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आईवीएफ तकनीक: गोद भरने के नाम पर हो रही लूट

सद्गुरुजी
सद्गुरुजी
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संतानहीनता एक ऐसी समस्या है जिससे दुनिया भर में 10 प्रतिशत से भी ज्यादा शादीशुदा जोड़े प्रभावित हैं. हमारे देश हिन्दुस्तान में भी इनफर्टिलिटी यानी संतानहीनता की समस्या बहुत तेजी से बढ़ रही है. डॉक्टर इसकी मुख्य वजह पिछले कुछ दशकों में हमारी जीवनशैली में हुआ बहुत बड़ा बदलाव मान रहे हैं.


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पहले कम उम्र में शादियां होती थीं और हर घर में कम से कम चार से छह बच्चे होते थे, किन्तु अब (खासकर मध्यमवर्गीय हिन्दुओं और ज्यादा पढ़े-लिखे उच्चवर्गीय मुस्लिम परिवारों में भी) अधिक उम्र में शादियां हो रही हैं और बच्चों की संख्या भी अब एक से लेकर तीन तक के बीच सीमित हो चली है.


संतानहीनता के इलाज के मामले में जब सारी चिकित्सकीय तकनीक फेल हो जाती है, तब आईवीएफ प्रक्रिया की बारी आती है, जिसे संतान प्राप्ति के मामले में चिकित्सा जगत में उम्मीद की आखिरी किरण माना जाता है. इन व्रिटो फर्टिलाइजेशन (आईवीएफ) में महिलाओं में कृत्रिम गर्भाधान किया जाता है. आधुनिक युग में यह बांझपन दूर करने की एक कारगर तकनीक है. इसे आप औलाद पाने की उम्मीद की आखिरी किरण भी कह सकते हैं.


इस तकनीक में किसी महिला के अंडाशय से अंडे को अलग कर उसका संपर्क द्रव माध्यम में शुक्राणुओं से कराया जाता है और फिर उसके बाद निषेचित अंडे को महिला के गर्भाशय में रख दिया जाता है. वर्तमान समय में आईवीएफ की कई अन्य तकनीक भी प्रचलन में है, जिसमें आईसीएसआई, जेडआईएफटी, जीआईएफटी और पीजीडी आदि हैं. जब अंडों की संख्या कम होती है या फिर शुक्राणु, अंडाणु से क्रिया करने लायक बेहतर अवस्था में नहीं होते हैं, तब आईसीएसई तकनीक का प्रयोग किया जाता है. इसमें माइक्रोमेनीपुलेशन तकनीक द्वारा शुक्राणुओं को सीधे अंडाणुओं में इंजेक्ट कराया जाता है.


बांझपन के इलाज में जेडआईएफटी तकनीक के अंतर्गत महिला के अंडाणुओं को निकाल कर उन्हें निषेचित किया जाता है. उसके बाद उसे महिला के गर्भाशय में स्थापित करने के बजाए उसके फेलोपिन ट्यूब में स्थापित किया जाता है. आईवीएफ की जिस करिश्माई तकनीक ने दुनिया की लाखों महिलाओं की गोद बच्चों की किलकारियों से भरी, उसकी खोज के बारे में भी जरूर जानना चाहिए.


दुनिया में पहली बार आईवीएफ तकनीक का प्रयोग डॉक्टर पैट्रिक स्टेपो और रॉबर्ट एडवर्डस ने किया था. उनके इस प्रयोग से पैदा होने वाली पहली बच्ची लुईस ब्राउन थी, जिसका जन्म 25 जुलाई, 1978 को मैनचेस्टर ब्रिटेन में हुआ था. बच्चों के लिए तड़पने वाले लाखों लोगों के लिए उम्मीद की रोशनी दिखाने वाली टेस्ट ट्यूब बेबी तकनीक के जनक ब्रिटिश वैज्ञानिक सर रॉबर्ट एडवर्डस को 85 साल की उम्र में वर्ष 2010 में नोबेल पुरस्कार दिया गया.


भारत में वर्ष 1978 में डॉक्टर सुभाष मुखोपाध्याय ने इस प्रक्रिया का इस्तेमाल कर देश की पहली और दुनिया की दूसरी टेस्ट ट्यूब बेबी दुर्गा उर्फ़ कनुप्रिया अग्रवाल का लैब में निषेचन (Fertilization) 3 अक्टूबर 1978 में करने का दावा किया था, जिसे सरकार ने खारिज कर दिया था. सरकार की बेरुखी, केस दर्ज होने और सम्मान मिलने की बजाय सामाजिक बहिष्कार होने से तंग आकर उन्होंने 19 जून 1981 को आत्महत्या कर ली थी. भारत को वस्तुतः डॉ. इंदिरा हिंदुजा ने 6 अगस्त 1986 को देश की पहली टेस्ट ट्यूब बेबी हर्षा चावड़ा के रूप में एक ऐतिहासिक सौगात दी थी.


