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बेहाल हुई शिक्षा: रोता-पिटता बचपन, लुटता अभिभावक और सोती हुई सरकारें

सद्गुरुजी
सद्गुरुजी
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पांच वर्षीय मेरी बिटिया एलकेजी और यूकेजी में पढ़ते हुए पिछले दो साल में कई बार मुझसे शिकायत कर चुकी है कि पापा! स्कूल में मैडम मुझे मारती हैं. कौन मैडम मारती हैं, ये पूछने पर कभी वो मैथ वाली, कभी इंग्लिश वाली और कभी पोयम रटाने वाली मैडम का नाम लेती थी. कभी कभी तो वो स्कूल जाने से ही मना कर देती थी और कहती थी, “मैं इस स्कूल में पढ़ने नहीं जाउंगी. किसी दूसरे स्कूल में मेरा नाम लिखा दो.” हर बार मैंने स्कूल के मालिक को फोन कर शिकायत की. उन्होंने कभी उन टीचरों को डांटने की तो कभी उन्हें स्कूल से बाहर निकालने की बात कही, लेकिन समस्या पूर्णतः कभी हल नहीं हुई. दरअसल स्कूल के मालिक दोहरी नीति अपनाते हैं वो टीचर से बच्चों को दंड दिलवाएंगे और अभिभावकों से टीचर को डांटने की बात करेंगे. अधिकतर निजी स्कूल कम तनख्वाह पर अनट्रेंड टीचर रखते हैं, जिन्हें छोटे बच्चों को पढ़ाना कम मारना ही ज्यादा आता है. कई साल पहले बिहार से एक सज्जन अपने आठ साल के बेटे को लेकर मेरे पास आये थे. वो बताने लगे कि एक बोर्डिंग स्कूल में रखकर इस बच्चे को पढ़ा रहे थे, लेकिन स्कूल वाले इतना मारते थे कि वहां से बच्चे को बाहर निकालना पड़ा. मैंने पूछा कि आपने स्कूल के प्रिंसिपल या प्रबन्धक से शिकायत नहीं की? वो कहने लगे कि ‘क्या शिकायत करते. वो सब पहले ही बता दिए थे कि ‘बच्चे की हड्डी आपकी और चमड़ा हमारा.’

इसका मतलब ही था कि बच्चे की हड्डी नहीं तोड़ेंगे, लेकिन मार-मार के चमड़ा उधेड़ देंगे. मैं ये सब सुनकर अवाक रह गया. कुछ समय पहले सोनभद्र के अनपरा विद्युत परिषद बालिका विद्यालय में होमवर्क पूरा न करने पर छात्राओं की स्कर्ट उतरवाकर उन्हें पूरे स्कूल में घुमाने का मामला सामने आया था. अभी हाल ही में खतौली के कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय में पढ़ रही छात्राओं के साथ वार्डन सुरेखा तोमर द्वारा अभद्र व्यवहार, शोषण और यहां तक कि उनके कपड़े उतारकर उनकी बेइज्जती करने का मामला सामने आया है. हालाँकि दोनों ही मामले में दोषियों को तत्काल प्रभाव से बर्खास्त किया गया, लेकिन ये सब इस बात का सबूत है कि हमारे देश के स्कूलों में आज भी बच्चों का शारीरिक व मानसिक शोषण जारी है. स्कूलों में बच्चों की शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना की घटनाएं अक्सर अखबारों में छपती रहती हैं और टीवी न्यूज चैनलों पर दिखाई जाती हैं. सरकारी स्कूलों के मामले में तो त्वरित और कठोर कार्यवाही होती है, लेकिन निजी स्कूलों में होने वाले ऐसे मामलों के खिलाफ कभी भी सख्त कार्यवाही नहीं होती है, क्योंकि नेताओं और अधिकारियों के बच्चे वहीँ पढ़ते हैं. स्कूल के मालिकों से इनके घनिष्ठ सम्बन्ध भी होते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने साल 2000 में ही स्कूलों में बच्चों को शारीरिक दंड देने पर पूर्णतः पाबन्दी लगा दी थी, किन्तु इसके बावजूद भी बच्चों को बुरी तरह से मारापीटा जाता रहा.

