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नक्सली व कश्मीर समस्या: जवानों को कार्रवाई के लिए समुचित पावर दो- राजनीति

सद्गुरुजी
सद्गुरुजी
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देश के 13 राज्यों के 100 जिलों में नक्सली समस्या हो या फिर कश्मीर समस्या, ये दोनों ही समस्याएं कई दशकों से देश की नाक में न सिर्फ दम किये हुए हैं, बल्कि हमारे हजारों सुरक्षा बलों और सैनिकों की शहादत की सबसे बड़ी वजह बन चुके हैं. इतने जवान तो हमने किसी युद्ध में भी नहीं खोये हैं, जितने कि नक्सली समस्या और कश्मीर समस्या हल करने में खो दिए हैं. सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि हजारों सैनिकों के सर्वोच्च बलिदान देने के वावजूद भी आखिर नक्सली समस्या और कश्मीर समस्या हल क्यों नहीं हुई? इसी अनुत्तरित सवाल का जबाब पाने के लिए मीडिया पर होने वाली चर्चा में राजनीतिक पार्टियों और राजनेताओं से सवाल किये जाते हैं, लेकिन उनके जबाब सुनकर अपना माथा नोंच लेने या फिर टीवी बंद कर देने का आपका दिल करेगा. कल शाम को एक न्यूज चैनल पर फारुख अब्दुल्ला के एक साम्प्रदायिक बयान पर चर्चा चल रही थी. चर्चा के दौरान कांग्रेस और बीजेपी दोनों के प्रवक्ता एक दूसरे को कश्मीर समस्या का जिम्मेदार मानने लगे. राजीव त्यागी जवानों की हो रही शहादत का जिम्मेदार मोदी को मानते हुए उन्हें चूड़ी भेजने की बात कहने लगे और जबाब में डॉक्टर संवित पात्रा राहुल गांधी को घाघरा चोली भेजने की बात करने लगे. नक्सली समस्या और कश्मीर समंस्या हल करने का शायद अब उनके पास यही एक समाधान शेष बचा है?

पिछले सोमवार को छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले के चिंतागुफा के दोरनापाल के इलाके में नक्सली हमले में सीआरपीएफ के 26 जवान शहीद हो गए थे और उसके कुछ ही रोज बाद गुरुवार को उत्तरी कश्मीर के कुपवाड़ा जिले में आतंकियों ने एक सैन्य शिविर पर किये गए हमले में एक कैप्टन समेत तीन सैन्यकर्मी शहीद और पांच सैनिक घायल हो गए थे. जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री व नेशनल कांफ्रेंस के चेयरमैन फारूक अब्दुल्ला ने इन्ही हमलों पर पर​ विवादित बयान देते हुए कहा कि मुस्लिमों को बदनाम करने के लिए और उनके खिलाफ नफरत फैलाने के लिए सुकमा हमले से ज्यादा कुपवाड़ा हमले की चर्चा हो रही है. श्रीनगर में हुए लोकसभा उपचुनाव के दौरान फारूक अब्दुल्ला ने कहा था कि कश्मीर में सैनिकों पर पत्थरबाजी करने वाले युवक अपने देश के लिए लड़ रहे हैं और यही हमें समझने की जरूरत है. इसका सीधा सा अर्थ तो यह हुआ कि उनका देश हिन्दुस्तान नहीं, बल्कि कश्मीर है और वे कश्मीर की आजादी के लिए लड़ रहे हैं. फारुख अब्दुल्ला बड़ी चालाकी से उन्हें अपना खुला समर्थन दे रहे हैं. उन्हें इस तरह का राष्ट्रद्रोही समर्थन देकर ही वो मौजूदा ‘उपद्रव’ के दौर में महज 3.5 प्रतिशत वोट पाकर संसद का सदस्य बन चुके हैं. वो पांच बार जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री रहे चुके हैं और उसी अवधि के दौरान राज्य में आतंकवाद में बहुत ज्यादा बढ़ोतरी भी हुई. ये एक कटु सत्य है.

