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कामनापूर्ति या मोक्ष प्राप्ति के लिए धर्म से ज्यादा महत्व है भक्ति का

सद्गुरुजी
सद्गुरुजी
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आजकल नवरात्र चल रहा है और देशभर में नवरात्री पर्व की धूम मची हुई है. नवरात्र में नौ दिन व्रत रखने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने संसदीय क्षेत्र वाराणसी के दो दिन के दौरे पर हैं. कल रात को हमारे शहर वाराणसी के प्रसिद्द दुर्गामंदिर में मोदीजी विधिवत पूजापाठ किये. प्रधानमंत्री मोदी मेरी नजर में एक बेहद अनुभवी, सुयोग्य और चतुर राजनीतिज्ञ हैं. निर्गुण निराकार परमात्मा में अटूट श्रद्धा रखते हुए और उसका नित्य ध्यान करते हुए भी देश के जिस शहर में भी जाते हैं, वहां के प्रसिद्द मंदिरों में जाकर सगुण और साकार देवी-देवताओं की विधिवत पूजा अर्चना भी कर लेते हैं.


durga temple


हो सकता है कि वो ये सब देश की आम जनता (खासकर हिन्दुओं) को खुश करने के लिए करते हों, क्योंकि उन्हें प्रधानमंत्री बनाने में उस वर्ग का विशेष योगदान है. अपनी व्यक्तिगत आस्था चाहे किसी भी मत या पंथ में क्यों न हो, लेकिन दूसरे के मत या पंथ की आस्था का भी पूरा सम्मान करना चाहिए. मोदी जी इसी बात के कायल हैं और उनकी यही विशेषता जनता को बहुत प्रभावित करती है. हालाँकि यह भी एक कटु सत्य है कि आम जनता धर्म के नाम पर आज से नहीं, बल्कि सदियों से भ्रमित है. वास्तविक आध्यात्म से अनभिज्ञ देश की आम जनता आज भी धर्म के नाम पर तरह-तरह के अंधविश्वासों, रीति-रिवाजों और ठगी के जाल में फंसी हुई है. प्रधानमंत्री मोदी जनता को जागरूक करने की दिशा में एक पहल कर सकते हैं.


अपने स्तर से कुछ साधु-संत कोशिश कर ही रहे हैं. मनुष्य शरीर को ही नर और नारायण दोनों का ही वास्तविक अनुभूति स्थल बताने वाली भगवतवाणी श्रीमद्भगवद्गीता हिन्दुओं के घर-घर में है, किन्तु फिर भी अधिकतर हिन्दू अज्ञान के अँधेरे में भटक रहे हैं. श्रीमद्भगवद्गीता का ज्ञान सरल भाषा में प्रिंट कराकर न सिर्फ स्कूल-कॉलेजों में, बल्कि घर-घर में पहुंचाया जाना चाहिए. हिन्दुस्तान के हर घर को आध्यात्मिक रौशनी की जरूरत है. हममें से बहुत से लोग अंधविश्वासों और रीतिरिवाजों से परेशान, भयभीत और भ्रमित हैं. परमात्मा की सच्ची भक्ति की जगह दिखावा और पाखंड ही ज्यादा हो रहा है.


मैं पूरी ईमानदारी के साथ अपने घर की स्थिति का बयान कर रहा हूँ. मेरी माता जी व्रत-उपपवास रखने को ही भक्ति समझती हैं और पत्नी देवी-देवताओं की पूजा को ही भक्ति समझती हैं. मेरी पांच साल की बेटी अपने ही निराले ढंग से भक्ति करती है. वर्षों हवन-यज्ञ पूजापाठ करने के बाद अब तो एकांत में बैठकर संतों के बताए मार्ग के अनुसार अपने शरीर के भीतर ही सुमिरन-भजन करना मुझे ज्यादा भाता है. अच्छी बात यह है कि हमारे घर में इन सब चीजों को लेकर कभी कोई बहस नहीं होती है. किसी पर अपने विचार कोई नहीं थोपता है. हमारे घर के आसपास के लोग हमेशा आश्चर्य करते हैं कि इस घर में इतनी शांति कैसे रहती है. मैं अपने ढंग से निराकार परमात्मा की भक्ति करता हूँ और घर के अन्य लोग अपने ढंग से साकार देवी-देवताओं की पूजा करते हैं. कोई किसी की भक्ति में हस्तक्षेप नहीं करता है.


