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भारतीय समाज के बदलते हुए परिवेश में अधिकतर लोंगो द्वारा आधुनिक जीवनशैली अपनाने के कारण यौन स्वतंत्रता भले ही बढ़ रही हो, किन्तु अब भी अधिकतर भारतीयों के लिए प्रेम और सेक्स एक वर्जित, छिपाऊ और निंदनीय शब्द है. इसे लेकर भारतीय समाज दोहरी मानसिकता अपनाता रहा है. जैसे एक तरफ तो उसे आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व रचित वात्स्यायन ऋषि की लोकप्रिय और अमर कृति ‘कामसूत्र’ पर सैद्धांतिक रूप से गर्व हैं, वहीँ दूसरी तरफ व्यावहारिक रूप में एक-दूसरे से प्रेम करने वाले युवक-युवतियों के मिलने जुलने, वेलेंटाइन डे यानि ‘प्रेम दिवस’ मनाने और कानूनी रूप से मान्यता प्राप्त “लिव इन रिलेशनशिप” जैसे संबंधों पर घोर आपत्ति भी है. इस तरह के विरोध के पीछे तर्क यह दिया जाता है कि भारतीय समाज विवाह के बंधनों में बंधकर मर्यादित रीति से कायम किये जाने वाले यौन-संबंधों को ही उचित समझता है. विवाह-पूर्व होने वाली यौन-स्वच्छंदता को भारतीय समाज स्वीकार नहीं करता है. अनेक तरह के गुप्तरोग और एड्स जैसी भयंकर बीमारियों को यौन-स्वच्छंदता की ही देन समझता है. यह बात समाज के हित और मर्यादा की दृष्टि से भले ही ठीक लगती हो, लेकिन यह भी एक अकाट्य सत्य है कि यौन-स्वच्छंदता भारतीय समाज में आज से हजारों वर्ष पूर्व भी थी. मनुस्मृति के एक श्लोग पर गौर कीजिये.
”इच्छायाsन्योन्यसंयोग: कन्यायाश्च वरस्य च
गान्धर्वस्य तु विज्ञेयो मैथुन्य: कामसंभव:।” (मनु 3.32)
अर्थात कन्या और वर कामुकता के वशीभूत होकर विवाह से पूर्व या बिना विवाह किये ही एक दूसरे की इच्छा और सहमति से आपस में यौन-संबंध स्थापित करते हैं तो ऐसे स्वेच्छापूर्वक स्थापित किये किये गए यौन-संबंध को गान्धर्व विवाह कहा जाता है. मनुस्मृति का रचना काल ई.पू. एक हज़ार वर्ष माना जाता है. इसका अर्थ तो यह हुआ कि आज से तीन हजार वर्ष पूर्व भारतीय समाज में यौन-स्वच्छंदता थी. इसके प्रमाण में बहुत से शास्त्रों में वर्णित कई कथाएं भी हैं, किन्तु उसकी चर्चा न कर वेद और महाभारत की चर्चा करूंगा, जो कि ज्यादा प्रामाणिक हैं. स्त्री-पुरूष की मित्रता सनातन काल में बुरी नहीं समझी जाती थी. पुरुषों से मित्रता करने और वर चुनने के मामले में नारी को पूरी स्वतंत्रता हासिल थी. महाभारत के वनपर्व में सावित्री और सत्यवान की कथा है, जिसके अनुसार मद्रदेश के राजा अश्वपति की पुत्री सावित्री बहुत सुन्दर और विदुषी युवती थी, उसने अपने लिए स्वंय अपना वर खोजा. उसे निर्वासित और वनवासी राजा द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान् से प्रेम हुआ. माता-पिता के लाख मना करने पर भी उसने सिर्फ एक वर्ष की शेष बची आयु वाले सत्यवान से विवाह किया. किन्तु सावित्री के पातिव्रतधर्म से प्रसन्न होकर यम ने एक-एक करके वररूप में सावित्री के अन्धे सास-ससुर को आँखें दीं, खोया हुआ राज्य दिया, उसे सौ पुत्र और उसके मृत पति को चार सौ वर्ष की नई आयु प्रदान की.
आ नो अग्ने सुमतिं संभलो गमेदिमां कुमारीं सहनो मगेन्
जृष्टावरेषु समनेषु वल्गुरोयां पत्या सौभगत्वमस्यै। (अथर्ववेद 2.36)
वैदिक युग में नारी की स्वतंत्रता का अंदाजा अथर्ववेद के इस मंत्र से लगाया जा सकता है. इस मन्त्र का भावार्थ यह है कि उस काल में माता-पिता अपनी पुत्री को पूरी आजादी देते थे कि वो अपनी मर्जी से अपने प्रेमी का चयन करे. इस मामले में न केवल उसे स्वतंत्र छोड़ देते थे, बल्कि दोनों के बीच प्रेम-प्रसंग को आगे बढ़ाने में वो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से पूरी मदद भी करते थे. उस समय मनपसंद जीवनसाथी का चयन करने के लिए कन्या और वर दोनों को ही स्वंयवर रचाने की अनुमति थी. युवक-युवतियों को अपने प्रेमी या भावी पति के चयन की स्वतंत्रता गुप्त काल यानि 467 ई तक हासिल थी. ‘कौमुदी महोत्सव’ जिसे ‘मदनोत्सव’ भी कहा जाता था, उसका आयोजन मनोरंजन के साथ साथ युवक-युवतियों को एक दूसरे का परिचय प्राप्त करने और अपने भावी जीवन साथी के रूप में किसी को चुनने का अवसर भी प्रदान करता था. शास्त्र इसका समर्थन करते हैं. ”सकामाया: सकामेन निर्मन्त्र: श्रेष्ठ उच्यते।” (म.भा. 4.94.60) महाभारत में स्पष्ट रूप से लिखा हुआ है कि जो स्त्री-पुरुष एक दूसरे से गहरा प्रेम करते हैं, भले ही उनका विवाह न हुआ हो, किन्तु ऐसे संबंध को श्रेष्ठ कहा जाना चाहिए. यह श्लोक इस बात का प्रमाण है कि सनातन काल में स्त्री-पुरुष के प्रेम संबंध को गलत नहीं माना जाता था. प्रेम करने और अपने लिए योग्य वर तलाशने की स्वतंत्रता युवक और युवती दोनों को ही थी.