साल 1987 में जम्मू-कश्मीर में हुए चुनाव में नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस गठबंधन पर धोखाधड़ी करके चुनाव जीतने के आरोप भी लगे थे. इसके बाद ही पाकिस्तान से प्रशिक्षित आतंकवादियों के भारत में घुसपैठ करने जो सिलसिला शुरू हुआ, वो आज तक थमा नहीं है. सन 1987 से 1990 के बीच कश्मीर में उपद्रव, हिंसा और अशांति उसी चरमशिखर पर पहुँच गया था, जिस चरमशिखर पर वो आज है. महबूबा मुफ़्ती राष्ट्रवादी पार्टी भाजपा से हाथ मिलाकर आज जम्मू-कश्मीर पर राज कर रही हैं, लेकिन उनके शासनकाल में कश्मीर समस्या हल होने की बजाय दिनोंदिन और बिगड़ती ही जा रही है. इसका कारण यह है कि पीडीपी कश्मीरी ‘तुष्टीकरण’ की राजनीति कर रही है और उसका रवैया अलगाववादियों के प्रति बेहद नरम है. सुरक्षा बल अपनी जान पर खेलकर पत्थरबाजों को गिरफ्तार करते हैं और पीडीपी व नैशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उन्हें छोड़ने के लिए राजनीतिक दबाव बनाते हैं. पिछले साल मारे गए आतंकी बुरहान बानी के प्रति मौजूदा मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती कई बार अपनी सहानुभूति जता चुकी हैं. उनपर साल 2016 में कश्मीर के सबसे बड़े अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी के पोते अनीस-उल-इस्लाम को जम्मू-कश्मीर में सरकारी नौकरी दिलाने के गंभीर आरोप भी लगे थे. अब आप सोचिये कि आखिर महबूबा मुफ़्ती और फारुक अब्दुल्ला जैसे लोग चाहते क्या हैं?

इसका सही उत्तर यही है कि ये चालाक लोग सत्ता सुख भोगने के लिए भारत के साथ होने का दिखावा तो करते हैं, लेकिन प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से अलगाववादियों को अपना पूरा सहयोग और समर्थन भी देते हैं. अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी ने तो साफ कहा है कि भारत सरकार यदि कश्मीर में सोने की सड़क बनवा दे तो भी हम आजादी की मांग करना नहीं छोड़ेंगे. इनकी विचारधारा स्पष्ट हो चुकी है कि ये क्या चाहते हैं, तो फिर भारत सरकार और भाजपा के नेता इस बात को क्यों नहीं समझ पा रहे हैं? मुझे तो लगता है कि जैसे पंजाब में बीजेपी अकाली दल के साथ मिलकर तथा सत्ता में भागीदारी करके शांति और खुशहाली लाई थी, ठीक वैसा ही प्रयोग वो कश्मीर में भी पीडीपी के साथ मिलकर करना चाहती थी, लेकिन इसमें वो बुरी तरह से नाकाम रही, क्योंकि पीडीपी का रवैया देश के प्रति वफादारी वाला और सुरक्षा बलों का साथ देने वाला बिलकुल भी नहीं है. बेशक भाजपा कश्मीर में नरमपंथी अलगाववादियों से हाथ मिलाकर और जनता द्वारा चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार बहाल कर दुनिया को एक अच्छा सन्देश देना चाहती थी कि जम्मू-कश्मीर में हमने लोकतंत्र कायम रखा हुआ है. लेकिन उसके अच्छे मकसद को नाकाम करने में आतंकियों, अलगाववादियों के साथ साथ पीडीपी व नैशनल कॉन्फ्रेंस के नेता भी पूरे जीजान से जुटे हुए हैं. इन सबके मन में राष्ट्रवादी पार्टी बीजेपी के लिए जो नफरत है, वो किसी से छुपी हुई नहीं है.