अब मैं बेटी की अनोखी भक्ति की चर्चा करूँगा. बात कई साल पुरानी है, लेकिन भूलती नहीं है. उस समय वो लगभग दो साल की रही होगी. दिवाली के दिन रात को घर के आँगन में हम सब लोग मिलकर बहुत से दिए जलाये. मेरी पत्नी ने गणेश-लक्ष्मी जी की नई मूर्ति फूल-माला से सजाई और मूर्ति के आगे फल मिठाई व एक थाली में लावा रख दीं. मेरी पत्नी पूजा-पाठ में मगन हो गईं. नए कपड़ों में लिपटी जय जय बोलती अपनी बेटी की तरफ मैं देखा. मूर्तियों के पास वो वज्रासन मै बैठकर दोनों हाथ जोड़ ली और अपने होठ हिलाकर कुछ अर्थहीन बातें बोलते हुए आगे झुककर माथा जमीन पर नवाई और फिर उठकर थाली में से लावा निकालकर मुंह में डाल ली. फिर हाथ जोड़कर होठो में कुछ बड़बड़ाई और जमीन पर झुककर माथा नवाई और फिर अपने नन्हे हाथों से थाली में से लावा निकालकर मुंह में डाल ली.


इस बार खाते हुए दो लावा फर्श पर गिर गया, उसे भी झट से अपने नन्हे हाथों से उठाकर खा ली. मैं मंत्रमुग्ध सा होकर उसे देख रहा था. उसके फर्श से उठाकर खाने पर कबीर साहब के एक भजन की एक पंक्ति मुझे याद आ गई, ‘लेत उठाई परत भुईं गिरी-गिरी, ज्यों बालक बिने कोरा रे.’ भगवान की भी बालक के समान खासियत है. यदि आप से उनकी दोस्ती हो गई तो आप कहीं भी गिरे नहीं कि झट से उठा लेंगे. पाठ में मगन मेरी पत्नी ने मेरी ओर देख बेटी को रोकने का इशारा किया. वो कहना चाह रहीं थीं कि बिटिया प्रसाद जूठा कर रही है, उसे रोको. मैंने कहा-“जाने दो. इसे भी अपने ढंग से पूजा कर लेने दो.


मेरी माता जी बिटिया का हाथ पकड़कर उसे रोकना चाहीं, “देखअ एके, कुल परसदीये जूठ करत बा.” बिटिया अपनी पूजा में खलल पड़ते देख रोने लगी. मैंने बिटिया का हाथ छुड़ाते हए माँ से कहा, “माँ, छोड़ो उसे. उसे भी अपने ढंग से पूजा करने दो. अपनी पूजा पर ध्यान दो. परसाद तो चींटियां और चूहे भी जूठा कर रहे हैं.” बिटिया फिर उसी तरह से अपना पूजा-पाठ करने में लगी रही. मैंने उसे रोका नहीं. मैं उसकी अनोखी भक्ति से अभिभूत था.


मुझे अघोरी साधुओं का सान्निध्य याद आ गया. जो कहते थे कि हमारी समूची साधना का सार है, बालक के समान भोला हो जाना. भोलेपन में भक्ति सच्ची हो जाती है और बुद्धि लगा के भक्ति करने में दिखावटी और स्वार्थी हो जाती है, क्योंकि उसमें चालाकी छिपी रहती है.” एक और संत की बात मुझे याद आयी, “जब भगवन की भक्ति करो, तो बालक के समान भोला और निर्दोष हो जाओ और जब दुनिया वालों से मिलो, तो बहुत चतुराई से मिलो, क्योंकि वहाँ तुम्हे एक से बढ़कर एक चतुर मिलेंगे.”


पजा-पाठ जब संपन्न हो गया तो पत्नी मुझसे बोलीं, “आप ने उसे रोका क्यों नहीं? सब प्रसाद जूठा कर रही थी.” मैंने हंसकर जबाब दिया, “प्रसाद तो चींटियां और चूहे भी जूठा कर रहे थे. मैं साक्षी भाव से इसकी भक्ति देखना चाहता था. सबसे बेहतर ढंग से इसी ने पूजा-पाठ की है.” सब हंसने लगे. मैंने फूल की तरह हंसती हुई मासूम बेटी को गोद में लेकर पूछा, “बेटा, भगवान से क्या मांगी हो?” उसने हँसते हुए कहा, “चाको!” चाॅकलेट को वो चाको बोलती थी.


