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संत कबीर साहब: ग्रहों के दुष्प्रभाव से इंसान कैसे मुक्त हो सकता है? -आध्यात्मिक चर्चा

सद्गुरुजी
सद्गुरुजी
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सन्तो जागत नीद न कीजै।
काल नहीं खाये, कल्प नहीं व्यापै, देह जरा नहि छीजै।

संत कबीर साहब कहते हैं कि इंसान मोह निशा से जाग जाए तो फिर उसे सोना नहीं चाहिए अर्थात माया मोह के चक्कर में फिर दुबारा नहीं पढ़ना चाहिए. इस संसार में अधिकतर लोग मोह निशा में ही सो रहे हैं. मानस में कहा गया है, ‘मोह निसाँ सबु सोवनिहारा, देखिअ सपन अनेक प्रकारा।’ जो सौभाग्यशाली लोग जागे हुए लोगों यानी संतों की संगति प्राप्त कर रहे हैं, उन्हें वो संगति भूल से भी कभी नहीं छोड़नी चाहिए, यदि वो ऐसी गलती करते हैं तो यह जागकर फिर सांसारिक मायाजाल में सो जाने के जैसा होगा. इससे आत्मा का मंगल नहीं, बल्कि चौरासी लाख योनियों में भटककर अमंगल ही होगा.

विज्ञान मानता है कि सृष्टि में वस्तुतः अंतरिक्ष (स्पेस), पदार्थ (मैटर) और समय (टाइम) यही तीनों हैं. संतों ने एक चौथी अवस्था भी मानी है, जिसे वो समय के घेरे से परे जाना और ‘जीते जी मरना’ आदि कहते हैं. कबीर साहब कहते हैं कि समय से परे जाने वाली एक ऐसी स्थिति भी है, जिसे मोक्ष कहते हैं और जीते जी प्राप्त उस अनुभव को समाधि, मोक्षानुभूति और अकाल पुरष की संगति आदि कहते हैं. संतों की संगति व्यक्ति को उस अकाल पुरुष के समीप अर्थात समय से परे ले जाती है, जहाँ पर देह धारण कर बचपन, जवानी और बुढ़ापे का कष्ट नहीं उठाना पड़ता है अर्थात वहां पर जीवन-मृत्यु रूपी घोर कष्ट नहीं है,

उलटि गंगा समुद्रहि सोखै, शशि और सूर गरासै।
नवग्रह मारि रोगिया बैठे जल में बिब प्रकाशै।

कबीर साहब कहते हैं कि सारा संसार अपने को सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु, केतु आदि नवग्रहों से पीड़ित समझता है, जबकि वास्तव में ये सब मतिभ्रम मात्र है. गृह-नक्षत्र किसी को भी वैसा सुख-दुःख नहीं देते हैं, जैसा कि ज्योतिष को व्यवसाय बनाने वाले लोग वर्णित और प्रचारित करते हैं. अपनी मनुष्य देह के भीतर साधना करके यदि कोई व्यक्ति आत्मदर्शन प्राप्त कर ले तो वो सभी ग्रहों के दुष्प्रभाव से मुक्त हो जाएगा. मानस में कहा गया है, ‘नाम लेत भव सिंधु सुखाई, करहुँ विचार सुजन मन माहीं।’ संत इसे उलटी गंगा या उलटा ज्ञान भी कहते हैं, क्योंकि ये सांसारिक ज्ञान के ठीक उल्ट है अर्थात आत्मा द्वारा अनुभूत दिव्य ज्ञान है. कबीर साहब भी वही बात कहते हैं कि इच्छाओं का समुद्र मन में दिव्य ज्ञान का उदय होने पर ही सूखेगा, चंद्र व सूर्य स्वर खुलकर तभी स्थिर होंगे और आत्मानुभूति-ईश्वरानुभूति कराने वाली स्वर साधना भी तभी सफल होगी.

बिनु चरणन कै दुहु दिस धावै, बिनु लोचन जग सूझै।
ससा उलटि सिंह को ग्रासै, अचरज कोऊ बूझै।

कबीर साहब कहते हैं कि आत्मा-परमात्मा की संगति अर्थात समाधि एक ऐसी अवस्था है, जहाँ पर आत्मा बिना पैरों के दसों दिशाओं में भ्रमण कर सकती है और बिना आँख के संसार के भेद को अर्थात सृष्टि, स्थिति और संहार के रहस्य को जान सकती है. सारे संत यही समझाते हैं कि आत्मा की शक्तियां कहीं बाहर नहीं, बल्कि हर मनुष्य के शरीर के भीतर हैं. ये सुप्तावस्था में हैं. जो इन्हे जागृत कर ले, वो शरीर से कृश होते हुए भी बहुत से असंभव कार्यों को संभव कर सकता है. कबीर साहब कहते हैं कि ये ठीक वैसा ही है जैसे कोई खरगोश दिव्य शक्ति को पाकर किसी सिंह से लड़ने-भिड़ने को तैयार हो जाए. यह आश्चर्य नहीं, बल्कि अनुभवगम्य विषय है, जिसे जागने वाला और जागे हुए लोंगो की अर्थात संत संगति करने वाला व्यक्ति ही समझ सकता है.

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