देशभर के नामचीन स्कूलों में टीचरों से मिलने वाली शारीरिक और मानसिक यातना के कारण जब पीड़ित बच्चों द्वारा आत्महत्या करने के मामले बहुत ज्यादा बढ़ गए तब मजबूरन केंद्र सरकार को कानून में संशोधन करते हुए बच्चों की हिफाजत के लिए कड़े नियम बनाने पड़े और 15 जनवरी-2016 को पूरे देश में किशोर न्याय अधिनियम-2015 लागू कर दिया गया. किशोर न्याय अधिनियम-2015 की धारा-82 में आजादी के बाद पहली बार बच्चों को दंडित करने पर टीचरों और स्कूल प्रबंधकों को सजा देने का प्रावधान किया गया है. इसके तहत किसी भी सरकारी या निजी स्कूलों में बच्चों को मुर्गा (दोनों कान पकड़ते हुए उकड़ू बैठने को मजबूर करना) बनाने, कान पकड़कर खड़े रखने, थप्पड़ मारने अथवा छड़ी, बेंत या स्केल से पीटने जैसी सजा देने वाले शिक्षकों या प्रिंसिपल को पहली बार दोष सिद्ध होने पर दस हजार रुपए का जुर्माना लगेगा. दूसरी बार गलती दोहराने पर तीन माह की सजा और जुर्माना दोनों से दंडित किया जाएगा. इसके साथ ही जांच में सहयोग नहीं करने पर या दोषी टीचर या प्रिंसिपल को बचाने की कोशिश करने पर स्कूल के प्रबंधक को भी 3 साल तक की सजा हो सकती है और एक लाख रुपए का जुर्माना भी देना पड़ सकता है. टीचरों द्वारा दी जाने वाली सजा से अपमानित होकर बच्चों के आत्महत्या कर लेने पर सजा और भी सख्त है, जो होनी भी चाहिए.

चाइल्ड लाइन के फोन नंबर-1098 पर, संबंधित पुलिस थाने में, किशोर न्याय बोर्ड में पीड़ित पक्ष शिकायत कर सकता है. केंद्र सरकार को देश के सभी सरकारी व गैर सरकारी स्कूलों को निर्देश देना चाहिए कि किशोर न्याय अधिनियम-2015 की धारा-82 के कानून को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए तथा इसके साथ ही स्कूलों के नोटिस बोर्ड पर धारा-82 के प्रावधान भी लिखे जाने चाहिए. बच्चों और उनके अभिभावकों को इन क़ानूनी अधिकारों का ज्ञान जरूर होना चाहिए. निजी स्कूलों में फीस तथा डोनेशन लेने में मनमानी की तो बात पूछिये ही मत. जिस स्कूल का जितना बड़ा नाम है, उसकी फ़ीस और डोनेशन भी उतनी ही बड़ी है. ऐसे स्कूल न सिर्फ मनमानी फीस और डोनेशन वसूल रहे हैं, बल्कि अभिभावकों पर एक खास दूकान से जूते, पोशाक और किताबे खरीदने का भी दबाव बना रहे हैं. गुजरात सरकार ने ऐसे ही बेलगाम निजी स्कूलों पर नकेल कसते हुए एक ऐसा कानून विधानसभा में पारित किया है जिसके अनुसार प्राथमिक स्कूलों में सालाना 15 हजार, माध्यमिक स्कूलों में 25 हजार तथा उच्चतर माध्यमिक यानी हायर सेकंडरी स्कूलों में 27 हजार से ज्यादा फ़ीस नहीं वसूली जा सकेगी. इस सीमा से अधिक फीस लेने वाले स्कूलों को पहली गलती पर पांच लाख, दूसरी गलती पर दस लाख का दंड देना होगा जबकि तीसरी गलती पर उनकी मान्यता ही रद्द कर दी जाएगी.