इस मुद्दे पर कश्मीरी जनता का भी इन्हे भरपूर समर्थन मिलता है. यही वजह है कि बीजेपी कश्मीर में कहीं से भी चुनाव लड़े, उससे नफरत इतनी है कि मतदान का प्रतिशत बढ़ जाता है. चुनाव का बहिष्कार करने वाले भी वोट डालने पहुँच जाते हैं. कश्मीर के मौजूदा खराब हालात को देखते हुए अब तो सारे देशवासियों को यही लग रहा है कि भाजपा जम्मू कश्मीर में सरकार चलाने के लिए देश के सम्मान से समझौता कर रही है. देश की जनता अब अच्छी तरह से समझ चुकी है कि महबूबा मुफ़्ती और फारुक अब्दुल्ला जैसे कश्मीरी नेता अलगाववादियों, पत्थरबाजों और आतंकियों के लिए अब एक ढाल बनते जा रहे हैं, क्योंकि उनकी राजनीति ही उसी बुनियाद पर टिकी है. अब सवाल ये उठ रहा है कि राष्ट्रवादी मोदी सरकार उन गद्दारों के प्रति क्यों नरमी दिखा रही है, जो हमारे वीर जवानों पर पत्थर फेंक रहे हैं और उन्हें अपमानित कर रहे हैं? सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर हम कब तक आतंकियों के हाथों अपने वीर जवानों को शहीद होते चुपचाप देखते रहेंगे? मोदी सरकार जब ये बात अच्छी तरह से समझ चुकी है कि कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लगाकर ही अब अलगाववादियों, पत्थरबाजों और पाकिस्तान से निरंतर भेजे जा रहे प्रशिक्षित आतंकवादियों से पूरी कड़ाई से निपट सकती है तो फिर देरी क्यों कर रही है और हालत को दिन पर दिन बद से बदतर क्यों करती चली जा रही है? ये अच्छी बात है कि माननीय सुप्रीम कोर्ट भी अब इस सच्चाई को महसूस करते हुए कह रही है कि पहले घाटी में पत्थरबाजी, हिंसा और प्रदर्शन बंद करो फिर पत्थरबाजों पर पैलेट गन का इस्तेमाल रोकने का आदेश देंगे.

माननीय सुप्रीम कोर्ट यह चाहती है कि केंद्र सरकार कश्मीर के लोगों और जनप्रतिनिधियों से बातचीत कर कश्मीर समस्या का कोई ठोस राजनीतिक हल ढूंढे, केंद्र सरकार इसके लिए तैयार भी है, लेकिन वो कोर्ट को ये स्पष्ट रूप से बता चुकी है कि वो अलगावादियों और पाकिस्तान से कश्मीर के मसले पर कोई बातचीत नहीं करेगी. जबकि अलगाववादी, जम्मू-कश्मीर बार एसोसिएशन, पीडीपी व नैशनल कॉन्फ्रेंस के नेता चाहते हैं कि बातचीत में सभी शरीक हों. फारुख अब्दुल्ला तो पाकिस्तान को कश्मीर समस्या का एक अहम भागीदार मानते हैं. वो यहाँ तक कह चुके हैं कि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर यानि पीओके हिन्दुस्तान के बाप का नहीं है, जो वो ले लेगा. पाकिस्तानपरस्त अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी बातचीत के लिए दो शर्तें राखी हुई हैं, एक तो जेलों में बंद सभी आतंकियों की रिहाई करो और दूसरे 1947 के विलय समझौत को लागू करो. 20 अक्टूबर, 1947 को जब पाकिस्तान समर्थक आज़ाद कश्मीर सेना ने जम्मू-कश्मीर राज्य पर आक्रमण कर दिया था, तब रियासत के महाराज हरीसिंह ने राज्य को भारत में मिलाने का फैसला लिया था. उस विलय पत्र पर 26 अक्टूबर, 1947 को पण्डित जवाहरलाल नेहरू और महाराज हरीसिंह ने हस्ताक्षर किये थे, जिसके अनुसार- “राज्य केवल तीन विषयों- रक्षा, विदेशी मामले और संचार पर अपना अधिकार नहीं रखेगा, बाकी सभी पर उसका नियंत्रण होगा.”

