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सब आया एक ही घाट से, उतरा एक ही बाट
बीच में दुविधा पड़ गयी, हो गए बारह बाट
सर्वव्यापी परमपिता परमात्मा का एक ही घाट यानी धाम है, सब उसी के शाश्वत धाम सत्यलोक से आकर इस धरती पर उतरते हैं या कहिये अवतरित होते हैं. परमात्मा का सर्वव्यापी शाश्वत धाम (सत्यलोक) एक है और उससे पुनर्मिलन हेतु बाट जोहने का स्थान (धरती) एक है, लेकिन इस संसार में आने के बाद इंसान ऐसे माया मोह और दुविधा में फंस जाता है कि भगवान को भूलकर अन्य बहुत सी चीजों से मिलन की बाट जोहने लगता है. यही सांसारिक जीवन का सबसे बड़ा आश्चर्य और रहस्य है.
घाटे पानी सब भरे, अवघट भरे न कोय
अवघट घाट कबीर का, भरे सो निर्मल होय
कुएं, तालाब, नहर और नदी से तो सभी पानी भरते हैं, किन्तु शरीर के भीतर जो परमात्मा रूपी जल है, उसे कोई नहीं भरता है. जबकि आत्मा की जन्म-जन्मांतर की प्यास सिर्फ उसी से बुझ सकती है. शरीर के भीतर जो कबीर साहब का यानी कि ईश्वरीय घाट है, वहां कोई स्नान करे तो उसका मन निर्मल हो जाए और उसके पीछे पीछे हरि चलने लगें. ‘कबीरा मन निर्मल भया जैसे गंगा नीर, पाछे पाछे हरि फिरं कहत कबीर कबीर.’ आध्यात्म का सार यदि चंद शब्दों में बयान करें, तो वो मन की निर्मलता है, जो चाहे ज्ञान से हासिल हो या फिर साधना से.
हिन्दू कहूं तो हूँ नहीं, मुसलमान भी नाही
गैबी दोनों बीच में, खेलूं दोनों माही
कबीर साहब कहते हैं कि मैं न तो हिन्दू हूँ और न ही मुसलमान हूँ. मैं तो दोनों के बीच में छिपा हुआ हूँ और दोनों का ही आनंद ले रहा हूँ. कबीर साहब ने हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्मों की शाश्वत बातों को ग्रहण किया और काल्पनिक व निरर्थक बातों का परित्याग किया. यही वजह है कि उन्होंने दोनों ही धर्मों की बुराइयां गिनाईं और हिन्दू-मुस्लिम दोनों को ही अपने धर्म में सुधार करने का सन्देश दिया. कबीर साहब ने मंदिर और मस्जिद दोनों ही बनाने का विरोध किया, क्योंकि उनके अनुसार मानव तन ही असली मंदिर-मस्जिद है, जिसमे परमात्मा का साक्षात निवास है.
कहाँ से आया कहाँ जाओगे
खबर करो अपने तन की
कोई सदगुरु मिले तो भेद बतावें
खुल जावे अंतर खिड़की
जीव कहाँ से आया है और कहाँ जाएगा, उसके समक्ष सबसे बड़ा अनुत्तरित प्रश्न यही है. पंडित और मौलवी इसका जबाब धर्मग्रंथों से देते हैं, कबीर साहब कहते हैं कि इस प्रश्न का सही जबाब हासिल करना है तो किसी सद्गुरु की मदद लेनी चाहिए. जब तक अंतरपट नहीं खुलेगा, तब तक जीव को इस सवाल का अनुभूतिपरक सही जबाब नहीं मिलेगा कि इस दुनिया में वो कहाँ से आया है और एक दिन शरीर छोड़ने के बाद कहाँ जाएगा? संतों का यही मानना है कि वास्तविक आध्यात्म शास्त्रों में नहीं, बल्कि शरीर के भीतर है.
हिन्दू मुस्लिम दोनों भुलाने
खटपट मांय रिया अटकी
जोगी जंगम शेख सेवड़ा
लालच मांय रिया भटकी
कहाँ से आया कहाँ जाओगे…
हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही आज ईश्वर-पथ से भटक गए हैं, क्योंकि इन्हें कोई सही रास्ता बताने वाला नहीं है. पंडित, मौलवी, योगी और फ़क़ीर सब सांसारिक मोहमाया और धन के लालच में फंसे हुए हैं. वास्तविक ईश्वर-पथ का ज्ञान जब उन्हें खुद ही नहीं है तो वो आम लोंगो को क्या कराएंगे? आज के युग में धर्म और आध्यात्म के नाम पर पूरी तरह से सिर्फ और सिर्फ दुकानदारी भर ही हो रही है. आज के युग में मीडिया की पहुँच घर-घर में है, लेकिन मीडिया धर्म व आध्यात्म को सही ढंग से जनमानस तक पहुंचाने की बजाय धर्म के सहारे अपना व्यावसायिक हित साधने में ही ज्यादा जुटी हुई है.
