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दिवाली: अंधेरे में जो बैठे हैं नज़र उन पर भी कुछ डालो

सद्गुरुजी
सद्गुरुजी
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उत्तर दक्षिण पूरब पश्चिम
जिधर भी देखूं मैं अंधकार अंधकार
अँधेरे में जो बैठे हैं नज़र उन पर भी कुछ डालो
अरे ओ रौशनी वालों
बुरे इतने नहीं हैं हम जरा देखो हमे भा लो
अरे ओ रौशनी वालो…


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आजादी के बाद देश में सर्वत्र फैली गरीबी व भूखमरी देखकर देश के महान कवि और हिंदी फिल्मों के प्रसिद्ध गीतकार प्रदीप जी ने ‘उत्तर दक्षिण पूरब पश्चिम’ शीर्षक के नाम से एक कविता लिखी थी, जिसे बाद में एक गीत के रूप में वर्ष 1969 में बनी हिंदी फिल्म ‘सम्बन्ध’ में लिया गया था. आजादी के सत्तर वर्ष बाद भी हमारे देश के गरीबों की भूखमरी, बदहाली और बेकारी की समस्या में कोई बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आ पाया है. हिन्दुस्तान की अस्सी फीसदी जनता आज भी रोटी, कपड़ा, मकान और रोजगार जैसी जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं को पाने के लिए दिनरात जूझ रही है. रोजगार, उन्नति और अमीरी से भरपूर जीवन पाने वाले और तमाम तरह के ऐशोआराम से भरपूर घरों में रहने वाले देश के बीस फीसदी लोग ही वस्तुतः खुशहाल जिंदगी जी रहे हैं. इन रौशनी में जीने वाले बीस फीसदी लोगों का क्या ये फर्ज नहीं बनता है कि गरीबी के अँधेरे में जीने वाली देश की अस्सी फीसदी आबादी के लिए वो कुछ ऐसा करें, जिससे उन्हें रोजगार, शिक्षा और उन्नति करने का एक उपयुक्त वातावरण मिले.


कफ़न से ढँककर बैठे हैं हम सपनों की लाशों को
जो किस्मत ने दिखाए देखते हैं उन उन तमाशों को
हमें नफरत से मत देखो जरा हम पर रहम खा लो
अरे ओ रौशनी वालों
अँधेरे में जो बैठे हैं नज़र उन पर भी कुछ डालो
अरे ओ रौशनी वालों…


देश के तमाम नेता आम जनता से गरीबी दूर करने के झूठे वादे करते हैं और चुनाव जीतकर सत्ता में आते ही सारे वादे भूलकर अपनी आने वाली कई पीढ़ियों के लिए धन बटोरना और सत्ता से लम्बे समय तक चिपके रहने का मार्ग तलाशना शुरू कर देते हैं. अधिकतर गरीबों के सपने बहुत बड़े नहीं होते हैं, वो रोजगार, दो जून की रोटी, वस्त्र, सुरक्षा, एक साधारण सा मकान पाने और इज्जत से भरी जिंदगी जीने तक ही सीमित है. हिन्दुस्तान को आजादी मिले सत्तर साल हो गए, लेकिन हमारे देश-प्रदेश की सरकारें आज तक अधिकतर गरीबों के इन सपनो को साकार नहीं कर पाई हैं. केंद्र और राज्य सरकारें, जब गरीबों का भला करना हो तो खजाना खाली होने का बहाना बनाना शुरू कर देती हैं. जनता से अनेक तरह के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर के रूप में तथा पेट्रोल, डीजल और दारू (शराब) आदि से अथाह धन वसूलती हैं, लेकिन उसका अधिकतर हिस्सा मंत्रियों, सांसदों, विधायकों की सेवा और अनेक तरह के सही-गलत सरकारी खर्चों की भेंट चढ़ जाता है. इन खर्चों में कटौती हो तो गरीबों का कुछ भला हो.


