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मुकेश: टूटे दिलों की आह गीतों में समाने वाले अमर गायक

सद्गुरुजी
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भारतीय संगीत इतिहास के सर्वश्रेष्‍ठ गायकों में से एक मुकेश साहब का जन्मदिन 22 जुलाई अभी कुछ रोज पहले ही बीता है। व्यस्तता की वजह से उस समय कुछ नहीं लिख पाया, लेकिन आज कुछ फुरसत मिलते ही उनके बारे में लिखने की इच्छा हुई। उनके जैसी महान शख्सियत के बारे में एक ब्लॉग में बहुत कुछ लिखना संभव नहीं है, फिर भी कोशिश कह रहा हूं। मुकेश साहब के गीत बचपन में रेडियो पर सुनाई देते थे, लेकिन गीत या गायक के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। साल 1972 की बात है, वो रेडियो का युग था। चाहे रेडियो पर कुछ भी प्रसारित हो रहा हो, बस रेडियो का बजना ही बच्चों के लिए खुश होने वाली बात होती थी। घर से बाहर तक, जहां रेडियो बजता मिलता, सुनने के लिए भीड़ जुट जाती थी। मेरी उम्र उस समय लगभग 8 साल की रही होगी. गांव के ही एक युवक को तालाब के किनारे बैठकर पानी में मिट्टी का ढेला फेंकते हुए अक्सर देखता था। गांव की औरतें तालाब के पास से गुजरतीं, तो एक नजर उस युवक पर डाल अपने आंचल से मुंह ढंककर हंसने लगती थीं। कई औरतें साथ रहतीं, तो एक-दूसरे के कान में न जाने क्या ख़ुसर-फुसर कर रहस्यमय ढंग से एक-दूसरे की तरफ देख मुस्कुराने लगती थीं। एकांतप्रेमी उस युवक के पास जाने पर उसके मुंह से हमेशा यही एक गीत सुनाई देता था।

‘हम तुझ से मोहब्बत कर के सनम
रोते भी रहे, हंसते भी रहे
खुश हो के सहे उल्फ़त के सितम
रोते भी रहे, हंसते भी रहे
हम तुझ से मोहब्बत कर के सनम…’

उसकी आवाज अच्छी थी, लेकिन उसकी कही बात मेरी बाल-बुद्धि के पल्ले कुछ पड़ती नहीं थी। बस ये समझ में आता था कि ये भैया कुछ उदास हैं। घर जाकर मां और नानी को सब बात बताता था और उनसे पूछता था कि वो भैया तालाब के किनारे बैठकर क्या गाते हैं व तालाब में ढेला क्यों फेंकते हैं? मां गंभीर होकर रहस्यमय लहजे में कहतीं, ‘मुझे मालूम है, पर तुझे बताऊंगी नहीं’। नानी से पूछता तो मुझे डांटने लगती थीं कि उसके पास क्यों जाते हो? कल से उसके पास मत जाना। छोटी मौसी से पूछता तो वो अपनी साड़ी के पल्लू से मुंह ढककर हंसते हुए कहतीं कि बड़े हो जाओगे न, तब बात समझ में आएगी, अभी क्या बताऊं, बहुत छोटे हो।

कुछ समय बाद मुझे पता चला कि गैर बिरादरी वाली किसी लड़की से उनका लगाव था, जिससे उनकी शादी नहीं हो पाई, इसलिए वो दुखी रहते थे। घरवाले मार-पीटकर जबरदस्ती अपनी बिरादरी में शादी कर दिए थे। वक्त बीतने के साथ-साथ उनके मन के घाव भरे और अंततः अपनी पत्नी को अपना लिए। मेरे मन में बहुत गहरी सहानुभूति उनके लिए थी, जो आज भी उन जैसे आदर्शवादी प्रेमियों के लिए है। मुकेश साहब के गीतों से प्रेम भी उन्हीं के माध्यम से शुरू हुआ, जो समय के साथ-साथ बढ़ता गया और परिपक्व भी हुआ। संयोग से कॉलेज के दिनों में कई आशिक मिजाज दोस्त मिल गए। साल 1986 की बात है, एक मित्र कई दिनों तक कालेज नहीं आए, तो उनका हालचाल जानने उनके घर पहुंच गया. जनाब अपने कमरे में बिस्तर पर आंखे मूंदे हुए लेटकर मुकेश के दर्दभरे गीत सुनते हुए मिले, ‘मेरे टूटे हुए दिल से कोई तो आज ये पूछे के तेरा हाल क्या है, के तेरा हाल क्या है…। मैंने उन्हें झकझोरकर जगाया, तो आंखें मलते हुए उठ बैठे। टेप बंद करते हुए मैंने पूछा- आराम से बिस्तर पर लेटकर मुकेश के दर्दभरे गाने सुन रहे हो, कालेज क्यों नहीं आ रहे हो?। गहरी सांस खींचते हुए वो बोले- यार, उसने दिल तोड़ दिया। कालेज पढ़ाई सब बेकार है। अब तो भैया मुकेश ही अपना एकमात्र सहारा हैं।

