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संत कबीर साहब: उड़ जाएगा हंस अकेला, जग दर्शन का मेला … -जंक्शन फोरम

सद्गुरुजी
सद्गुरुजी
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उड़ जाएगा हंस अकेला, जग दर्शन का मेला …

संसार का मेला जो आँखों से दिखता है, उसे एक दिन यहीं छोड़कर जीव अकेले ही एक दिन इस संसार से चल देगा, संत कबीर साहब ने ससार को ‘दर्शन का मेला’ कहा है. दर्शन का अर्थ संसार को देखना भर ही नहीं, बल्कि उसके नित्य-अनित्य होने व उसमे स्थित सत्य-असत्य पर विचार करना भी है. भारतीय विचार दर्शन के अनुसार तो परम सत्ता के साथ साक्षात्कार करने का ही दूसरा नाम दर्शन हैं. पाश्चात्य दार्शनिकों के दर्शनशास्त्र यानि फिलोसोफी के अनुसार प्रकृति के सिद्धांतों और उनके कारणों की विवेचना करना ही दर्शन है. वो लोग अंतरिक्ष, समय और पदार्थ में सत्य की खोज करते रहे, जबकि भारतीय दर्शन अंतरिक्ष में व्याप्त सूक्ष्म लोक, समय से परे स्थित अकाल पुरुष रूपी परम सत्य और पदार्थ के चौबीस स्थूल व् सूक्ष्म तत्वों से परे पुरुष् तत्व यानि आत्मा-परमात्मा तक का साक्षात्कार कर लिए. जाहिर सी बात है कि भारतीय दर्शन सत्य की खोज में सदैव से ही सबसे आगे रहा है. इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि भारतीय दर्शन महज चिंतन पर ही नहीं, बल्कि ऋषि-मुनियों के शारीरिक-मानसिक-आध्यात्मिक स्वाध्याय, तप और समाधि के स्वानुभव पर आधारित है. उपयुक्त भजन के भावार्थ का संक्षिप्त विवरण देने के साथ ही मशहूर शास्त्रीय गायक पंडित कुमार गंधर्व के जीवन के संघर्षमय और आध्यात्मिक रूप से रूपांतरित होने वाले पहलुओं की भी चर्चा करूंगा, जिससे इस आध्यात्मिक विषयवस्तु को कभी आप भूल नहीं पायेंगे और अपने निजी जीवन के संकटमय व संघर्षमय क्षणों में एक बहुत बड़ी आत्मिक प्रेरणा भी महसूस करेंगे.

जइसे पात गिरे तरुवर के, मिलना बहुत दुहेला
ना जानू किधर गिरेगा, लग्या पवन का रेला
उड़ जाएगा हंस अकेला, जग दर्शन का मेला …

मित्रों, जैसे पेड़ से गिरे पत्ते को हवा कहाँ ले जाएंगी, इस बारे में किसी को भी कुछ पता नहीं, ठीक वैसे ही मृत्यु के बाद संसार में हम कहाँ जन्म लेंगे, उस बारे में भी किसी को कुछ पता नहीं. संस्कार रूपी हवा यानी अच्छे-बुरे कर्म जीव को कहाँ ले जाके फिर से जन्म देंगे, इस बारे में अंदाजा तक नहीं लगाया जा सकता है. संत इसलिए हमें समझाते हैं कि पूरे संसार को सुन्दर, शांत और सुखी बनाओ, किसी से भी घृणा मत करो, क्योंकि अगला जन्म तुम्हे पता नहीं कहाँ लेना पड़े. उसपर तुम्हारा कोई नियंत्रण नहीं है. बहुत से संतों से अपने इस जीवन में मैं मिला. कुछ संत जो साधना की उच्च स्थिति में थे और आध्यात्मिक रूप से बहुत पहुंचे हुए थे, उन्होंने चर्चा के दौरान मुझे बताया कि वो अपने पिछले जन्म में जिस जाति व समुदाय विशेष से घृणा करते थे, ईश्वर और कुदरत ने अगले जन्म में उन्ही के बीच ले जा के उन्हें पटक दिया. ऐसा उन्होंने ये सबक सिखाने के लिए ही किया होगा कि सब एक ही ईश्वर के पुत्र हैं, अतः किसी से घृणा मत करो. पुनर्जन्म को अधिकतर संतों ने स्वीकार किया है. संत कबीर के इस भजन को सुप्रसिद्ध शास्त्रीय गायक पंडित कुमार गंधर्व की आवाज में सुनना सहज भाव समाधि प्रदान करने वाला बेहद आनंददायक आध्यात्मिक अनुभव है. भारत सरकार द्वारा कला के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित कुमार गंधर्व का असली नाम ‘शिवपुत्र सिद्धरामैया कोमकाली’ था. उनका जन्म कर्नाटक के धारवाड़ में 8 अप्रॅल, 1924 और निधन 68 वर्ष की उम्र में 12 जनवरी, 1992 को मध्यप्रदेश के देवास में हुआ था.