आईवीएफ की प्रक्रिया सुपरओव्यूलेशन, अंडे की पुन:प्राप्ति, निषेचन और भ्रूण स्थानांतरण के रूप में पूर्ण होती है. इस तकनीक का प्रयोग बांझपन से पीड़ित उन महिलाएं भी हो रहा हैं जिनमें रजोनिवृत्ति हो चुकी है या फिर जिनमें फैलोपियन ट्यूब बंद हो चुकी हैं. इस प्रकार से नजर डालें तो आईवीएफ की सुविधा निःसंतान दम्पतियों के लिए बेशक एक वरदान साबित हो रही है. लेकिन इस समय आईवीएफ तकनीक न सिर्फ महंगी है, बल्कि इसके साइड इफेक्ट भी हैं.


आईवीएफ की प्रक्रिया के दौरान 30 हजार रुपये से भी ज्यादा का अकेले हार्मोंस पर ही खर्च आता है. कपल को दी जाने वाली दवाएं भी महंगी हैं. हार्मोंस और दवाओं के कई तरह के कुप्रभाव कपल के स्वास्थ्य पर पड़ते हैं. एम्स के एक्सपर्ट पिछले कई साल से आईवीएफ की एक नई तकनीक पर रिसर्च कर रहे हैं, जिसमे हार्मोंस और दवाओं का इस्तेमाल न सिर्फ कम से कम होगा, बल्कि पूरे इलाज का खर्च 20 हजार रुपये तक में हो जाएगा. फिलहाल अभी एम्स के आईवीएफ क्लिनिक में इस पर 60 से 65 हजार रुपये का खर्च आ रहा है.


जहाँ तक निजी अस्पतालों की बात है तो आजकल पूरे देशभर में जगह-जगह आईवीएफ क्लिनिक खुल गए हैं, लेकिन वहां इलाज कराने पर लगभग डेढ़ से ढाई लाख रुपये तक खर्च होते हैं. प्राइवेट आईवीएफ सेंटर अपना कारोबार चलाने के लिए कई तरह गैरकानूनी हथकंडे भी अपनाये हुए हैं. इनके चंगुल में जो मरीज एक बार फंस जाता है, उसे पूरी तरह से निचोड़ लेते हैं.


आईवीएफ करने से पहले केवल इलाज करने के नाम पर कई महीने से लेकर साल दो साल तक की अवधि के दौरान लाख दो लाख रुपये हजम कर जाते हैं. शुरू में वो पूरे इलाज का खर्च वो साफ़-साफ़ नहीं बताते हैं. मरीज से शुरू में एक हजार रुपये रजिस्ट्रेशन शुल्क लेते हैं. यदि मरीज छह माह बाद इलाज कराने उनके पास जाता है तो पहले वाला रजिस्ट्रेशन शुल्क गैरकानूनी ढंग से हजम करते हुए फिर रजिस्ट्रेशन कराने को कहते हैं.


मेरे पास आने वाले कई लोंगो ने इसी सिलसिले में अपने कटु अनुभव सुनाए. कुछ लोगों का कहना है कि यदि किसी की कई लडकियां हैं, तो उसे लड़का पैदा कराने का भरोसा दिलाकर मोटी रकम वसूली या कहिये ठगी के मकड़जाल में फंसा लेते हैं.


इस बात में कोई संदेह नहीं कि निःसंतान दंपत्तियों को गोद भरने के नाम पर तरह-तरह के प्रलोभन देकर निजी आईवीएफ क्लिनिकों में उनसे मोटी रकम वसूली जा रही है. बेटा पाने की चाह में भी बहुत से लोग इनके झांसे में आकर लुट रहे हैं. सरकार की नजर में भले ही अब लड़के-लड़कियों में कोई विशेष अंतर नहीं माना जाता हो, लेकिन बेटा-बेटी के बीच हमारे समाज में आज भी जो सामाजिक भेदभाव है, उसी का फायदा उठाकर आईवीएफ संस्थान लड़के पैदा कराने का लालच देते हैं, जो कि पूरी तरह से गैरकानूनी है.


अफ़सोस की बात यह है कि केंद्र और राज्य सरकारों का ध्यान इस तरह के गैरकानूनी कार्यों की तरफ ज़रा भी नहीं है. भविष्य में यह हमारे देश में लड़के-लड़कियों के बीच लिंग अनुपात संतुलन को बिगाड़ के रख देगा. लड़का पाने के लिए आईवीएफ तकनीक अपनाने पर तुरंत रोक लगनी चाहिए. अंत में निःसंतान दंपत्तियों को लुटने से बचने के लिए एक सुझाव दूंगा कि निजी आईवीएफ क्लिनिक में जाएँ तो पहले ज्यादा पैसा जमा न करें. मासिक धर्म के 15 से लेकर 21 दिन के बीच पांच से छह हजार तक का जो टेस्ट होता है, उतना कराकर किसी भी अच्छे डॉक्टर से सलाह लें, फिर आगे बढ़ें और इलाज में होने वाले हर खर्च का विवरण आईवीएफ क्लिनिक से मांगे.

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