हमारे भी थे कुछ साथी, हमारे भी थे कुछ सपने
सभी वो राह में छूटे, वो सब रूठे जो थे अपने
जो रोते हैं कई दिन से, जरा उनको भी समझा लो
अरे ओ रौशनी वालों
अँधेरे में जो बैठे हैं नज़र उन पर भी कुछ डालो
अरे ओ रौशनी वालों…


दिवाली के अवसर पर रात के समय शहर की ओर दूर दूर तक जहाँ भी नजर जाती है, रौशनी से जगमगाते हुए एक से बढ़कर एक आलिशान भवन दिखाई देते हैं. शहर से बाहर गाँव-देहात और छोटी बस्तियों पर नजर डालिये तो अधिकतर जगहों पर गरीबी और बदहाली नजर आती है. कल हमारे पूरे शहर भर में जिस तरह से सैकड़ों करोड़ की खरीदारी हुई और हर तरह के बाजार गुलजार रहे, उससे तो यही लगा कि बाजार पर नोटबंदी और जीएसटी का कोई असर नहीं है. लोगों के पास पैसे हैं और हमारे देश की अर्थव्यवस्था भी अब पूरी तरह से सही पटरी पर है. अब फिर वही अनुत्तरित यक्ष प्रश्न उठ खड़ा होता है कि जब सब कुछ सही है तो फिर हमारे देश की अस्सी फीसदी आबादी गरीबी, बेकारी और बदहाली का दंश क्यों झेल रही है? केवल सरकार के प्रयास से देश की गरीबी नहीं मिटने वाली है. देश की बीस फीसदी जो मध्यम और उच्चवर्गीय जनता है, उसकी भी जिम्मेदारी बनती है कि वो गरीबों की मदद करें और उन्हें रोजगार दें. कूड़ा फेंकने वाले बच्चों को पढ़ाने वाले देहरादून के एक सज्जन के बारे में कल पढ़ा तो बहुत अच्छा लगा.


ऐसे लोगों को सौ-सौ बार नमन. देश में ऐसी ही पहल की सख्त जरूरत है. मीडिया में छपी एक खबर के अनुसार देहरादून में आईएसबीटी के समीप इलाहाबाद बैंक शाखा में गार्ड के रूप में तैनात विजेंद्र सिंह ने सड़कों पर कबाड़ बीनने वाले 15 गरीब बच्चों को पढ़ाने का जिम्मा अपने ऊपर लिया हुआ है. भूतपूर्व सैनिक विजेंद्र सिंह अपनी तनख्वाह और पेंशन का एक बड़ा हिस्सा उन गरीब बच्चों पर खर्च कर रहे हैं, जो कूड़ा बीनकर अपने घर का खर्चा चलाते हैं और जिनके मां-बाप के पास अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए पैसे नहीं है. विजेंद्र सिंह इस बात को अच्छी तरह से समझते हैं कि कबाड़ बीनकर बच्चों का एक अच्छा भविष्य नहीं बनेगा और बड़े होकर वो हमारे देश के अच्छे नागरिक भी नहीं बन पाएंगे. इसलिए वो शाम को बैंक की ड्यूटी के बाद नियमित रूप से बैंक परिसर में ही गरीब बच्चों को 2 घंटे का निशुल्क ट्यूशन देते हैं. बच्चों को स्कूली पढ़ाई पढ़ाने के साथ ही उनकी अंदरूनी प्रतिभा को निखारने के लिए वो समय-समय पर खेल, डांस और सामान्य ज्ञान प्रतियोगिता का आयोजन भी कराते रहते हैं.


तीन वर्ष से विजेंद्र सिंह ऐसी उत्कृष्ट समाज सेवा कर रहे हैं और बच्चों के बीच वो गार्ड अंकल के रूप में मशहूर हो चुके हैं. बच्चों को किताब, कॉपी, पेंसिल और जरूरत की अन्य चीजें उनके प्यारे गार्ड अंकल ही उपलब्ध कराते हैं. विजेंद्र सिंह का मानना है कि गुजारे के लिए दो जून की रोटी हर कोई कमा लेता है, लेकिन अपने जीवन में यदि हम गरीब और बेसहारा जरूरतमंदों की कोई मदद न कर पाएं, तो हमारा जीना ही व्यर्थ है. विजेंद्र सिंह की ऊँची सोच और निःस्वार्थ भाव से की जा रही समाज सेवा को हम सैल्यूट करते हैं. सबके लिए सर्वसुलभ और निःशुल्क शिक्षा उपलब्ध कराने की झूठी डींग हांकने वाली केंद्र व राज्य सरकारों को शर्म आनी चाहिए. देश को समृद्ध और खुशहाल बनाने के लिए भाई विजेंद्र सिंह जैसे महान नागरिकों की सख्त जरूरत है. सरकार को ऐसे लोगों को पुरस्कृत करना चाहिए. सही मायने में तो ऐसे लोग ही देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान पाने के वास्तविक हकदार हैं. अंत में आप सभी को दिवाली की बहुत-बहुत बधाई.

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