला है. वाराणसी में स्थित बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी (बीएचयू) का सर सुंदरलाल अस्पताल पूरे देशभर में प्रसिद्द है. उत्तरप्रदेश के पूर्वांचल और बिहार के कई जिलों के मरीजों के लिए चिकित्सा का यह सबसे बड़ा केंद्र है.

बीएचयू का सर सुंदरलाल हॉस्पिटल निसन्देह गरीब और असाध्य रोगों से ग्रस्त रोगियों के लिए किसी वरदान से कम नहीं है, किन्तु वहां पर भी भारी अव्यवस्था और अनियमितताएं हैं. काशी में किसी से बीएचयू के हॉस्पिटल की चर्चा कीजिये तो वो यही कहेगा कि अस्पताल अच्छा है, वहां के डॉक्टर अच्छे हैं और इलाज भी अच्छा है, लेकिन वहां पर आपका कोई परिचय होना चाहिए, नहीं तो सुबह से शाम हो जायेगी और आप दौड़ते दौड़ते परेशान हो जाएंगे. यदि आपका कोई परिचय नहीं है तो वहां पर किस तरह का भेदभाव होता है, इसका कटु अनुभव खुद मुझे भी है.

साल 2011 के नवम्बर माह में एक दिन अचानक ही मेरे पिताजी के शरीर के आधे हिस्से में लकवा मार गया. हम उन्हें लेकर एक अच्छे प्राइवेट अस्पताल में गए. उन्होंने इलाज शुरू किया, लेकिन आधी रात को जबाब दे दिया और बीएचयू ले जाने को कहा. रात को करीब पौने एक बजे हम उन्हें लेकर बीएचयू के सर सुंदरलाल हॉस्पिटल में पहुंचे. इमरजेंसी वार्ड में कोई जगह नहीं मिली. कई घंटे की भागदौड़ के बाद बड़ी मुश्किल से एक खाली स्ट्रेचर मिला. पिताजी को उसी पर लिटा दिया गया.

पिताजी को सांस लेने में दिक्कत हो रही थी. आक्सीजन लगाने वाले कर्मचारी से कहा तो वो साफ़ बोला कि डॉक्टर के कहने पर ही वो मरीज को आक्सीजन लगायेगा. रात को ढूंढने पर बड़ी मुश्किल से गप्प हांकते दो जूनियर डॉक्टर (छात्र) मिले. एक को बहुत रिक्वेस्ट कर पिताजी के पास लाया. वो पिताजी को देखते ही भुनभुनाने लगा, “चले आते हैं पता नहीं कहाँ कहाँ से.. लाश ले के बीएचयू पहुँचते हैं..”
उसकी बात सुनकर मैं स्तब्ध रह गया. आँखों में आंसू आ गए, पर मैं कुछ बोला नहीं, लेकिन उसकी बातें सुनकर और उसका उपेक्षा करने वाला हावभाव देखकर मेरे चाचाजी का खून खोल उठा. वो जूनियर डॉक्टर पर बरस पड़े, “कायदे से बात करो.. जिन्हें तुम लाश कह रहे वो अभी ज़िंदा हैं. वो सेना में अधिकारी रहे हैं और देश के लिए तीन युद्ध लड़े हैं.. उनके बारे में तुम ऐसा कह रहे हो.. मैं हॉस्पिटल के चिकित्सा अधीक्षक से तुम्हारी शिकायत करूँगा..”

जूनियर डॉक्टर को तब अपनी गलती का कुछ एहसास हुआ. इलाज शुरू हुआ. पिताजी लगभग 24 घण्टे स्ट्रेचर पर ही पड़े रहे. उसी पर उनका इलाज होता रहा और अंत में उसी पर उनका शरीर भी छूट गया. बहुत अनुरोध करने पर भी उन्हें इमरजेंसी वार्ड में कोई बर्थ नहीं मिली. इस कटु अनुभव के बाद अब तो परिवार में किसी का इलाज कराना हो तो प्राइवेट अस्पताल में जाना ही बेहतर समझते हैं. (580 शब्द)

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आलेख और प्रस्तुति= सद्गुरु श्री राजेंद्र ऋषि जी, प्रकृति पुरुष सिद्धपीठ आश्रम, ग्राम- घमहापुर, पोस्ट- कन्द्वा, जिला- वाराणसी. पिन- 221106.
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