मैंने उन्हें समझाया- उसी मुकेश भैया ने यह भी तो गाया है कि ‘किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार, किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार, किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार, जीना इसी का नाम है’। उन्होंने यह भी गाया है कि ‘चल अकेला, चल अकेला, चल अकेला, तेरा मेला पीछे छूटा राही चल अकेला… तेरा कोई साथ न दे तो तू खुद से प्रीत जोड़ ले, बिछौना धरती को करके अरे आकाश ओढ़ ले, पूरा खेल अभी जीवन का तूने कहां है खेला, चल अकेला, चल अकेला, चल अकेला…’। मेरी बात मित्र की समझ में आई और कुछ रोज में नॉर्मल होकर कॉलेज आने लगा। घर में पिताजी रेडियो सुनने नहीं देते थे, इसलिए अक्सर अपने उसी मित्र के यहां मुकेश के गाने सुनने पहुंच जाता था। उसके पास टेप रिकॉर्डर था, इसलिए कोई भी मनपसंद गीत सुनने में आसानी होती थी। एक बार उसके यहां पहुंचा, तो एक गीत बज रहा था, ‘दिल जलता है तो जलने दे, आंसू ना बहा फ़रियाद ना कर, दिल जलता है तो जलने दे…’। मैंने मित्र से कहा कि आज केएल सहगल के गीत सुन रहे हो। उसने कहा कि भाई मेरे यह केएल सहगल का नहीं, बल्कि मुकेश का गाया हुआ गीत है। मैंने उससे वाद-विवाद करते हुए झट से शर्त लगा ली। बाद में पता चला कि यह मुकेश का गाया हुआ फिल्म ‘पहली नजर’ का गीत है। यह जानकार मुझे बहुत हैरानी हुई थी।

शर्त हारने के बाद मुकेश साहब के बारे में विस्तार से जानने के लिए एक किताब खरीदा, जिससे मालूम पड़ा कि शुरू-शुरू में मुकेश, सहगल साहब की स्टाइल में गाया करते थे। नौशाद साहब ने उन्हें अपने मौलिक अंदाज में गाने की सलाह दी। साल 1948 में फिल्म ‘मेला’ में नौशाद साहब ने मुकेश से ये गीत गवाया, ‘गाए जा गीत मिलन के, तू अपनी लगन के, सजन घर जाना है’। लोंगो ने मुकेश की सुरीली आवाज़ जब उनके अपने मौलिक अंदाज में सुनी, तो उसे बेहद पसंद किया। उसके बाद मुकेश ने सहगल साहब के अंदाज़ को एक तरफ़ रखते हुए अपने अंदाज में गाना शुरू किया और वक्त के साथ तरक्की करते हुए लोकप्रियता के शिखर पर पहुंच गए। साल 1958 में एक फिल्म आई थी ‘यहूदी’, उसका एक गीत आम जनता के बीच बहुत लोकप्रिय हुआ था, ‘ये मेरा दीवानापन है या मुहब्बत का सुरूर, तू न पहचाने, तो है ये तेरी नज़रों का क़ुसूर, ये मेरा दीवानापन है…’। इस गीत को मुकेश साहब ने अपनी जादुई आवाज़ से अमर बना दिया। इस गीत की रिकॉर्डिंग के समय दिलीप कुमार जिद पर अड़े थे कि इस गीत को तलत महमूद से गवाया जाए। संगीतकार शंकर जयकिशन ने उनसे अनुरोध किया कि पहले मुकेशजी को गाने दीजिये, यदि आपको नहीं पसंद आया, तो तहत महमूद जी से गवा लेंगे।

दिलीप साहब ने मुकेश की आवाज में जब इस दर्दभरे गीत को सुना, तो सन्न रह गए। वो गीत सुनकर अपनी सुध-बुध भूल गए थे, होश में आये तो मुकेश को गले लगा लिए। दिलीप कुमार अभिनय के मामले में दर्द के बादशाह यानि ट्रेजडी किंग थे, तो मुकेश आवाज के मामले में। दोनों में ऐसी गहरी दोस्ती हुई कि बहुत से गीत मुकेश ने उनके लिए गाये। राजकपूर के लिए मुकेश ने दो दशक से भी ज्यादा समय तक गाया। 1949 से इस जोड़ी ने ‘छोड़ गए बालम…, जिंदा हूं इस तरह…, रात अंधेरी दूर सवेरा…, दोस्त-दोस्त ना रहा…, जीना यहां मरना यहां…, कहता है जोकर…, जाने कहां गए वो दिन… आदि न जाने कितने यादगार गीत दिए। फ़िल्‍म फ़ेयर पुरस्‍कार पाने वाले मुकेश पहले पुरुष गायक थे। 27 अगस्त 1976 को दिल का दौरा पड़ने से मुकेश का निधन हुआ, जिसकी खबर सुनकर राजकपूर सन्न रह गए थे। उनके मुंह से बस यही निकला कि मैंने अपनी आवाज़ खो दी। टूटे दिल की आह अपने गीतों में समाकर मुकेश सदा के लिए अमर हो गए। निजी जिंदगी में मुकेश बहुत वफादार और संवेदनशील थे। जिस लड़की से प्रेम किया, उसी से विवाह भी किया। हालांकि मंदिर में सम्पन्न हुए उनके अंतर्जातीय विवाह में अंत तक बाधाएं भी बहुत सी आई थीं। बिना पैसे लिए मुकेश ने कई चैरिटेबल कार्यक्रमों में भाग लिया और पूरी ‘राम चरित मानस’ गाई। मुकेश भगवान श्रीराम के परम भक्त थे और प्रतिदिन सुबह रामचरित मानस का पाठ किया करते थे। मनोज कुमार उन्हें ‘कृपाराम’ कहते थे।

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