जब होवे उमर पूरी, जब छूटेगा हुकुम हुजूरी
जम के दूत, बड़े मजबूत, जम से पडा झमेला
उड़ जाएगा हंस अकेला, जग दर्शन का मेला …

मात्र दस वर्ष की आयु में ही उन्होंने शास्त्रीय संगीत समारोहों में जाकर अपने गायन की ऐसी धूम मचाई कि उनका नाम ‘कुमार गंधर्व’ हो गया. मेरे विचार से कुमार गंधर्व जी ने संत कबीर के भजनों को जिस सहज भाव से उसमे पूर्णतः डूबकर या कहिये कि समाधि लगाकर गाया, वैसा शायद ही कोई दूसरा गा सका और भविष्य में कोई गा सकेगा. यह भी एक आध्यात्मिक करिश्मा ही है कि टी.बी रोग से ग्रस्त होने के बाद वो मालवा की समशीतोष्ण जलवायु में स्वास्थ लाभ करने के लिए साल 1948 में इन्दौर गये. टी .बी उन दिनों एक असाध्य और लाईलाज रोग था. कुमार गंधर्व जी की पहली पत्नी भानुमती एक जानी मानी गायिका थीं, लेकिन वक्त की जरूरत और नजाकत को देखते हुए देवास के एक स्कूल में पढ़ाकर न सिर्फ अपने पति का इलाज करा रही थीं, बल्कि घर भी चला रही थीं. देवास शहर के बाहर स्थित जिस घर में कुमार गंधर्व जी बिस्तर पर पड़े पड़े स्वास्थ लाभ कर रहे थे, उसके पास ही एक बाजार लगता था. बाजार में आने वाली महिलाएं मालवी लोक गीत गातीं थीं. ग्रामवासियों के लोकगीतों के स्वरों में और लोक धुनों में संत कबीर की वाणी गूंजती थी. मालवा की मिट्टी से आती संत कबीर के आध्यात्मिक संगीत की सुगंध कुमार गंधर्व को स्वस्थ और आकर्षित करती चली गई. कुमार गंधर्व जब पूर्णतः स्वस्थ हो गए और फिर से गाना शुरू किया, तब सबसे पहले उन्होंने यही कहा “अब मुझे गाना आ गया.” संत कबीर सांसारिक जीवन को माया और ईश्वर की हुकुम हुजूरी मानते हैं, जो आजीवन चलती रहती है.

दास कबीर हरख गुण गावे, बाहर को पार न पावे
गुरु की करनी गुरु जायेगा, चेले की करनी चेला
उड़ जाएगा हंस अकेला, जग दर्शन का मेला …

संसार में आवागमन यानि जीवन-मरण के कष्ट को ही संत यमदूत की यातना या उससे पड़ा झमेला मानते हैं. संत कबीर साहब ने इस भजन में समझाने की कोशिश की है कि संसार में बाहर की ओर भागकर आप आवागमन के कष्ट से छुटकारा नहीं पा सकते हैं. उसके लिए आपको प्रसन्नचित्त भाव से आंतरिक साधना करनी पड़ेगी. संसार से राग यानि लगाव बुरा है तो वैराग्य यानि घृणा भी उतनी ही बुरी है. ये दोनों ही सांसारिक बंधन के मूल कारण हैं, इसलिए इन दोनों ही तरह के रागों यानि राग-वैराग से परे बीतराग भाव में मनुष्य की सदैव स्थित रहना चाहिए, जो साधना की स्थितप्रज्ञ यानि आत्मा में रमे रहने की उच्च अवस्था में जीतेजी ही मोक्ष का अनुभव प्रदान कर देती हैं. गुरु और चेला यानी ज्ञानी और अज्ञानी दोनों ही अपने अपने अच्छे बुरे कर्मों के साथ संसार से विदा होंगे और उसी आधार पर आगे उनकी सद्गति भी होगी. अंत में पंडित कुमार गंधर्व की कुछ चर्चा और करूंगा. साल 1952 में मालवा के अन्यतम गायक कुमार गंधर्व का एक तरह से पुनर्जन्म हुआ. इसे सही मायने में तो एक आध्यात्मिक जागरण कहना चाहिए. सन 1961 में कुमार गंधर्व की पहली पत्नी भानुमती का निधन हुआ. कुछ समय बाद उन्होंने अपने नये घर ‘भानुकुल’ में वसुंधरा जी से दूसरा विवाह किया. भानुमती से उत्पन्न हुआ पुत्र मुकुल गंधर्व और वसुंधरा से उत्पन्न हुई पुत्री कलापिनी, दोनों ही शास्त्रीय संगीत के लब्धप्रतिष्ठ गायक गायिका हैं. पंडित कुमार गंधर्व का रोगमय व संघर्षमय जीवन आध्यात्म से प्रेरित होकर उस समय के टी.बी जैसे जानलेवा व असाध्य कहे जाने वाले रोग से लड़कर न सिर्फ पूर्णतः स्वस्थ हुआ, बल्कि दिव्य रूप से रूपांतरित कर उन्हें एक तरह से पुनर्जन्म दिया.

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आलेख और प्रस्तुति= सद्गुरु श्री राजेंद्र ऋषि जी, प्रकृति पुरुष सिद्धपीठ आश्रम, ग्राम- घमहापुर, पोस्ट- कन्द्वा, जिला- वाराणसी. पिन- 221106.
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