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राजनीतिक क्षेत्र में इस सप्ताह दो महत्पूर्ण घटनाएं हुईं। पहली घटना मंगलवार 18 जुलाई को घटी, जब बसपा की अध्यक्ष मायावती ने सहारनपुर हिंसा पर बहस के लिए समय दिए जाने की मांग के नाम पर राज्यसभा से इस्तीफा दे दिया। उनका इस्तीफा मंजूर हो चुका है, लेकिन इस्तीफा अपने साथ कई सवाल भी छोड़ गया है। पहला सवाल तो यह है कि उन्होंने इस्तीफा क्यों दिया? राज्यसभा में शोरशराबे के बीच मायावती की इतनी ही बात सुनाई दी कि मैं आज ही इस्तीफा देती हूं और ऐसी राज्यसभा में रहने से क्या फायदा? इस्तीफा देने के बाद मायावती ने कहा कि मैंने इस देश के करोड़ों दलितों, पिछड़ों, मजदूरों और किसानों के हित में राज्यसभा के सभापति को इस्तीफा सौंपा है। सवाल यह है कि इसमें दलितों, पिछड़ों, मजदूरों और किसानों का कौन सा हित है, यह तो भगवान ही जानें? मायावती ने एक संवैधानिक संस्था के प्रति जिस तरह से अपने गुस्से का इजहार किया है, उससे सबसे बड़ा सवाल तो यह उठता है कि क्या वे अब दोबारा राज्यसभा में नहीं जाएंगी?
उनके लिए ज्यादा अच्छा तो यही था कि राज्यसभा में न जाकर अपनी राजनीति को पुनर्जीवित करने के लिए समाज सेवा करते हुए दलितों से जुड़े सामाजिक मुद्दों पर व दलित उत्पीड़न पर देशव्यापी आन्दोलन चलातीं। मगर आज के युग की अवसरवादी और सुविधाभोगी राजनीति में यह कठिन मार्ग चुनना कम ही दलित नेता पसंद करते हैं। जिस तरह से मायावती ने सोच-समझकर इस्तीफा दिया, उससे तो यही लग रहा है कि इस्तीफ़ा देने का मन वो पहले ही बना चुकी थीं। उनको बस एक बहाने की तलाश थी। जैसे किसी स्त्री को जी भरके रोने का मन करे और संयोग से पिता या भाई से भेंट हो जाए। राजनीतिक पंडित इसे राजनीति का मास्टरस्ट्रोक बताते हुए यही कह रहे हैं कि चूंकि राज्यसभा में मायावती का कार्यकाल सिर्फ़ आठ महीने ही शेष बचा था और यूपी विधानसभा में बसपा के सिर्फ 19 विधायक होने के कारण मायावती के लिए राज्यसभा में फिर से पहुंचना मुश्किल था। लालू यादव के आश्वासन के बावजूद राज्यसभा के लिए दोबारा चुने जाने को लेकर वे आश्वस्त नहीं थीं।
अब लालू यादव सहित कांग्रेस और अन्य दलों का भी समर्थन मिलने से वे पूर्णतः आश्वस्त हो गई होंगी। राज्यसभा में उनकी अगली इनिंग तो अब लगभग पक्की हो ही चुकी है। इसी बहाने दलितों के बीच फिर से अपनी साख बनाने की कोशिश भी वे करेंगी, जिसे भाजपा ने पिछले कुछ वर्षों में अपनी ओर खींचकर उन्हें राजनीतिक रूप से लगभग पूरी तरह समाप्त कर दिया है। मायावती के प्रति दलितों के उदासीन होने की सबसे बड़ी एक वजह यह भी है कि दलित राजनीति, दलित उत्थान की जगह दलित नेताओं द्वारा अपनी निजी सम्पत्ति पैदा करने और बढ़ाने का साधन बन चुकी है। दलितों और अल्पसंख्यकों की राजनीति करने वाले कई नेताओं पर ऐसे आरोप लगे हुए हैं, जिसमे मायावती और लालू यादव भी शामिल हैं।
दलितों की समस्याओं और उनके दुख-दर्द के बारे में कुछ और चर्चा करने से पहले इस सप्ताह की दूसरी महत्वपूर्ण घटना का जिक्र करना चाहूंगा। राष्ट्रपति चुनाव में 65.65 फीसदी मत हासिल करने वाले एनडीए के उम्मीदवार रामनाथ कोविंद विजयी घोषित किये गए हैं। अब यह तय हो गया है कि कोविंद ही देश के अगले राष्ट्रपति होंगे। देश के 14वें राष्ट्रपति चुने जाने के बाद उन्होंने सभी को धन्यवाद दिया। राष्ट्र के नाम अपने पहले सन्देश में उन्होंने किसान, मजदूर और गरीब को याद करते हुए कहा कि आज देश में ऐसे कितने ही रामनाथ कोविंद होंगे, जो इस समय बारिश में भीग रहे होंगे। कहीं खेती कर रहे होंगे, कहीं मजदूरी कर रहे होंगे। शाम को भोजन मिल जाए, इसके लिए पसीना बहा रहे होंगे। आज मुझे उनसे कहना है कि परौंख गांव का रामनाथ कोविंद राष्ट्रपति भवन में उन्हीं का प्रतिनिधि बनकर जा रहा है। दलित समुदाय से जुड़े भारत के नए राष्ट्रपति की यह बात सभी देशवासियों के दिलों को छू गई, लेकिन कटु सत्य यह भी है कि दलितों की दरिद्रता उनके प्रतिनिधियों के ऊंचे पदों पर जाने मात्र से ही दूर नहीं होगी। दलितों की भूमिहीनता, गरीबी, बेरोज़गारी, अशिक्षा, सामाजिक व आर्थिक शोषण तथा पिछड़ापन जब तक देश के राजनीतिक दलों और सरकार के लिए अहम मुद्दा नहीं बनेगी, तब तक भारत के दलितों की दरिद्रता दूर नहीं हो सकती।
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