काज़ी बैठा कुरान बांचे
ज़मीन बो रहो करकट की
हर दम साहेब नहीं पहचाना
पकड़ा मुर्गी ले पटकी
कहाँ से आया कहाँ जाओगे…
कबीर साहब कहते हैं कि मौलवी और काजी कुरआन पढ़ते हैं, लेकिन उस पर पूरी तरह से अमल नहीं करते हैं, या यों कह लीजिये कि उसके अनुसार कर्म नहीं करते हैं. वो हर जीव में परमात्मा को नहीं देख पाते हैं, यही वजह है कि वो मुर्गी-मुर्गा, बकरा-बकरी सहित अन्य कई जीवों को पकड़ते हैं और उन्हें मार के खा जाते हैं. कबीर साहब हर जीव पर दया का भाव रखते हैं और हर जीव के अंदर परमात्मा का निवास मानते हैं, इसलिए उन्होंने जीव हत्या का पुरजोर विरोध किया है. जीव हत्या को उन्होंने धर्म यानी परमात्मा विरोधी कार्य कहा है और उसकी घोर निंदा की है.
बाहर बैठा ध्यान लगावे
भीतर सुरता रही अटकी
बाहर बंदा, भीतर गन्दा
मन मैल मछली गटकी
पकड़ा मुर्गी ले पटकी
कहाँ से आया कहाँ जाओगे…
कबीर साहब बाहरी जप तप को साधना की सही विधि नहीं मानते थे. व्यक्ति आँख खोलकर परमात्मा में ध्यान लगाने की कोशिश कर रहा है और देह के भीतर उसकी सूरत यानी आत्मा मायामोह में फंसी हुई है तो उसका आत्मिक कल्याण कैसे होगा? अगर आदमी बाहर से अच्छा है और भीतर से गंदा है तो आध्यात्मिक उन्नति नहीं कर सकता है अर्थात परमात्मा के निकट नहीं जा सकता है. मन का मैल गले में मछली के फंसने के जैसा है और और मन मैला हो तो जीव हत्या रूपी पाप भी जरूर होगा. कबीर साहब यही चाहते थे कि परमात्मा के सच्चे भक्त जीव हत्या जैसे जघन्य पाप से बचें.
माला मुद्रा तिलक छापा
तीरथ बरत में रिया भटकी
गावे बजावे लोक रिझावे
खबर नहीं अपने तन की
कहाँ से आया कहाँ जाओगे…
कबीर साहब के मतानुसार माला पहनने, तिलक लगाने, व्रत रहने और तीर्थ करने भर से जीव का आध्यात्मिक कल्याण नहीं होगा. इसी तरह से जो लोग धार्मिक कथाएं सुनाते हैं, भजन गाकर, नाचकर लोगों को रिझातें हैं, वो भी आम जनता को आत्मिक कल्याण का उचित सन्मार्ग नहीं दिखाते हैं. कबीर साहब कहते हैं कि ज्ञानी और सच्चे साधू वो हैं, जो शरीर को ही मंदिर-मस्जिद मानते हैं और अपने शरीर के भीतर ही परमात्मा को ढूंढने की कोशिश करते हैं. जो अपनी देह के भीतर ईश्वर का दर्शन कर लेता है, उसका जीवन धन्य, सार्थक व सफल हो जाता है.
बिना विवेक से गीता बांचे
चेतन को लगी नहीं चटकी
कहें कबीर सुनो भाई साधो
आवागमन में रिया भटकी
कहाँ से आया कहाँ जाओगे…
कबीर साहब कहते हैं कि यदि ह्रदय में विवेक और वैराग्य का उदय नहीं हुआ है तो गीता पढ़ने से भी उसका क्या भला होगा? जब तक मन को सत्य का झटका नहीं लगेगा और हमारी चेतना पूरी तरह से जागृत नहीं होगी, तब तक आत्मा-परमात्मा की तथ्यपरक अनुभूति नहीं होगी. कबीर साहब फरमाते हैं कि मन ही बंधन और मोक्ष का मूल कारण है. जब तक मन को नियंत्रित नहीं करोगे और आत्मा की अनुभूति नहीं प्राप्त करोगे, तब तक संसार में आने-जाने का चक्र नहीं रुकेगा. आत्मा के द्वारा ही परमात्मा की भी अनुभूति प्राप्त होती है.
पाठकों के लाभार्थ, अपने आध्यात्मिक अनुभव के अनुसार इस भजन की सरल व्याख्या मैंने प्रस्तुत करने की कोशिश की है. अंत में आप सबके आध्यात्मिक कल्याण की कामना करते हुए बस यही कहूंगा कि सर्वव्यापी और सबके भीतर व्यापी अनामी पुरुष यानी परमात्मा आप सब पर अपनी कृपा सदैव बनाए रखे. वो आप सबके संस्कारों की पूर्ति में मदद करें और अन्तोगत्वा अपना बोध भी करायें.
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