मैंने कहा, “अब रात में तो तुम्हारे लिए कोई चाॅकलेट लाने वाला नहीं है. कल मैं मंगा दूंगा.” वो हाथ से इशारा करते हुए बोली-“चाचू!” मैंने कहा-” बेटा, अब इस समय कोई चाचू नहीं आयेंगे.” संयोग से उसी समय काॅलबेल बजी. मैं बेटी को गोद में लिए हुए मेनगेट के पास पहुंचा और मुख्यद्वार खोल दिया. आश्रम से जुड़े एक सज्जन भीतर आकर अभिवादन करते हुए मिठाई का डिब्बा मेरे हाथों में रख दिए और और जेब से दो चाकलेट निकालकर बेटी के हाथों में थमा दिए. वो मेरे गोद से उतरकर ख़ुशी के मारे जोर-जोर से हँसते खिलखलाते हुए सबको अपनी मनपसंद चाॅकलेट दिखाने घर के भीतर भाग गई.


मैं कुर्सी पर बैठने का अनुरोध करते हुए बोला, “मैंने आपसे मना किया था कि बेटी के लिए चाॅकलेट मत लाइयेगा. बच्चों के दांत खराब होते हैं और उनके स्वास्थ्य के लिए भी चाकलेट ठीक नहीं है.” कुर्सी पर बैठकर वो कुछ संकोच करते हुए बोले-“मुझे आप की हिदायत याद थी, लेकिन पता नहीं क्यों दो घंटे से मेरे दिमाग में एक ही विचार घूम रहा था कि आज बिटिया को उसकी मनपसंद चाॅकलेट दूं. आज मुझे इस तरफ आना भी नहीं था. पता नहीं कैसे खिंचा चला आया.”


“मेरे आकर्षण में खिचे चले आये या बिटिया के!” मैंने चाय-पानी लाने के लिए भीतर आवाज दी. “दो घंटे से तो बिटिया का ही आकर्षण चल रहा था. अब आप का आकर्षण है.” वो हंसने लगे. मिठाई खिलाने और चाय पिलाने के बाद मैंने उन्हें विदा किया.


मैं कुर्सी पर बैठकर सोचने लगा कि कहीं न कहीं से हम सब लोग अदृश्य रूप से एक-दूसरे से जुड़े हैं और एक सबको प्रेरित करने वाली सर्वशक्तिमान सत्ता से भी हम लोग जुड़े हैं, जो सब जगह विद्यमान सत्ता है. उसको यदि कोई अपनी निच्छल भक्ति से रिझा ले तो वो किसी को भी प्रेरित करके भक्त की इच्छा पूर्ण कर सकता है.


मैंने स्वयं अपने जीवन में हजारों बार इस सत्य का अनुभव किया है. हिंदुओं की प्रार्थना, “ॐ जय जगदीश हरे, प्रभु जय जगदीश हरे..” अब आगे गौर कीजियेगा-, “भक्तजनों के संकट क्षण में दूर करें.” भगवान जरूर मदद करते हैं, बस एक ही शर्त है कि आप भगवान के भक्त हो जाएँ. कहा भी जाता है कि भगवान भक्त के लिए हैं और बाकी सबके लिए माया है.


एक-दो नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में लाखों-करोड़ों भक्तों की जीवनी इस बात का प्रमाण है कि संकट के समय परमात्मा ने उनकी मदद की. परमात्मा की शक्ति के सहारे भक्त असम्भव से असम्भव कार्य भी पूर्ण कर सकता है. विश्व के कोने-कोने में ईसाई धर्म का प्रचार-प्रसार करने के लिए जाने वाले धर्म प्रचारकों का एक अनुभव एक पुस्तक में पढ़ा था, जो भक्त और भक्ति की महत्ता को दर्शाता है.


ईसाई धर्म प्रचारक अपने ईसाई धर्म का प्रचार-प्रसार करने के लिए एक ऐसे क्षेत्र में गए, जहाँ पर कोई भौतिक विकास नहीं था. उन्होंने एक नाव से नदी पार की और गांव में जाकर बाइबिल बाँटने लगे, तब उस गांव के लोगों ने कहा कि हम लोग लिखना-पढ़ना नहीं जानते हैं. हम इसे लेकर क्या करेंगे. तब धर्म प्रचारकों ने एक पेड़ के नीचे सबको इकट्ठा कर प्रभु ईसामसीह के बारे में बताया और प्रार्थना करना सिखाया. गांव वालों के लिए नया धर्म था, इसीलिए किसी के समझ में नहीं आया. गांव के एक बुजुर्ग ने कहा कि जो चींजे हमें जीने के लिए कुछ न कुछ देती हैं, हम लोग केवल उसी की पूजा-पाठ करते हैं. ये धर्म हमारे लिए नया है और हमारी समझ से परे है.