क्या इतना अच्छा कानून पूरे देशभर के स्कूलों में नहीं लागू किया जा सकता है? केंद्र सरकार को इस दिशा में पूरा जोर लगाना चाहिए. तीन से पांच साल तक के बच्चों के लिए खोले जाने वाले प्री-स्कूल और प्राईमरी स्कूल दो साल से कम उम्र के रोते-विलखते अपनी मां को तलाशते अबोध और मासूम बच्चों का भी दाखिला ले ले रहे हैं. इस बारे कोई भी स्पष्ट दिशानिर्देश या नियम कानून हमारे देश में लागू ही नहीं है. इसी का फायदा उठाकर निजी स्कूल अपनी मर्जी से ही प्ले ग्रुप (प्री-नर्सरी), नर्सरी, एलकेजी, यूकेजी और कई स्कूल एचकेजी क्लासेस चलाकर आम जनता को अंग्रेजी माध्यम के स्कूल के नाम पर लूट रहे हैं. ये बच्चों के बचपने और मासूमियत के साथ हो रही बहुत बड़ी खिलवाड़ है और शिशुओं के मां का सानिध्य पाने और खेलने के जन्मसिद्ध अधिकार के साथ हो रही एक बड़ी नाइंसाफी भी है. कई प्री-स्कूल और प्राईमरी स्कूलों में मासूम बच्चों के साथ मारपीट और दुर्व्यवहार किया जाता है तथा उसे डराया जाता है कि रोवोगे तो बिल्ली के कमरे में, बाथरूम में या स्टोर रूम में बंद कर देंगे. अपने पास के एक आंगनवाड़ी स्कूल में छोटे शिशुओं को छड़ी से पीटते हुए मैंने देखा. केंद्र और राज्य सरकारों को इस पर कुछ एक्शन लेना चाहिए और इस बाबत सभी जरुरी दिशानिर्देश आंगनवाड़ी तथा सभी सरकारी व निजी प्राईमरी स्कूलों को देना चाहिए.

सबसे बड़ी बात ये कि जिस तरह से दुधारू पशुओं को काटने वाले अवैध बूचड़खाने यूपी सहित कई राज्यों में में बंद करवाए जा रहे हैं, ठीक उसी तरह से मासूम शिशुओं और अबोध बच्चों का बचपना और उनके अभिभावकों की जेबें काटने वाले देश के हर शहर गाँव और गली मोहल्ले में कुकुरमुत्ते की तरह उग आये बिना मान्यता प्राप्त सभी तरह के अवैध स्कूल भी बंद होने चाहिए. आंगनवाड़ी और प्राईमरी स्कूलों में दिए जाने वाले दोपहर के भोजन यानि मिड-डे-मील में हेडमास्टर और ग्रामप्रधानों की मिलीभगत से भारी घोटाला हो रहा है. वहां का भोजन कई इतना घटिया होता है कि अक्सर बच्चे बीमार हो जाते हैं. इस तरह की खबरे आये दिन मीडिया में प्रकाशित होती रहती हैं. साल 1995 में शुरू हुई मिड डे मील योजना को बंदकर इस योजना के नाम पर मासिक आधार पर बच्चों को कच्चा अनाज देना चाहिए,जैसा कि कुछ राज्य कर भी रहे हैं. पूरे देशभर में स्कूली बच्चों का पाठ्यक्रम भी एक होना चाहिए, ताकि बच्चों में अपने स्कूल के प्रति हीनभावना न पनपे और तबादला होने पर सरकारी अथवा गैर सरकारी सेवाओं में सेवारत लोंगों के बच्चों को पढ़ाई में किसी भी तरह की कोई दिक्कत न आये. उम्मीद है कि आने वाले वक्त में केंद्र और राज्य सरकारें जगेंगी, देशभर के स्कूलों में बच्चों को पिटे जाने पर पूर्णतः रोक लगेगी और निजी स्कूलों में फ़ीस और डोनेशन के नाम पर हो रही लूटपाट भी पूरी तरह से थमेगी.

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आलेख और प्रस्तुति= सद्गुरु श्री राजेंद्र ऋषि जी, प्रकृति पुरुष सिद्धपीठ आश्रम, ग्राम- घमहापुर, पोस्ट- कन्द्वा, जिला- वाराणसी. पिन- 221106
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