महाभारत काल से पहले तो ये स्वतंत्रता और भी ज्यादा थी. पांच पति रखने वाली द्रोपदी की कथा सुनाने वाले महाभारत में ही वर्णित है कि ”अनावृता: किल् पुरा स्त्रिय: आसन वरानने कामाचार: विहारिण्य: स्वतंत्राश्चारूहासिनि॥ (1.128) इसका अर्थ यह है कि अति प्राचीन काल में स्त्रियां इतनी स्वतंत्र तथा स्वच्छंद थीं कि वे किसी भी पुरूष के साथ यौन-सम्बन्ध स्थापित कर सकती थीं. उस समय पुरुषों के समान ही उन्हें इस बात की स्वतंत्रता हासिल थी कि वो जिससे चाहे प्रेम करे, यौन-संबंध स्थापित करे और विवाह करे. स्त्री प्रधान या मातृ सत्ता प्रधान समाज को ख़त्म करने के लिए और पुरुष प्रधान या पितृ सत्ता प्रधान समाज की स्थापना करने के लिए ही विवाह रूपी संस्था का जन्म हुआ. उस समय की आजाद स्त्री जाति ने एक समर्थ पुरुष की छत्रछाया तले ज्यादा सुरक्षित भविष्य की उम्मीद में और गुप्त रोगों से बचने के लिए विवाह रूपी बंधन को मन या बेमन से अपना लिया. वजहें जो भी हों, लेकिन कालान्तर में अधिकतर स्त्रियों को इस मार्ग पर चलते हुए कई-कई सौतें, सति-प्रथा, दहेज प्रथा, शोषण, घरेलू-हिंसा, ससुराल वालों के अत्याचार, तलाक और मुकदमें यही सब ज्यादा मिले. आज जब स्त्री स्वतंत्रता की हम बात करते हैं तो कहते हैं कि आज तो नारी पहले से ज्यादा स्वतंत्र हैं. किन्तु पुराने युग पर जब आप खोजबीन करंगे तो यह बात आपको बहुत हास्यास्पद लगेगी.
कार्य क्षेत्र से जुडी आजादी की बात करें तो नारी अब लगभग हर क्षेत्र में, चाहे वो नौकरी हो या व्यापार पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कार्य कर रही है. आज उसे पुरुष के समान अधिकार मिले हुए हैं. कुछ स्त्रियों को यौनिक स्वतंत्रता भी प्राप्त है, किन्तु अधिकतर स्त्रियों को यौनिक स्वतंत्रता के नाम पर जो भी मिल जाए उसी से संतुष्ट रहना पड़ता है. यौनिक स्वच्छंदता यानी किसी से भी यौन-संबंध बनाने को अधिकतर भारतीयों की तरह मैं भी उचित नहीं समझता हूँ, किन्तु शादीशुदा महिलाओं को पति के साथ यौन सुख पाने का हक़ तो है ही. लेकिन इस बारे में हुए अध्ययन यही बताते हैं कि अधिकतर भारतीय महिलाओं को चरमसुख का न तो ज्ञान है न ही अनुभव. वो पति के स्खलन को ही अपनी संतुष्टि मान लेती हैं. स्खलित होना ही पुरुष का आनंद है और प्रथम आघात में भी वो स्खलित हो सकता है, किन्तु स्त्री पुरष के अंतिम आघात से भी चरमसुख पा जाए, यह निश्चित नहीं है. हमारे देश में अधिकतर स्त्रियों की सेक्स के प्रति रूचि कम होते चले जाने की सबसे बड़ी वजह यही है. स्त्रियों की पूर्ण स्वतंत्रता फ़िल्मी दुनिया के ग्लैमर में, कम कपडे पहनने में, पुरुष के साथ डांस पार्टियों में नाचने-गाने या फिर सिगरेट और दारु पीने में भी नहीं है, क्योंकि ये सब भी उसके शोषण के कारण बन सकते हैं. स्त्री को पूर्ण स्वतंत्रता पाने के लिए अपने घर में और अपने मन में ही उस तरह का एक माहौल बनाना होगा.
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आलेख और प्रस्तुति= सद्गुरु श्री राजेंद्र ऋषि जी, प्रकृति पुरुष सिद्धपीठ आश्रम, ग्राम- घमहापुर, पोस्ट- कन्द्वा, जिला- वाराणसी. पिन- 221106
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