धर्म प्रचारकों ने खिसियाकर पूछा, “क्या इस गांव में कोई समझदार व्यक्ति नहीं है, जिसे हम समझा सकें और वो तुम सबको समझा सके?” उस बुजुर्ग व्यक्ति ने कहा, “इस गांव में एक साधु रहता है, वो ज्ञानी भी है और भक्त भी, आप उसे समझाओ, वो हमें समझा देगा. हमें पूजा-पाठ करना वही सिखाता है.


धर्म प्रचारकों ने सोचा यही ठीक रहेगा कि इन गांववालों को और समझाने की बजाय उस साधु को चलकर समझाया जाए. हमारा धर्म हमारी प्रार्थना, वो साधु गांववालों को समझा देगा. गांववालों के साथ वो साधु की तलाश में चल पड़े. उसे खोजते-खोजते जब धर्म प्रचारक गांव से बाहर आये, तो सहसा उनकी नज़र एक पेड़ के नीचे खड़े एक व्यक्ति पर पड़ी जो हाथ जोड़कर कुछ बड़बड़ाते हुए गोल-गोल घूम रहा था. वो कभी आसमान को देखता था तो कभी धरती को. धर्म प्रचारकों ने पूछा, “ये व्यक्ति कौन है और क्या कर रहा है?


गांववालों ने कहा, “यही इस गांव का वो साधु है जो हमारे लिए ज्ञानी भी है और भक्त भी. हम इसी के बताये अनुसार अपना पूजा-पाठ करते हैं.” ईसाई धर्म प्रचारकों को वो साधु मूर्ख और अज्ञानी मालूम पड़ा. नजदीक जाकर एक धर्म प्रचारक ने पूछा, “ये आप क्या कर रहे हैं?” साधू ने कहा, “मैं उन सबको धन्यवाद दे रहा हूँ, जो हमें कुछ न कुछ देते हैं. ये सूरज, ये धरती, ये हवा, ये पेड़ पौधे, ये जलाशय, ये खेत-खलिहान, हमारे मवेशी, हमारे गांव के लोग और अंत में सब कुछ रचने वाला वो परमात्मा, बस वहीं जाकर उसमें लीन हो जाता हूँ. उसकी कृपा पर आंसू बहाता हूँ. यही ज्ञान मैं अपने गांववालों को भी देता हूँ.


एक धर्म प्रचारक ने कहा, “लेकिन आप का ये पूजा-पाठ गलत है. आप की ये प्रार्थना भी गलत है. ये परमात्मा की प्रार्थना करने का सही तरीका नहीं है.” साधु ने हाथ जोड़कर बड़ी विनम्रता से कहा, “महोदय! मैंने अपने गुरु से यही ज्ञान प्राप्त किया है. यदि ये गलत है तो मुझे कृपा करके सही ज्ञान प्रदान कीजिये और भगवान की प्रार्थना करने का सही तरीका बताइये. मैं उसे समझकर गांववालों को बताऊंगा.”


साधु पढ़ा-लिखा था नहीं, इसीलिए उसे बाइबिल देने का कोई फायदा नहीं था. धर्म प्रचारकों ने उसे ईसा मसीह के बारे में बताया और प्रार्थना के कुछ वाक्य रटा दिए. ईसाई धर्म प्रचारक अपना काम ख़त्म समझकर गांव वालों के साथ नदी की तरफ चल दिए, जहाँ पर एक नाव उनका इंतजार कर रही थी. धर्म प्रचारक बहुत ख़ुशी और गर्व महसूस कर रहे थे कि अब ये साधु सबको प्रार्थना का सही तरीका बतायेगा और धीरे-धीरे पूरा गांव ही ईसाई बन जायेगा.


सभी ईसाई धर्म प्रचारक गांववालों से विदा लिए और जल्द ही गांव में फिर आने का वादा कर नाव में बैठ गए. साधु सहित सब गांववाले हाथ जोड़कर धन्यवाद देते हुए उन्हें विदा किये. नाव चल पड़ी धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए नाव नदी के बीच में पहुंची. आपस में वार्तालाप करते धर्म प्रचारकों के कानों में तभी पीछे से एक आवाज आकर गूंजी, “महोदय… महोदय…!


जब धर्म प्रचारकों ने पीछे की ओर घूम गांव की तरफ आँख उठाकर देखा तो वो हैरत में आकर बस देखते रह गए. साधु नदी के ऊपर दौड़ते हुए उनके करीब आ रहा था. धर्म प्रचारक हतप्रभ हो आश्चर्य से फटी आँखों से उसे देख रहे थे. साधु नाव के नजदीक आकर बोला, “महोदय मैं आप की बताई हुई प्रार्थना भूल गया हूँ. कृपया फिर से बता दीजिये.”