भारत में कश्मीर के विलय के कुछ ही समय बाद नेहरू कश्मीर को विवादित क्षेत्र बनाकर ये मसला संयुक्त राष्ट्र तक ले जाने की भारी भूल भी कर गए, जिसका खामियाजा हम आज भी भुगत रहे हैं. यही नहीं बल्कि उन्होंने भारतीय संविधान में ‘अनुच्छेद 370’ जोड़कर यह भी सुनिश्चित कर दिया कि इस राज्य के लोग अपने स्वयं के संविधान द्वारा राज्य पर भारतीय संघ के अधिकार क्षेत्र को तय करेंगे. जब तक राज्य विधान सभा द्वारा भारत सरकार के किसी भी फैसले पर मुहर नहीं लगाई जायेगी, तब तक उसे जम्मू-कश्मीर में लागू नहीं किया जा सकता है. इसका अर्थ यह हुआ कि भारत सरकार के किसी भी फैसले को राज्य सरकार चुनौती दे सकती है. हालांकि राहत वाली सबसे बड़ी बात यही है कि संवैधानिक संकटकाल की स्थिति में भारत सरकार को राष्ट्रपति शासन लगाने का पूरा अधिकार है और भारतीय संविधान के ‘अनुच्छेद 370’ में यह भी स्पष्ट रूप से बताया गया कि जम्मू-कश्मीर से सम्बंधित राज्य उपबंध केवल अस्थायी है. इसका अर्थ यह है कि जम्मू-कश्मीर को ‘अनुच्छेद 370’ के द्वारा जो विशेष दर्जा दिया गया है, उसे भारतीय संसद दो तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पारित कर समाप्त कर सकती है, आज जिसकी सख्त जरुरत भी है. अब जबकि भारत कश्मीर को अपना एक अभिन्न अंग बना चुका है, इसलिए अब पीछे लौटना या फिर इस मुद्दे पर कोई बातचीत करना संभव ही नहीं है.

आतंकवाद और नक्सलवाद से जूझ रहे भारत के लिए ये दोनों ही आज सबसे बड़े संकट बन चुके हैं. ये दोनों ही समस्याएं दिनोंदिन जिस कदर बढ़ती जा रही हैं, उससे तो यही लगता है कि इन समस्याओं से निपटने के लिए केंद्र सरकार के पास कोई ठोस नीति ही नहीं है. पूरे विश्वभर में आज आतंक और युद्ध के बादल मंडरा रहे हैं, लेकिन मोदी सरकार के पास इस समय एक पूर्णकालिक रक्षामंत्री तक नहीं है. जबकि देश को इस समय किसी सुयोग्य और आक्रामक सेनाध्यक्ष जैसे रक्षामंत्री की जरुरत है, जो पाकिस्तान पर निरंतर करारे हमले कर उसे कमजोर करता रहे, क्योंकि भारत में आतंकवाद और नक्सलवाद दोनों को ही बढ़ावा देने में उसका हाथ है. जबतक पाकिस्तान कमजोर नहीं होगा, तबतक उसके बल पर भारत में फलने-फूलने वाले आतंकी समूह भी कभी ख़त्म नहीं होंगे. वो अपनी शातिराना चालों और जन-धन बल से कश्मीर तथा नक्सली क्षेत्रों में स्थानीय लोगों को सुरक्षा बलों के खिलाफ भड़का रहा है. आतंकी और नक्सली दोनों ही जवानों पर हमला करने के लिए स्थानीय लोंगो और खासकर ग्रामीणों को अपनी ढाल बना रहे हैं. स्थानीय लोग अब सुरक्षा बलों के साथ धोखा कर रहे हैं, जिससे बड़ी संख्या में जवान मारे जा रहे हैं. यही वजह है कि बहादुर जवान मोदी सरकार से ऐसे लोंगो के खिलाफ कार्रवाई के लिए समुचित पावर दिए जाने की मांग बार-बार कर रहे हैं.

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आलेख और प्रस्तुति= सद्गुरु श्री राजेंद्र ऋषि जी, प्रकृति पुरुष सिद्धपीठ आश्रम, ग्राम- घमहापुर, पोस्ट- कन्द्वा, जिला- वाराणसी. पिन- 221106.
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