धर्म प्रचारक हैरत से पानी पर दौड़ने वाले साधु को काफी देर तक देखते रहे. उनकी बोलती बंद हो गई थी. तभी उनमें से एक धर्म प्रचारक उठकर खड़ा हुआ और हाथ जोड़कर जोर से बोला, “कृपया आप वापस चले जाइये. आप की प्रार्थना ही सही है. आप गाँव के लोगों से वही प्रार्थना कराते रहिये.


साधु वापस चला गया और धर्म प्रचारक अपने घरों की ओर चले गए. ईसाई धर्म प्रचारकों के इस अनुभव से ये शिक्षा मिलती है कि धर्म और ज्ञान से ज्यादा महत्वपूर्ण है भक्ति. भक्त की भक्ति में ही उसकी सारी शक्ति और पूर्ण सफलता यानि मोक्ष निहित है. धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जीवन के चारों पुरुषार्थ भक्ति से सिद्ध होते हैं. हम क्यों अपना विचार और धर्म एक-दूसरे पर थोपने की कोशिश करते हैं.


ये दावा करना की हमारा ज्ञान और धर्म ही सही है, ये अहंकार और मूर्खता के सिवा और कुछ नहीं है. बजाय दूसरे के ज्ञान और धर्म के पीछे भागने के या उसकी आलोचना करने के आप अपने धर्म पर पूरी तरह से और ईमानदारी के साथ अमल कीजिये, इसी में जीवन की पूर्णता है. भगवान कृष्ण ने इसीलिए कहा कि धर्म बदलने की बजाय अपने धर्म को पूरी तरह से समझकर उसके अनुसार जीवन जीना चाहिए.


मैंने एक ऐसे व्यक्ति के बारे में सुना था, जो कर्जों से लदा हुआ था. वो कर्जों से मुक्ति पाने के लिए ईसाई बन गया था. अपना घर छोड़कर ईसाईयों के साथ ही रहने लगा. हर रोज वो प्रात: चार बजे नहा धोकर जोर-जोर से बोलकर गीता रामायण और दुर्गा सप्तशती का पाठ करता था. उसके आसपास रहने वाले सभी ईसाईयों ने जाकर फादर से शिकायत की. तब फादर ने उसे बुलाकर कहा, “देखो भाई, अब तुम ईसाई बन गए हो, इसीलिए सबह-सुबह उठकर जो तुम पूजा-पाठ करते हो, ये सब बंद करो. वह व्यक्ति नाराज होकर बोला, “ईसाई बन गए तो क्या हुआ, कोई अपना धर्म थोड़े ही छोड़ा है. मैं पूजा-पाठ बंद नहीं करूँगा. फादर सहित सब लोग उसे समझाकर थक हर गए. अंत में जब वो नहीं माना और अपनी ही बात पर अड़ा रहा, तो उसे ईसाई धर्म से बाहर कर दिया गया.


ईसाई मिशनरियां हमारे देश में बहुत समय से शिक्षा, चिकित्सा और सेवा की आड़ लेकर और गरीब व दलित लोगों को तरह-तरह का लालच देकर धर्म परिवर्तन जैसा निंदनीय कार्य कर रही हैं. धर्म परिवर्तन के लिए जाति-व्यवस्था भी जिम्मेदार है, जिसमें निम्न जाति के नाम पर उन लोगों से घृणा की जाती है. हिंदुओं में धर्म परिर्तन बढ़ने के लिए हमारे धार्मिक नेताओं के साथ-साथ केंद्र व राज्य सरकारें भी जिम्मेदार हैं, जो अपने निहित स्वार्थ की पूर्ति हेतु तथा अपने वोट बैंक को बरकरार रखने हेतु जाति-व्यवस्था को ख़त्म करने की बजाय उसे और बढ़ावा दे रहे हैं.


मुझे लगता है कि जो लोग धर्म परिवर्तन करते हैं वो लोग ऊंची जातियों के शोषण के अलावा एक तो अपने धर्म को भी ठीक से समझ नहीं पाते हैं और दूसरे किसी न किसी चीज के लोभ लालच में पड़कर ऐसा करते हैं. हमें सभी धर्मों का आदर करना चाहिए और उनकी जानकारी प्राप्त कर उसमें वर्णित अच्छाइयों को ग्रहण भी करना चाहिए, परन्तु जन्म से मिले अपने धर्म में जीवन और मृत्यु दोनों ही श्रेयस्कर हैं, इस बात को कभी नहीं भूलना चाहिए. भगवान् श्रीकृष्ण ने भी यही बात कही है.

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